जल चिंतन – 5
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
केवल मध्य एशिया और अफ्रीका में ही जल संकट है, यह सत्य नहीं है, जल संकट पूरी दुनिया में है। सभी देशों में जल पर अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण है; लेकिन मध्य एशिया और अफ्रीका में तो लोग बेपानी होकर उजड़ कर यूरोप तथा दुनिया के दूसरे देशों में बसते जा रहे हैं। लाचार, बेकार और बीमार इंसान जहां भी जाता है वहां उसे अपमान ही झेलना पड़ता है। यह अपमान तनाव से लड़ाई शुरू कराता है। लड़ाई से बड़ी मार-पीट-लूट आरम्भ हो जाती है। ‘मरता क्या नहीं करता‘ जब वह मरने-मारने को तैयार हो जाता है, तब लूट रोकने में सरकार भी असफल हो जाती है। जैसे सीरिया में हुआ।
सीरिया की गंगा, इफरिट्रस का प्रवाह अर्तातुर्क ने टर्की में बड़े बांध बनाकर रोक दिया। सीरिया खेती में सबसे पुराना देश है। यहां का किसान बेपानी हो गया। खेती, उद्योग बंद होने लगे। लोग लाचार-बेकार-बीमार होकर देश छोड़ने को मजबूर हो गये। टर्की के दलालों ने अपने देश के रास्ते इन्हें जर्मनी, फ्रांस, स्वीड्न, बैल्जियम, नीदरलैण्ड और यू.के. आदि देशों में पहुंचाना आरम्भ किया। सीरिया खाली होने लगा। बगदादियों ने आकर इस पर कब्जा कर लिया।
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ऐसी ही कहानी फिलिस्तीन, जॉर्डन, इजराइल, सूडान और जिम्बाब्वे आदि देशों की भी है। कीनिया, इथोपिया, सोमालिया, बोत्सवाना आदि देशों के हाल भी वैसे ही बन रहे हैं।भारत अभी तक बचा हुआ था, लेकिन आज इस देश में पचास हजार करोड़ रुपये का जल बाजार खड़ा हो गया है। पहले तो उद्योगों ने ही जल प्रदूषण करके जल को पीने के योग्य नहीं छोड़ा, अब लोग प्रदूषित जल पीकर बीमार नहीं होंगे तो क्या होगा? ‘मरता क्या नहीं करता’ वे खरीद कर पानी पीने लगे, लेकिन सभी तो जल खरीद कर पी नहीं सकते है; इसीलिए जल पर झपटमार शुरू है। यहां के बड़े उद्योगपतियों ने समुद्र तक पर कब्जा कर लिया है। नदियां खरीद लीं हैं। सामाजिक, धार्मिक सत्ता-शासन से साठ-गांठ करके महानदी जैसी नदी जल पर भी टर्की की तर्ज पर ही बैराज बना दिये हैं। पूरी नदी पर छः उद्योगपतियों ने कब्जा कर लिया है। छत्तीसगढ़ सरकार इनको पूर्ण सहयोग कर रही है, वह न्यायिक प्रक्रिया में भी अड़चनें पैदा कर रही है। इस प्रकार ‘महानदी’ नदी का विवाद बढ़ता जा रहा है।
गरीबों की जल जरूरत के विषय में किसी को चिंता नहीं है। उद्योगपतियों की जरूरत की ज्यादा चिंता है। सभी उद्योगपति पीने वाले पानी से उद्योग चला रहे हैं; यह जघन्य अपराध है। उद्योग और बाजारू खेती तो परिशोधित जल से भी चला सकते हैं, लेकिन वे ऐसा इसलिए नहीं करते, क्योंकि सरकार उनसे पूछती ही नहीं है। पीने के पानी को प्राथमिकता सरकारी नीति में केवल लिखकर दिखाने के लिये है; उपयोग और व्यवहार दूसरा है। आज सरकार को अपनी कथनी और करनी के भेद की चिंता नहीं है।
जलप्रवाह, सिंचन व पेयजल आदि के विषय में किसी भी प्रकार की नीति एवं योजनाओं का ख्याल नहीं है। अभी नदियों पर संकट है। सारी दुनिया के लोग इकठ्ठा होकर इन्हें बचाने की बात करें, रास्ते खोजें और मिलकर काम शुरू करें। हमें इस संकट की घड़ी में यह देखना हैं कि नदियां के जल को आखिर कौन अतिक्रमण कर के इन्हें प्रदूषित बना रहा है? प्रदूषण करने वालों का स्वार्थ क्या है?
