आयुर्वेद और कोरोना -3
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
हम अपने सर्वोपरि मूल्य को भूल रहे हैं तब ही प्रकृति, मानवता को सबक सिखाने के लिए एल निनो (समुद्र में तूफान), बाढ़, सुखाड़, ‘सुपरवग्य‘ और आज के कोरोना जैसा रसायनिक महाविस्फोट कर देती है। ऐसे में लालची, जटिल मानवता ही महाविस्फोट करती है। कौन-जीता? कौन हारा? प्रकृति और मानवता दोनों ही ऐसे खेल खेलते ही रहते है।जब से हम अधिक शिक्षित हुए है, तब से इन महाविस्फोटों की गति भी अधिक तेज हुई है। आज की शिक्षा प्रकृति के विरुद्ध दिखाई देती है। आज हम वेद, उपनिषद, सुश्रुत सहिंता और चार्ल्स डार्विन के सिद्धांतों को भूल गए है, इसीलिए प्रकृति के अनुकूलन करने वाले जीवों को चयन करने का चिंतन आज की शिक्षा में नही दिखता।
भारतीयों को ऐसे प्रलय (कोरोना वायरस) का ज्ञान था, इसलिए उससे बचने हेतु अपनी जीवन पद्धति में भगवान को सर्वोपरि शक्ति, प्रकृति के रुप में स्वीकार कर लिया था। चरक सहिंता से इसे जनपद्द्वोध्वंस प्रलय भी कहा है।जनपद्द्वोध्वंश व्याधि का मतलब हुआ एक ऐसी बीमारी जो किसी भी राष्ट्र को ध्वस्त करने की शक्ति रखती है। चरक संहिता में उल्लेखित इस बीमारी के लक्षण आज के कोरोना के लक्षण जैसे ही हैं।
कोरोना नाक की नाजुक झिल्ली के चारों तरफ यह अपने को निर्जिव से सजीव बनाने का काम शुरू कर देता है। जैसे ही इसका प्रवेश और काम शुरू हुआ तो दूसरे दिन इस वायरस के शरीर में प्रवेश के बाद हमारी कोशिकायें संगठित होकर रोकने हेतु काम शुरू करते ही हमारे यह मुख और नाक से शरीर में प्रवेश करता है। सिर में या शरीर में दर्द का अहसास हो सकता है। तीसरे-चौथे दिन कंठ में पीड़ा और खांसी बढ़ जाती है। वहाँ से यह फेफड़ों की तरफ बढ़ता है। इसके निदान के लिए इसकी गति और दिशा को समझे कि म्यूकस मेम्ब्रेन से पहुँचकर छींक जुकाम सिर दर्द करता है। रक्त में पहुँचकर शरीर को वायरीनिया की स्थिति में लाता है। जब हमारे रक्त से फेफड़ों में 6 दिन में जाने लगता है, तभी रोगी साईटोकाईन की स्थिति जिसे आयुर्वेद में रोग का उत्पात कहते है, जो शुरु हो जाता है। रोगी की शरीर में वायरल के इस उत्पात के समय बचाने हेतु वेन्टीलेटर की आवश्यकता होती है। इसी से 36 से 48 घंटे में रोगी के प्राण बचाने के लिए सक्षम, योग्य, दक्ष वैद्य या विशेषज्ञ चिकित्सक इसी समय में वायरल को बाहर निकालने का काम करता है।
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वेद में इस व्याधि का पता लगते ही गेहूँ, चावल, चीनी, सभी प्रकार के कार्वोहाइड्रेट लेने से रोकता है। फिर 48 घंटे का लंघन करके, गाय के घी देकर गुड़ मुनक्का, जौ, का दलिया देने से पहले घृतपान करना कराता है। लंघन में 15-50 उस तीन समय शहद, नीबू ले सकते है। लंघन करके पानी, नीबू, शहद आदि का सेवन करना है, जिससे शरीर को ऊर्जा मिलती रहे।
हमारे फेफड़ों में एक तरफ वायु, दूसरी तरफ कैपिलैरी होती है। छींक से पता चलता है, वायरस का शरीर में प्रवेश हो गया है। दूसरे दिन वायलैरिया हो जाता है। हमारे रक्त में पहुँचकर पहले दिन से 6 दिन तक फेफड़ों में पहुँचता है। छठे दिन साईटोकाईन(तूफान) हमारे शरीर में आ जाता है। यह हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता से आता है। हमारी कोशिकायें इस रोकने के लिए एक जुट होकर अल्वेओलार मेम्ब्रेन में भी सूजन पैदा कर देती है। हमारी ऑक्सीजन बनाने की ऊर्जा नष्ट होने लगती है। बस यही रोगी के जीवन में तूफान का क्षण बनता है।
प्रकृति इससे कैसे बचाती है? बचाने वाली प्रकिया को ही हम इम्यूनिटी कहते हैं। सूजन जो वह अंदर का रक्त मस्तिष्क में जाकर कैपिलरी छोटी आर्टीलियरी में सूजन शुरु होती है। तो सिर दर्द होता है। उसके बाद स्राव करके वायरस को बाहर निकाल देता है। ऐसे में यह वायरस फेफड़ों तक नहीं पहुँच पाता है। इसमें हमारा 48 घंटे का लंघन ही काम करता है।
