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सप्ताहांत विशेष
रमेश चंद शर्मा*
अपना सौभाग्य समझता हूं कि मेरा जन्म एक भरे-पूरे परिवार (कुनबे) में हवेली में हुआ। हमें हवेली वाले या हुरली वाले के नाम से पहचाना जाता। गांव के आस-पड़ोस में भी एक अलग ही पहचान थी। आज भी हवेली तो खड़ी हुई है।
हवेली दूर से ही अपने अस्तित्व का अहसास करा देती। ऊंचाई के कारण बहुत दूर से ही नजर आती। रात को भी खिड़कियों से टिमटिमाती रोशनी की चमक से हवेली को दूर से ही पहचान सकते।
हवेली गांव का सबसे ऊंचा, बड़ा घर तीन मंजिला। 17 कमरे, दो आंगन, एक पोली, दो सामने घोखे (घर के बाहर बैठने की विशेष व्यवस्था) मुख्य दरवाजे के दोनों ओर लगभग ढाई तीन फुट ऊंचे, छत ओर मेहराब के साथ जहां वर्षा आंधी तूफान में सुरक्षित आसरा लिया जा सकता। अनेक लोगों के बैठने की अच्छी व्यवस्था। मुख्य द्वार सुंदर कलाकारी बेल-बूटे के कारण अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए। चौड़ी चौड़ी चौखटे विशेष आकर्षित करती।
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सुरक्षा की दृष्टि से भी विशेष प्रबंध थे। अंदर की ओर लोहे की मजबूत सांकल, मध्य में लकड़ी की विशेष सांकल और सबसे महत्वपूर्ण एक लम्बी मजबूत लकड़ी की कड़ी दीवार के अंदर से खींच कर दोनों दरवाजों के मध्य में लगाई जाती। इससे मजबूती इतनी बढ़ जाती कि हाथी भी टक्कर मारे तो यह चोट झेल (सहन कर) ले, टूटने का नाम न ले। चौखट चारों ओर की अर्थात् नीचे जमीन की ओर भी लगभग एक फुट ऊंची थी जिसे पार करना पड़ता था। ऊपर की ओर तो और भी बड़ी चौड़ी बेल बूटों से सजी सजाई।
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दोनों आंगन के मध्य एक दीवार जिसमें दो द्वार खुले हुए। पर्दा भी सुरक्षा भी।ली को पारकर पहले आंगन में प्रवेश। इस आंगन के एक कोने में सीढ़ियां जिनको एकदम नहीं देखा जा सकता। संभव है इसे सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा बनाया गया जिससे कोई अन्जान व्यक्ति एकदम ऊपर नहीं जा सके।चौखट पार करते ही पोली में प्रवेश लंबी पोली जिसमें सौ से ज्यादा लोग बैठ सकते। छत पर नजदीक नजदीक कड़ियां जिनके मध्य में भी सजावट। पोली में सीढ़ियों के नीचे एक पतली सी जगह जिसमें छोटा सा दरवाजा, इसमें सामान भी रखा जा सकता। यह सीढ़ियों के नीचे का सुंदर उपयोग तथा बाहर से आने वाले को अंदाजा भी नहीं लग सकता कि ऊपर जाने का रास्ता किधर है।
दूसरे आंगन के एक कोने में ढकी हुई सीढ़ियां। आंगन में तीन ओर कमरे एक ओर पोली जिसमें एक द्वार। नीचे दूसरे आंगन में सामने वाले कमरों के सामने तिबारी।
दूसरी मंजिल में अंदर वाले आंगन पर तीन ओर छज्जा। सामने एक ओर तिबारी कमरे, दो ओर केवल कमरे। पहले आंगन की सीढ़ी से ऊपर चढ़ने पर पोली की छत पर पहुंचे। उसके एक ओर ढाई तीन फुट ऊंची एक ओर छत घोखो वाली।
तीसरी मंजिल पर जाने के लिए भी दो सीढ़ी है।
यहां तीन कमरे तथा दो खुले टीन शेड। सामने वाले एक कमरे में सीढ़ियां हैं, जिससे छत पर जाया जा सकता है।
हवेली के पीछे की तरफ लगभग एक मंजिल का बड़ा हिस्सा जमीन में दबा हुआ है।
हमारे बाबा जी पांच भाई। उनकी संतान हमारे ताऊजी चाचा जी बुवा जी लगभग 28। फिर हम भाई बहन लगभग तीन दर्जन। दादी जी ताई जी चाची जी इस प्रकार 80 के लगभग लोग हवेली में रहते। एक मजेदार हलचल चहल-पहल रहती।
बच्चों की आवाज आस-पड़ोस में हंगामा मचाए रखती। क्या रौनक थी। सुबह-शाम कुछ ज्यादा ही हलचल चहल-पहल रहती। गर्मियों में घोखे की छत पर बच्चों की संसद, बैठक, टोली बैठती। वहीं बैठे बैठे कहानी किस्से, कथा, मुहावरे, लोकोक्तियां, पहेलियां, सवाल-जवाब, बातचीत, हल्की फुल्की छीना-झपटी, धक्का-मुक्की चलती। इसी समय में शाम का भोजन भी आमतौर पर इसी स्थान पर रहता। इस समय का सभी को इंतजार रहता। बैठने के लिए स्थान पर कब्जे की होड़ भी लगती।
कितनी बातें, प्रसंग, यादें मन में दबी पड़ी है।उन्हें लिखने, संजोकर रखने की आवश्यकता है। नई पीढ़ी को कम से कम झलक तो मिल जाए। कैसे यह हवेली बनी, ताना सुनने पर कुआं खोदा गया, त्यौहार, पर्व, उत्सव, शादी विवाह, कार्यक्रम आयोजित कैसे होते थे।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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