हम अभी प्रदूषकों, शोषकों और अतिक्रमणकारियों को कैसे रोक सकते हैं? फसलों में गन्ना, धान व चावल आदि मानव के पीने वाले पानी को हवा में उड़ा रहे हैं। उड़ा हुआ यह पानी जहां वर्षा की आवश्यकता है, वहां मदद करेगा; इस बात की कोई गारन्टी नहीं है। इसलिए वर्षा-चक्र और फसल-चक्र का जुड़ाव जरूरी है। यह काम तो सरकार के जल सम्पदा और जल संसाधन विभागों ने सामुदायिक नेतृत्व के साथ मिलकर शुरू किया है। इस कार्य को दुनिया की सरकारों और समाज को भी मिलकर इसी प्रकार करना चाहिए। जब तक राज और समाज इस संकट का मिलकर समाधान नहीं खोजेगा, तब तक दुनिया का तीसरा विश्वयुद्ध नहीं रुकेगा।
तीसरे संभावित विश्वयुद्ध को रोकने में महात्मा गांधी (बापू) से ही सीख मिलती है। बापू ने दूसरे विश्वयुद्ध में भी शांति का संदेश दिया था। उसी काम का उनका संदेश हैः- ‘प्रकृति सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, लेकिन किसी एक इंसान का भी लालच पूर नहीं कर सकती।’ उन्होंने भारत को शांतिमय तरीके से लाखों नागरिकों को जोड़कर देश की आजादी में बहुत से शहीद होने वाले युवाओं को बलिदान के लिए तैयार किया था। उन्होंने अपनी साधना-सिद्धी से देश को जाग्रत करके खड़ा कर दिया था। इस प्रकार देश की जनता ने शांतिमय तरीके से आजादी हासिल कर ली थी।
भारतवर्ष में सत्य-अहिंसा का सम्मान था। इसीलिए ’’सत्यमेव जयते‘‘ हो गया था। अहिंसक जीवन पद्धति से यहां के लोग अपने भगवान् को प्यार, विश्वास, आस्था भाक्तिभाव से देखते, जीते और सहेज कर रखते थे। भगवान् का अर्थ, (भ-भूमि, ग-गगन, व-वायू, आ-अग्नि और न-नीर)। यही पंचमहाभूत भगवान् थे। वैदिक ग्रंथो व वेदों में किसी अन्य देवता के नाम ‘भगवान’ के रूप में उल्लेख नहीं है।
वेदों के बाद भी भगवान् उसी को कहते थे, जो पंचमहाभूतों से निर्मित जंगल, जंगलवासी, जंगली जीवों को प्यार और सम्मान करता रहा है। जैसे ‘कृष्ण’ बाढ़ से बचाव कराने वाला, कंस की लूट से बचाने के लिए संघर्षरत कृष्ण तो पशुपालकों का नेता था। वह यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए ‘कालिया नाग’ या यूँ कहिये प्रदूषणकारी उद्योगों के उद्योगपतियों से लड़ता था। उस काल में अन्याय के विरूद्ध अत्याचारियों से संघर्षशील राम-कृष्ण जैसे साधारण इंसानों को ही भगवान का सम्मान मिलता था।
आज उसका उल्टा अर्थात भौतिक दिखावटी व धरती को बिगाड़ने समाज को धोखा देने वालों को सम्मान दिया जा रहा है। आज के रोल मॉडल नदियां, समुद्र को प्रदूषित करने वाले लक्ष्मी पूजक ही पूजे जा रहे हैं। सम्मानित रहे लोग ही बहुत कुछ बिगाड़ रहे हैं। उन्हें हम विकास पुरुष कहकर सम्मान दे रहे हैं, जबकि इनके कर्मों से हमारी धरती कुरूप बन रही है। इन्होंने धरती को बुखार चढ़ा दिया है। मौसम का मिजाज बिगाड़ कर जलवायु परिवर्तन कर दिया है। परिणाम स्वरूप बेमौसम वर्षा होने लगी है। बेमौसम