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सप्ताहांत विशेष
रमेश चंद शर्मा*
हमारे बाबा अपने भाइयों में सबसे बड़े थे, इसलिए ज्यादातर परिवार में बड़े भाई के नाम से पुकारे जाते थेI मगर पोते उन्हें बड़े बाबा के नाम से संबोधित करते थे। अपन बाबा को मेरा बाबा कहतेI मेरे से बड़े उनके छः पोते और थे। अगर मैं यह कहूँ की मुझे बाबा का सबसे ज्यादा लाड़ प्यार, अपनापन, संरक्षण मिला, तो गलत नहीं होगा।
बाबा मुझे रामेश्वर या मोटयार के नाम से बुलाते थे। मुझे बाबा के साथ रहने का भरपूर मौका मिला। बाबा सबसे ज्यादा चीजें मुझे ही देते। बाबा की नजर में अपनी बड़ी से बड़ी गलती भी छोटी होती। अपने सर पर परिवार के मुख्य न्यायाधीश की विशेष कृपा, हाथ था। भरपूर संरक्षण, जिसके कारण अपन समझते ‘सैंया भये कोतवाल डर कायेका’। इस कारण अनेक बार अपनी मनमानी भी खूब चलती। इससे माँ अनेक बार बाबा को कहती की आपके लाड़ प्यार ने इसे बहुत बिगाड़ दिया है। अपनी हिम्मत बढाने में बाबा का बड़ा हाथ है। अपन शुरू से निडर, भय मुक्त हो गए। ना अँधेरे का डर, ना कहीं अकेले जाने का डर, न किसी के सामने कुछ बोल देने का डर। कुछ बिगड़ता तो बाबा अपने तारनहार, सुरक्षा कवच बन जाते।
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अपन आश्चर्यचकित हो जाते जब अपने से बड़े को अँधेरे में जाने से डरते देखते। परिवार में कुछ बड़ों को डरते देखा है। उनकी तब बुरी तरह मुसीबत आ जाती, जब रात के समय उनको शौच का दबाव होता। अब अकेले जाने की हिम्मत नहीं, क्या करें। तब अपन उनके साथ जाकर, अपने को बहादुर मानकर खुश होतेI उस समय शौच के लिए गाँव से बाहर खेतों में जाना पड़ता था।
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गाँव में दूर दूर मेले भरते थे। आने जाने के लिए यातायात के साधन बहुत कम थे। और जो उपलब्ध भी होते तो दूर जाकर ही मिलते थे। ऐसे में अपन ने कई लम्बी लम्बी यात्रा पैदल चल करके पूरी की, और मेलों का आनंद उठाया। मेलों के बारे में कहा जाता था, ‘क्या तो मेला मेली का, क्या धकम पेली का, या पैसे धेली का’। उस समय मेला, सर्कस, खेल टूर्नामेंट जैसे मौकों पर ही बाहर जाने का मौका मिलता था, या फिर शादी विवाह, नाना मामा, भुवाजी, किसी रिश्तेदारी में जाने पर।
अपन को यह सुविधा कुछ ज्यादा भी मिली क्योंकि कभी बाबा भी साथ ले जाते। शादी के बाद दुल्हन के साथ किसी बच्चे को भेजा जाता था, अपन को यह मौके भी मिले। दिल्ली में छोटी सी आयु में आ जाने के कारण भी अपने को बाहर का कुछ अनुभव भी हो गया था। इसका लाभ भी अपन को मिलता था। उस समय बाबा, पिताजी, या किसी अन्य के साथ जाने से जीवन के अनेक महत्वपूर्ण गुर, अनुभव जानने, सीखने का मौका मिला।
एक बार एक गाँव में लड़का देखने गए। गाँव के बाहर खेल रहे बच्चों से जिनके घर जाना था उनके बारे में जानकारी ली। उनकी कुड़ी, कूड़े के स्थान के बारे में पूछा ओंर उसको लकड़ी से कुरेद कुरेदकर देखना शुरू किया। यह प्रक्रिया किसी के लिए भी सहज नहीं हो सकती। बुरा भी लगता है। मगर जब इसका कारण समझ में आया तो गजब का परिणाम सामने प्रकट हुआ। बताया गया की इससे अपन को यह मालूम हो गया की उनके यहाँ किस तरह का भोजन लिया जाता है। कूड़े में किस तरह के छिलके, चीजें है उससे झलक मिल जाती है। आपको बिना पूछे ही अंदाजा लग जाता है। आप सावधानी, सतर्कता बरत सकते है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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