वायरल व्याधि को आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति में सुरक्षा मिलती है। आयुर्वैदिक निदान से कोरोना का पहले-दूसरे दिन उपचार शुरु करने में सफलता निश्चित मिलती है। वायरस कहाँ से आया? उसका हमारे शरीर पर कैसे प्रभाव पड़ा है? हमारे शरीर में अरबों-खरबों वैक्टीरिया होते है। हमारे शरीर के अरबों-खरबों वैक्टीरिया ही हमें बचाते है। हमारे शरीर में प्रवेश हमारी म्यूकस मेम्ब्रेन से होता है।
म्यूकस मेम्ब्रेन में जब नाक से पानी आता है तो फिर शरीर और सिर में दर्द , उसके बाद गले में जाकर खाँसी पैदा करता है। फेफड़ों में अल्वेओलार मेम्ब्रेन से सूजन ही इस रोग की सबसे खतरनाक हालात बनाती है। सूजन से स्राव होता है। यह वायरिनिया जब रक्त में वायरस जाता है तो वहाँ से सभी जगह जाने लगता है। आंख-हृदय आदि में जाता है, यह प्रक्रिया 4 दिन में पूरी हो जाती है। जो पहले दूसरी बीमारियों से बीमार है। उसमें सूजन जल्दी आकर साईटोकाईन (तूफान) 6 दिन ला देती है। तभी स्टोयोराईड देते है। तीसरी स्थिति बनती है, तब ऑक्सीजन वैन्टीलेटर की बहुत जरूरत हो जाती है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा में लंघन करना चाहिए। लंघन में हमारी शरीर की कोशिकाएँ न्यूकलिस साइटो प्लाज्मा से किसी भी वायरस को खा जाती हैं। लंघन परम औषधम् (खाना बंद), नीबू पानी, सादा जल, शहद का सेवन काली मिर्च-अदरक मिलाकर 4-5 बार चाटना चाहिए। यदि सारे दिन तेज भूख लगे तो 15 से 50 एम.एल. घी खा सकते है।
आयुर्वेद पूर्ण प्रकृति को समग्रता से देखता है। ओम् पूर्ण इदम् प्रकृति सम्पूर्ण समग्र है। इसीलिए आधुनिक चिकित्सा की तुलना में आयुर्वेद ज्यादा सफल है। ज्वर को 100 डिग्री तक सहन करे। इससे भी अधिक हो तो ठंडे जल से स्पंजिंग (पोंछना) शुरु करें। तिल के तेल का मालिश करें। दबाव से नहीं, तिल के तेल से अपने शरीर को पूर्ण भिगोयेंगे, तो धीरे-धीरे स्वस्थ होना शुरू होगा।
आयुर्वेद में केवल औषध उपचार ही नहीं है। आहार-विहार द्वारा शरीर को ऊर्जा प्रदान करके स्वस्थ रखना जरूरी है। लाक्षणिक-निदान और समग्रता से उपचार करके आरोग्य रखना लक्ष्य है। इस हेतु वही सब पंचक्रम से लेकर औषधि तथा आचार-विचार से आनंद की ऊर्जा देना भी आयुर्वेद उपचार का ही हिस्सा माना जाता है। इसी पद्धति द्वारा वायरल व्याधि का उपचार संभव और सुनिश्चित है। योग्य दक्ष आयुर्वेद स्नातकों को इस दिशा में आगे आकर काम शुरू करना चाहिए।
कलयुग की विकास प्रक्रिया से जनपद्द्वोध्वंश व्याधि का शुभारंभ है। आगे चलकर कोरोना-2 से अब बहुत से विविध रूपों में आकर, अब ऋतु परिवर्तन से जलवायु परिवर्तन के भयानक दुष्प्रभावों को बढ़ा रहा है। अब हमें ही तय करना होगा कि, सुख-सुविधाओं वाला जीवन जीना है? या प्रकृतिमय मर्यादित-अनुशासित यौगिक और वैदिक जीवन जीना है। यही हमारा सनातन विकास की प्रक्रिया है। इस प्रकार आधुनिक लालची विकास और सनातन विकास का अंतर सरलता से समझ सकते है।
इस बीमारी के आतंक से आतंकित होने की जरुरत नही है, बल्कि अपने आहार-विहार, आचार-विचार को प्रकृति का अनुकूलन करने की आवश्यकता है। यही रास्ता है इस बुरे वक्त में स्वंय संकट से बचने और दुनिया की मदद करने का। हम अपने आरोग्य रक्षण सिद्धांत की पालना करके कोरोना से बचें। वह हार जायेगा और आप जीत जायेंगे ।
आयुर्वेद में प्रत्येक रोगी का समग्रता से निदान होता है। उसके रोग का इतिहास (भूत) और वर्तमान स्थिति को समझकर निरोगी बनाने हेतु रोग मुक्ति की भावी योजना वैद्य शुभ हेतु तैयार करता है। आयुर्वेद आरोग्य रक्षण के लक्ष्य हेतु काम करता है। इसमें वैद्य और रोगी का लाभ प्रधान नहीं होकर रोगी की स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करता है। इसमें रोगी और वैद्य दोनों के लिए साझी स्वास्थ्य सुरक्षा योजना बनाकर शुभ हेतु काम करता है। रोगी सेवा करने वाला भी स्वैच्छिक भाव से सभी का अच्छा चाहने के लिए लाभ हेतु काम नहीं करता है। वह तो शुभ हेतु ही सेवा कार्य करता रहता है।
प्राचीनतम्-समयसिद्ध आरोग्य रक्षण आयुर्वेद पद्धति से जन्मी नई पैथी भी आगे चलकर भविष्य में प्राकृतिक और समग्रता से निदान और उपचार करके इस रोग से बचने के सफल परिणाम प्रदान करेगी ।
*लेखक पूर्व आयुर्वेदाचार्य हैं तथा जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।