जल चिंतन – 2
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
किसी भी देश की प्रगति या अवनति में वहां की जल सम्पदा का काफी महत्व होता है। जल की उपलब्धि या प्रभाव के कारण ही बहुत सी सभ्यतायें एवं संस्कृतियां बनती और बिगड़ती हैं । इसलिए हमारे देश की सांस्कृतिक चेतना में जल का काफी ऊंचा स्थान रहा है। वर्षा का जल को उसी स्थान पर रोक लेते थे। हमारे पूर्वज जानते थे कि तालाबों से जंगल व जमीन का पोषण होता है। भूमि के कटाव एवं नदियों के तल में मिट्टी के जमाव को रोकने में भी तालाब मददगार होते हैं। जल के प्रति एक विशेष प्रकार की चेतना और उपयोग करने की समझ उनकी थी। इस चेतना के कारण ही गांव के संगठन की सूझ-बूझ से गांव के सारे पानी को विधिवत उपयोग में लेने के लिए तालाब बनाये जाते थे। इन तालाबों से अकाल के समय भी पानी मिल जाता था। इनकी देख-भाल, रख-रखाव, मरम्मत आदि के कामों से गांव के संगठन को मजबूत बनाने में मदद मिलती थी।
जैसा कि गांवों की व्यवस्था से संबंधित अन्य बातों में होता था, उसी तरह तालाब के निर्माण व रख-रखाव के लिए भी गांववासी अपनी ग्राम सभा में सर्वसम्मति से कुछ कानून बनाते थे। ये कानून ‘गंवाई दस्तूर’ कहलाते थे। ये दस्तूर ‘गंवाई बही’ में लिखे जाते थे, या मौखिक परम्परा के जरिये पीढ़ी दर पीढ़ी चले जाते थे। गांव में आने वाले बाहरी व्यक्ति को भी इन गंवाई दस्तूर का पालन करना पड़ता था। ये गंवाई दस्तूर चूंकि सामान्य बुद्धि के अनुसार कायम होते थे। इसलिए करीब-करीब हर गांव में एक से ही होते थे। अतः सामन्य तौर से तो लोग इससे परिचित ही होते थे, नहीं तो भी बाहर से आने वाला व्यक्ति सहज ही उन्हें समझ लेता था।
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अलवर जिले के इस क्षेत्र में तालाब संबंधी कुछ पुराने गंवाई दस्तूरों से ज्ञान हुआ है कि तालाब की ‘आगोर’ में कोई जूता लेकर प्रवेश नहीं करता था। शौचादि के हाथ अलग से पानी लेकर आगोर के बाहर धोये जाते थे। आगोर में किसी गांव सभा की अनुमति के बिना मिट्टी खोदना मना होता था। आगोर से नहीं बल्कि तालाब के जल ग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) तक में शौचादि के लिए जाना मना था। किसी प्रकार गंदगी फैलाने वाले को तालाब की सफाई करके प्रायश्चित करने का सुझाव दिया जाता था। प्रायश्चित के लिए तालाब की पाल पर पेड़ लगाने तथा बड़ा होने तक उसकी देख-भाल करने की परम्परा थी।
तालाब के जल-ग्रहण क्षेत्र से भूमि कटकर नहीं आये और तालाब में जमा नहीं हो, इसकी व्यवस्था तालाब बनाते समय ही कर दी जाती थी, जिससे लम्बे समय तक तालाब उथले नहीं हो पाते थे। जब तालाब की मरम्मत करने की आवश्यकता होती थी, तो पूरा गांव मिल-बैठकर, तय करके यह काम करता था। तालाब से निकलने वाली मिट्टी खेतों में डालने या कुम्हारों के काम में आती थी।
तालाब को गांव की सार्वजनिक संपत्ति माना जाता था। गांव के लोग जब किसी दूसरे गांव को जाते थे, तो सबसे पहले तालाब को अपने गांव की संपत्ति में गिनाया जाता था। जिस गांव का जैसा तालाब होता था, वैसा ही उस गांव को माना जाता था। गांव का तालाब अच्छा है, तो उस गांव को समृद्ध, संगठित, शक्तिशाली माना जाता थ। गांव के महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते थे।
तथा-कथित शिक्षित लोगों की समझ