वर्षा के अनुसार फसलें नहीं होती तो फसलों को जल की अधिक जरूरत होती है। उसकी पूर्ति हेतु हम जल शोषण करके धरती का पेट खाली कर रहे हैं। इसलिए जब जरूरत पूरी करने हेतु मिट्टी को नमी नहीं मिलती, तो फसलें सूख जाती हैं। सरकारें अकाल घोषित कर देती हैं। जब कभी बेमौसम वर्षा होती है तो वर्षा जल के साथ मिट्टी कटाव होकर नदी तल में जीम मिट्टी नदी का तल ऊपर उठती है। जब फिर वर्षा होती तो बाढ़ आ जाती है।
कुरूप-शोषित धरती ही बाढ़-सुखाड़ का कारण है। इसे हरी-भरी बनाने वाले जंगल अब बहुत तेजी से घट रहे हैं। सूरज समुद्र के जल का वाष्पीकरण करके बादल (नीली गर्मी) बनाता है। हवाएं इन्हें लेकर हरे जंगलों की (हरी गर्मी) तरफ आकर्षित करती हैं। जंगलों-फसलों की हरियाली बादलों को अपने ऊपर बरसाती हैं। यह नीली हरी गर्मी मिलकर बरस कर मिट्टी में मिलकर ’पीली गर्मी’ में बदलने लगती है। बादल से निकला जल धरती पर गिरने से पहले ‘इंद्रजल’ कहलाता है और धरती पर गिरने के बाद मिट्टी से मिलते ही वह वरुण देवता (उत्पादक तत्व) कहलाता है। यह जल मिट्टी से मिलकर पुनः हरियाली को जन्म देता है। यही हमारे लिए अन्न, पक्षियों के लिए पत्ते तथा सभी जैव विविधता को जैवाधार देता है।
यही तो जीवन की शुरूआत है। इसे अब दुनिया भूल गई है। यही भारतीय अध्यात्म का मूल आधार है। अलौकिक शक्ति लौकिक ही होती है, लेकिन जब हम उसे समझते नहीं तो परलौकिक कह कर आगे बढ़ने का रास्ता खोजते हैं। हमें अपने अध्यात्म को अपनी आत्मा में जब भी खोजते हैं। तो वह स्पष्टता से हमें बताती, मैं पंचमहाभूतों के योग से निर्मित छठा नारायण हूँ। अर्थात हमारी जीवात्मा जो पंचमहाभूतों का ‘योग’ है वही है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आज हमने अपनी आत्मा को बुद्धि के अधीन कर दी बुद्धि व्यापार है। यह ‘लाभ-लालच की प्रेरणा से ही प्रेरित होती है। जब की आत्मा सबक-साझे भविष्य-वर्तमान की कामना होती है। इसी कामना को हम शुभ कहते है।
आत्मा शुभ की चाहत रखती है और बुद्धि लाभ की कामना करती है। शुभ-लाभ ही दुनिया है। शुभ प्राकृतिक प्रेरणा और लाभ व्यापार प्रेरणा बनाता है। इसे हम समझें। 21वीं सदी में दोनों को समझना है। इनके बीच अच्छा पुल बनाना ही जल साक्षरता है। पंचमहाभूतों का विलय करने वाला जल है।
ब्रह्माण्ड के कुल 118 तत्वों में से 90 तत्वों को अपने में मिलाने वाला जल सबको अपने में घोलता है। यह अकेला महातत्व दो तिहाई दुनिया को मिलाकर रखता है। केवल 28 तत्त्व हैं, जो अकेले जल में घुलते नहीं है, लेकिन अन्य पंचमहाभूतों की उपस्थिति में उनके लिए या उन्हें अपने लिए उपयोगी बनाकर दुनिया को जन्म देकर चलाने वाला तो ‘जल’ ही है। इसलिए इसकी साक्षरता हमारे भारतीय जल नायकों के लिए अतिआवश्यक है।
