दुनिया की नदियां – 19
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
भारत में नदी स्त्रीलिंग मानी जाती है। ब्रह्मपुत्र नदी का नाम (पुल्लिंग) है, वैसा ही इसका सम्पूर्ण चरित्र है। विशालकाय होकर यह बाढ़ में डूबाती और सुखाड़ में रेत में दबाती और चलाते हुए थकाती है। तिब्बत में इसका उद्गम मनोहारी है। अरुणाचल असम बाढ़ का डरावना दृश्य प्रस्तुत करता है। यह नदी विविध रूपा है। इसके उद्गम पर ही तिब्बत क्षेत्र में चीन ने इस पर घात शुरू कर दी है। चीन द्वारा सांपों नदी पर बन रहे भयानक बांध हाईड्रोजन बम्ब की तरह उपयोग किये जा सकते हैं।
भारत ने कभी अपने पड़ोसी देश की नदियों पर किसी भी प्रकार से घातक कार्य नहीं किये हैं। अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों की पुर्णतः पालना की है। अन्तर्राष्ट्रीय नदी कानून को माना है। हमने अपने पड़ौसी देशों को कानून मनवाने की आध्वता पैदा नहीं की है। यह हमारी कमजोरी है? छोटा भाई मानकर उसकी गलतियों को नजर अंदाज किया है? मुझे इन दोनों सवालों का जबाव ढूंढ़ना है। हमारी सरकार ब्रह्मपुत्र नदी के विषय में मौन क्यों है? बोलती तो जवाब मिल जाता।
ब्रह्मपुत्र पर पड़ोसी की घात हमारे भविष्य हेतु खतरा है। इसे एक घातक प्रयास मानकर इसका समाधान खौजना जरूरी है। बंगला देशी तो नदी जोड़ के विरुद्ध काम शुरू होने से पहले ही देश-दुनिया में चिल्लाने लगे। इन्होंने विश्वजलमय अन्तर्राष्ट्रीय जल सम्मेलनों में भारत की बहुत निंदा करने का प्रयास किया था। मैंने स्वयं ने दर्जनों बार जवाब दिया है। यह ‘‘प्रस्तावित नहीं जोड़’’ है। हम भारतीय ही इसको रोकने हेतु सक्रिय हैं। यह हमारे देश के लिए घातक है। बांग्लादेश के लिए उतनी घातक नहीं है।
बांग्लादेशी हमें सुनकर शांत हो जाते हैं। चीन के ‘‘साम्वो दुष्यकर्मी’’ को हम नदी सरकार ही समाधान ढूंढ सकती है। हमारी सरकार को चीन के गलत कामों को रोकना तथा अच्छे काम कोई हां तो प्रशंसा भी जरूर करनी चाहिए। हमारे अपने पड़ोसियों के प्रति रिश्तों का अच्छा होना जरूरी है।
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ब्रह्मपुत्र संकट मुक्त होगी। हम सभी संकट मुक्त और स्वस्थ होंगे। ब्रह्मपुत्र चीन से अधिक भारत की नदी है। इसका अधिक अच्छा-बुरा असर भारत पर ही पड़ता है। भारत को अधिक सचेत रहने की जरूरत है।
मेरे अरुणाचल के साथियों ने ब्रह्मपुत्र नदी यात्रा का आयोजन किया था। इसमें रवीन्द्रनाथ, हेम भाई, गुवाहाटी के स्मिथ, सर्वोदयी भाई-बहनों का प्रत्यक्ष योगदान और बहुत से साथियों का साथ रहा था। सांपो नदी तिब्बत से चलकर भारत पहुंचते ही डीह बन जाती है। अरुणाचल की डीह आसाम में आकर ब्रह्मपुत्र बन जाती है। ब्रह्मपुत्र के बाएं-बाएं दिबांग नदी, लोहित नदी, धनसिरी नदी, दाएं कामेंग नदी, मानस नदी, बेकी नदी, रैडक नदी, जलंधा नदी, तीस्ता नदी, सुबनसिरी नदी हैं।
भारत में गुवाहाटी, डिब्रूगढ़ व तेजपुर ही मुख्य नगर इसके किनारे हैं। भागीरथ ग्लेशियर तिब्बत के हिमालय की 5210 मी0 (17090 फिट) की उँचाई से आरम्भ होकर बंगाल की खाड़ी व बांग्लादेश के गंगा डेल्टा में जाकर समुद्र में मिल जाता है। तिब्बत से 2800 किमी यात्रा करके यह नदी बांग्लादेश पहुंचती है। ब्रह्मपुत्र, गंगा व मेघना तीनों नदियां एक पंजे की तरह भिन्न-भिन्न रंगों की जल घाटी बनकर समुद्र में विलीन होती हैं।
इस नदी का उद्गम तिब्बत में कैलाश पर्वत के निकट ‘जिमा यॉन्गजॉन्ग झील’ है। आरंभ में यह तिब्बत के पठारी इलाके में, यार्लुंग सांगपो नाम से, लगभग 4000 मीटर की औसत ऊँचाई पर, 1700 किलोमीटर तक पूर्व की ओर बहती है, जिसके बाद नामचा बार्वा पर्वत के पास दक्षिण-पश्चिम की दिशा में मुड़ कर भारत के अरुणाचल प्रदेश में घुसती है, जहां इसे सियांग कहते हैं।