यह परम्परा 1890 तक तो बराबर चली। इसके बाद अंग्रेजों का ध्यान हमारे गांवाई संगठनों, स्वैच्छिक संस्थाओं तथा लोगों के अभिक्रम को खत्म करने की तरफ गया। उन्होंने पूरी सक्रियता से इन सब सहज चलने वाली गांवाई व्यवस्थाओं को खत्म करने की योजना विभिन्न प्रकार से बनाई-कहीं नहरी सिंचाई योजना तो कही बड़े बांध आदि के स्वप्न दिखाकर, तो कहीं हमारी उच्च सांस्कृतिक धरोहर, तालाब के जल की निंदा करके और कहीं हमारे देश की शिक्षापद्धति को प्रदूषित करके हमारें ही देशवासी तथा-कथित शिक्षित कहे जाने वाले लोगों द्वारा हमारी संस्कृति की बुराई कराके, नष्ट कराने के प्रयासों के बाद भी समृद्ध तालाबों की सम्पन्न परम्परा चालू रही। इन तालाबों से सिंचाई भी होती थी। इस तरह तालाब गांव की विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का हमारे ये तालाब जीते-जागते उदाहरण थे। राजस्थान के जिन क्षेत्रों मे केवल दो-चार सेन्टीमीटर वर्षा होती थी, उनमें भी इन तालाबों के सहारे लोग व पशु जीवित रहते थे। जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर के महा मरूस्थल क्षेत्र कम वर्षा के बावजूद आज की अपेक्षा ज्यादा विकसित थे। पानी कम होते हुए भी इस क्षेत्र की पुरानी हवेलियां, महल, बड़े-बड़े बाजार, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार केन्द्र यहां की तालाब व्यवस्था के कारण ही सम्पन्न हुए थे और उसकी उपयोगिता के प्रमाण थे।
1890 तक अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव देश में बढ़ गया था और अंग्रेजों का षडयंत्र सफल होने लगा था। सबसे पहले अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव हमारे यहां के राजाओं, सामन्तों, जागीदारों आदि पर पड़ा। जो पहले अकाल के समय तालाबों के निर्माण पर अधिक ध्यान देते थे, ये अब अपनी राजधानी के शहरों की चार दीवारी बनाने आदि कामों को महत्व देने लगे। इनके पूर्वजों ने जो तालाब बनाये थे वे बिन, देख-रेख के टूटने लगे, और जो एक बार टूट गया उसका पुनःनिर्माण नहीं हुआ। इनको समय ने और मिट्टी की गाद ने बूर दिया। इस प्रकार पुराने तालाब खत्म होते गयें।
हमारे देश में यह कहावत प्रचलित है कि ‘‘जैसा राजा, वैसी प्रजा’’। यह कहावत चरितार्थ हुई और ग्रामवासियों में भी तालाबों के प्रति उदासीनता बढ़ती गई। इसी प्रकार गांवों के तालाब नष्ट हुए और अंग्रेजों की नीति गांवों में भी अपना रंग दिखाने लगी। ग्रामसमाज के टूट जाने के कारण तालाबों का निर्माण, रख-रखाव और मरम्मत बंद हो गये। गांव के तालाबों के साथ-साथ गांव के संगठन भी बिखरने लगे।
पश्चिमी सभ्यता में जल व मिट्टी का स्थान
स्वतंत्रता की लड़ाई में केवल बापू ने अपनी बातचीत और भाषणों में अवश्य गांव के तालाब को प्रतिष्ठित किया था, लेकिन अन्य लोगों का इस तरफ कोई विशेष ध्यान केन्द्रित नहीं हुआ। अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजियत में पले हमारे दूसरे नेता हमारी समाज व्यवस्था की खूबी को समझ नहीं पाये, बल्कि उसे हीन मानकर उसकी निंदा करते रहे। उस समय बापू ने चर्खे के साथ-साथ गांव के तालाब-चारागाह के रख-रखाव को भी रचनात्मक कार्यक्रमों से जोड़ा होता तो अच्छा होता, हालांकि उनको खुद को तो इन सब बातों का ध्यान था। आजादी मिलने के समय ही बापू ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का ध्यान ग्राम-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की और दिलाया था, लेकिन नेहरू पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित थे। उनकी प्राथमिकता भाखड़ा जैसे बांध बनाने की थी देशी-विदेशी, निहित-स्वार्थी तत्वों ने इसका खूब फायदा उठाया। इन बड़ी-बड़ी सिंचाई योजनाओं से तालाबों पर सबसे अधिक प्रहार हुआ।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।