हम दुनिया के गुरु तभी तक थे, जब तक अपने जल को भगवान समझते थे। हमारे शरीर का आंखों का तथा हृदय का जल, विश्लेषण करने पर अलग-अलग हो सकता है; लेकिन जल तो एक ही है। जल हमारा जीवन, जीविका और ज़मीर है। इसकी इसी रूप में साक्षरता की आवश्यकता है। जब तक भारत जल साक्षर नहीं होगा, तब तक दुनिया में विश्व-शांति कायम करने में सफल नहीं होगा।
दुनिया की शांति ही भारत की शांति है। दुनिया में आज जो अशांति है, उसका दुष्प्रभाव भारत पर भी है। वर्तमान अशांति में ही हमारे विकास का लालच बढ़ रहा है। यह हमारी शांति व समृद्धि को स्थायी या सनातन नहीं रहने देता और सनातन नहीं रहने देगा। सनातनता तो शांतिमय स्वरूप में ही जन्म लेती है; वहीं सत्य और अहिंसा पलते और पोषित होते हैं। हमारे विविध काल-चक्र की सत्य-अहिंसा का मूल एक समान ही है। शब्दों और व्यवहार के अंतर से इनकी अनुभूति पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।जल का सत्य समझाने वाली साक्षरता और व्यवहार को संस्कार में लाने वाली अहिंसा ही हमारी जल साक्षरता बननी चाहिए। जब हम जल ही जीवन है, यह मानने लगते हैं; तभी से व्यवहार बदल जाते हैं।
जीवन तो सबका एक समान ही पंचमहाभूतों से निर्मित है; जब इसको उपयोग में लाते हैं तब हम बड़े-छोटे या गरीब-अमीर बनते हैं। जब हम बड़े या अमीर बनते हैं तभी जीने-पीने के पानी का शोषण-प्रदूषण व अतिक्रमण करने लगते हैं। हम इन तीनों को जब अपने व्यवहार व संस्कार में लेकर आते हैं, उस समय जल जीवन का सत्य भूल जाते हैं। उस वक्त हमारी बुद्धि प्रबल बन जाती है। बुद्धि के अधीन बनकर केवल लाभ के कल्पनामय सपने बुनकर उसी दिशा में काम करने में जुट जाते हैं। यही सपने और कल्पनाएं चंद लोगों को पानीदार और बहुतों को बेपानी बनाती हैं। लोगों को बेपानी बनाना ही हिंसा है।
पूरी दुनिया में बड़े उद्योग, शक्तिशाली राजा या सरकारें आज यही करने में जुटी हैं मध्य एशिया और अफ्रीका में अपेक्षाकृत ज्यादा जल की हिंसा है। मराठवाड़ा में गन्ना उत्पादन तथा हरियाणा व पंजाब में चावल का उत्पादन भी जल हिंसा ही है। उद्योगपति तो आज सभी जल हिंसा कर रहे हैं। जल हिंसा को रोकने का काम तो केवल और केवल जल साक्षरता ही कर सकती है।
बेपानी, गरीब की आंखों में तो अमीर के लिए भी जल होता है; लेकिन अमीर उद्योगपति के हृदय और आंखों का पानी सूख गया है। बेपानी, लाचार, बेकार, व बीमार होकर मरते गरीब को देखकर भी उसका हृदय नहीं पिघलता। उसकी आंखों में पानी नहीं आता। जब उद्योगपति की आंखों में पानी आयेगा, तभी उसे अहसास होगा कि गरीब के हिस्से के पानी से ही उसका उद्योग चल रहा है। सरकार ही उस पानी का उपयोग करने की अनुमति दे रही है। सरकार उस पानी को बनाती नहीं है; उसे केवल कस्टोडियन (ट्रस्टी-विश्वस्त) बनाया है। विश्वस्त ट्रस्टी मालिक नहीं होता, वह केवल प्रबंधक और उपयोग कर्ता होता है। वह दूसरे की हकदारी समाप्त नहीं कर सकता। जल की हकदारी सभी की समान है, लेकिन आज इसमें असमानता पैदा कर दी गई है। यही बात जल साक्षरता द्वारा समझाने की जरूरत है।