ऊँचाई को तेजी से छोडकऱ यह मैदानों में दाखिल होती है, जहां इसे दिहांग नाम से जाना जाता है। असम में यह नदी काफी चौड़ी हो जाती है और कहीं-कहीं तो इसकी चौड़ाई 10 किलोमीटर तक है। डिब्रूगढ तथा लखिमपुर जिले के बीच यह नदी दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। असम में इस नदी की ये दोनों शाखाएं वापस मिल कर मजुली द्वीप बनाती हैं, जो दुनिया का सबसे बड़ा नदी-द्वीप है। असम में इस नदी को प्रायः ब्रह्मपुत्र नाम से ही बुलाते हैं, पर बोड़ो लोग इसे भुल्लम-बुथुर भी कहते हैं, जिसका अर्थ है- कल-कल की आवाज निकालना।
इसके बाद यह बांग्लादेश में प्रवेश करती है, जहां इसकी धारा कई शाखाओं में बँट जाती है। इसकी एक शाखा गंगा की एक शाखा के साथ मिल कर उसे मेघना बनाती है। सभी धाराएं बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।
सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण
1954 के बाद बाढ़ नियंत्रण योजनाएँ और तटबंधों के निर्माण कार्य प्रारम्भ किए गए थे, बांग्लादेश में यमुना नदी के पश्चिम में दक्षिण तक बना ब्रह्मपुत्र तटबंध बाढ़ को नियंत्रित करने में सहायक सिद्ध होता है। तिस्ता बराज परियोजना, सिंचाई और बाढ़, दोनों की सुरक्षा योजना है। ब्रह्मपुत्र या असम घाटी से बहुत थोड़ी विद्युत पैदा की जाती है, जबकि उसकी अनुमानित क्षमता काफ़ी है। अकेले भारत में ही यह लगभग 12,000 मेगावाट है। असम में कुछ जलविद्युत केन्द्र बनाए गए हैं, जिनमें से सबसे उल्लेखनीय ’कोपली हाइडल प्रोजेक्ट’ है और अन्य का निर्माण कार्य जारी है।
नौका-संचालन और परिवहन
तिब्बत में लाकृत्जू के पास यह नदी लगभग 644 किलोमीटर के एक नौकायन योग्य जलमार्ग से मिलती है। इसमें चर्मावृत नौकाएँ (पशुचर्म और बाँस से बनी नौकाएँ) और बड़ी नौकाएँ समुद्र तल से 3,962 मीटर की ऊँचाई पर यात्रा करती हैं। त्सांगपो पर कई स्थानों पर झूलते पुल बनाए गए हैं।
असम और बांग्लादेश के भारी वाले क्षेत्रों में बहने के कारण ब्रह्मपुत्र सिंचाई से ज़्यादा अंतःस्थलीय नौसंचालन के लिए महत्त्वपूर्ण है। नदी ने पश्चिम बंगाल और असम के बीच पुराने समय से एक जलमार्ग बना रखा है। यद्यपि यदाकदा राजनीतिक विवादों के कारण बांग्लादेश जाने वाला यातायात अस्तव्यस्त हुआ है। ब्रह्मपुत्र बंगाल के मैदान और असम के समुद्र से 1,126 किलोमीटर की दूरी पर डिब्रगढ़ तक नौकायन योग्य है। सभी प्रकार के स्थानीय जलयानों के साथ ही यंत्रचालित लान्च और स्टीमर भारी भरकम कच्चा माल, इमारती लकड़ी और कच्चे तेल को ढोते हुए आसानी से नदी मार्ग में ऊपर और नीचे चलते हैं।
1962 में असम में गुवाहाटी के पास सड़क और रेल, दोनों के लिए साराईघाट पुल बनने तक ब्रह्मपुत्र नदी मैदानों में अपने पूरे मार्ग पर बिना पुल के थी। 1987 में तेज़पुर के निकट एक दूसरा कालिया भोमौरा सड़क पुल आरम्भ हुआ। ब्रह्मपुत्र को पार करने का सबसे महत्त्वपूर्ण और बांग्लादेश में तो एकमात्र साधन नौकाएँ ही हैं। सादिया, डिब्रगढ़, जोरहाट, तेज़पुर, गुवाहाटी, गोवालपारा और धुबुरी असम में मुख्य शहर और नदी पार करने के स्थान हैं। बांग्लादेश में महत्त्वपूर्ण स्थान कुरीग्राम, राहुमारी, चिलमारी, बहादुराबाद घाट, फूलचरी, सरीशाबाड़ी, जगन्नाथगंज घाट, नागरबाड़ी, सीरागंज और गोउंडो घाट, अन्तिम रेल बिन्दु बहादुराबाद घाट, फूलचरी, जगन्नाथगंज घाट, सिराजगंज और गोवालंडो घाट पर स्थित है। यह नदी यातायात के लिए सफल नदी है। इसलिए घात से काम करने वालों को अवसर भी देती है। यह भारत पर हाइड्रोजन बम्ब की तरह काम में ली जा सकती है।
ब्रह्मपुत्र का ऊपरी मार्ग 18वीं शताब्दी में ही खोज लिया गया था। हालांकि 19वीं शताब्दी तक यह लगभग अज्ञात ही था। असम में 1886 में भारतीय सर्वेक्षण किंथूप (1884 में प्रतिवेदित) और जे.एफ़. नीढ़ैम की खोज ने त्सांग्पो नदी को ब्रह्मपुत्र के ऊपरी मार्ग के रूप में स्थापित किया। 20वीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में कई ब्रिटिश अभियानों ने त्सांग्पो की धारा के प्रतिकूल जाकर तिब्बत में जिहकात्से तक नदी के पहाड़ी दर्रों की खोज की।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।