महाराष्ट्र सरकार ने हकदारी और जिम्मेदारी की बराबरी करने हेतु जलयुक्त शिवार और जल साक्षरता में कुछ अवसर सृजित किये हैं। यह दुनिया को सिखाने का अच्छा अवसर बन सकता है। जब तक यह कार्य दलगत राजनीति का शिकार नहीं बनता, तब तक ठीक दिशा में आगे बढ़ेगा। सभी राजनैतिक दल इस काम को 21वीं सदी का सबसे जरूरी काम मानकर, इसे जारी रखें। यह काम ‘महात्मा गांधी रोजगार गारन्टी’ जैसा ही गरीबी मिटाने वाला काम बन सकता है।
जल का काम किसी सरकार का काम नहीं होता। जल का काम सबके लिए और सभी के साथ मिलकर किया जाता है। जब भी इस काम को कोई अपना अकेले का काम मानता है, तो शुभ नहीं होता। ऐसे में यह किसी एक की लाभकारी योजना बनकर अन्य को उससे हटा देती है। अतः जल-साक्षरता सभी के लिए जरूरी है। ‘सभी के लिए शुभ’ के लिए यह सभी के लिए लाभकारी भी बननी चाहिए। एक के लिए नहीं, जब सभी के लिए लाभकारी होती है; तब ही यह शुभकारी भी स्वतः बन जाती है। जब कोई भी काम सभी के हित का बराबर ख्याल रखता है, तभी हम समता की तरफ सादगी से बढ़ जाते हैं। जब कोई भी एक अपना लालच पूरा करता है, तो उसमें जटिलताएं जन्म लेतीं हैं। समता या सादगी हमारा सतयुग बनाता है। जटिलताएं कलयुग का निर्माण करती हैं। आज हमारे जीवन में जटिलताएं हैं; तभी तो सभी तरफ हिंसा है। इस हिंसा को रोकना ही सत्कर्म होगा।
आज हमारे बीच बापू (महात्मा गांधी) होते, तो वे समता के लिए सादगी को औजार बनाते। जैसे आजादी दिलाने के लिए चर्खा दिया था, वैसे ही वे आज जल की लूट रोकने हेतु जल संरक्षण संवाद शुरू करके तालाब बनवाते। तालाब निर्माण सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन की प्राचीन भारतीय परम्परा है; जो जल पर सभी का समान हक कायम करती है।
तालाब का जलोपयोग हक सभी को समान है। इससे सभी लोग जल लेते रहे हैं। इन पर अतिक्रमण, प्रदूषण और भूजल शोषण से ये अब नष्ट होते जा रहे हैं। बापू आज चर्खे की ही तर्ज पर तालाब निर्माण का संदेश देकर देश को पुनः खड़ा कर देते। अब एक नहीं बहुत सारे महात्मा-बापू बनने होंगे। तभी हम दुनिया को जल संकट से बचा सकते हैं और जल के लिए चालू विश्वयुद्ध में शांति कायम कर सकते हैं।
किसानों को अपने आन्दोलनों हेतु भी वायु जैसी समझ वाली आत्मा की जरूरत है। जल और जलवायु परिवर्तन अनुकूलन, उन्मूलन हेतु वायु चाहिए। विज्ञान और अध्यात्म को जोड़ने, अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी को संवेदनशील बनाने प्राकृतिक पोषण करके ही सदुपयोग सिखाने के लिए भी बापू चाहिए। उनके जैसे सोच-समझ से काम शुरू करें, तो सभी समाधान मिल जायेगा। हम ही स्वावलम्बी, प्रकृति प्रेमी बनकर, गाँधी के रास्ते पर चलकर, जवानी-पानी-किसानी संकट समाधान करने में सफल हो जायेंगे।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।