व्यंग्य: श्रीमती जुगाड़ू
– डॉ. गीता पुष्प शॉ*
श्रीमती जुगाड़ू को आप भी जानती होंगी। वे हमेशा अखबारों के समाचारों में बनी रहती हैं। उन्होंने अपनी संस्था बना रखी है। उसके जरिए श्रीमती जुगाड़ू समय-समय पर प्रतियोगिताएं आयोजित करती रहती हैं। अखबारों में पहले इन प्रतियोगिताओं का विज्ञापन छपता है। फिर ‘आज के कार्यक्रम’ में छपता है कि इस स्थान पर इतने बजे अमुक प्रतियोगिता होने वाली है। उसके बाद एक दिन उस प्रतियोगिता का परिणाम और कभी-कभी सौभाग्य से उनकी फोटो भी विजेताओं के साथ छप जाती है। इसके लिए उन्हें परिश्रम भी काफी करना पड़ता है। बिना परिश्रम के भला कहीं फल की प्राप्ति होती है?
पिछले महीने उन्होंने मुझे मार्केट में पकड़ लिया. बोलीं- “बहन जी, मैं इस बार नए वर्ष के अवसर पर ‘कुकिंग कम्पिटिशन’ करवा रही हूँ । आप भी इसमें भाग लीजिए न! मैं हमेशा प्रतियोगिता से भागती रही हूँ . मैंने उनसे पीछा छुड़ाने की बहुत कोशिश की, पर उन्होंने आखिर मेरा नाम-पता लिख ही लिया। बोलीं—“आपको बस एक बढ़िया-सा व्यंजन बनाकर उसे सजाकर ले आना है।” प्रतियोगिता की एंट्री फीस दो सौ रुपए के साथ अपना आइटम जमा कर दीजिएगा। हमारी कम से कम पांच या सात निर्णायिकाएं होती हैं, इसलिए काफी मात्रा में अपना व्यंजन बनाकर लाइएगा ताकि सभी चख सकें और आपको नंबर दे सकें। सर्वश्रेष्ठ व्यंजन को अच्छा-सा ईनाम मिलेगा।
अब घर आकर मेरी घबराहट शुरू हो गई। मैं पत्रिकाओं, कुकरी की किताबों के पन्ने पलटकर देखने लगी। कार्टून नेटवर्क देखते अपने बच्चे के हाथ से रिमोट छीनकर खाना पकाने के कार्यक्रम सर्च करने लगी। नौकरानी पर बेमतलब झल्ला पड़ी। किचन में मेरे हाथों से बर्तन छूट कर गिरने लगे। मेरे पति और बच्चे समझ गए कुछ गड़बड़ है। मेरे सिर पर किसका भूत सवार है, उन्होंने जानना चाहा। जब मैंने बताया कि प्रतियोगिता के लिए व्यंजन बना कर ले जाना है, तो सब मेरे प्रति सहानुभूति और प्रेम जताने लगे। पति और बच्चे बोले- “हम चुटकियों में यह समस्या हल कर देते हैं।” सबने खुसुर-पुसुर करके आपस में मशविरा किया फिर मुझसे बोले- “वेरी सिंपल. एक बढ़िया-सा केक बनाकर ले जाओ। पर प्रतियोगिता में जाने से पहले एक केक बनाकर हमें खिला दो। प्रैक्टिस भी हो जाएगी। फिर फाइनल केक लेकर प्रतियोगिता में चली जाना।”
मैं झटपट रिक्शे से जाकर केक का सामान ले आई। महिला-पत्रिका के व्यंजन विशेषांक से पढ़-पढ़कर केक बनाने लगी। यह पहला ट्रायल वाला केक था, जो घर के लोगों को खिलाना था। बड़ी मेहनत करनी पड़ी। गरम ओवन में जब केक बेक करने रख दिया तब जाकर चैन आया। मैं निश्चित होकर टी. वी. देखने लगी। अचानक बिजली चली गई। ओवन बंद हो गया और मेरा केक बेक होते-होते रुक गया। अब मैं बाहर धूप में बैठकर पत्रिका पढ़ती हुई बिजली आने की प्रतीक्षा करने लगी। पढ़ते-पढ़ते कुछ जलने की महक आई। दौड़ कर गई तो देखा मेरा केक जलकर कोयला हो चुका था। मैं पत्रिका पढ़ने में इतनी मगन हो गई थी कि बिजली कब आ चुकी थी, पता ही न चला। केक को देखकर मुझे रोना आ गया। जला केक फेंकना पड़ा। उसे कुत्तों ने भी सूंघकर छोड़ दिया।पर मैं हिम्मत हारने वाली नहीं थी। फिर बाजार गई। अंडे, मक्खन, मैदा, चीनी, एसेंस, मेवे वगैरह लाने। फिर मैंने मेहनत से दूसरा केक बनाया। बच्चों और पति को खिलाया। उन्होंने सर्वसम्मति से केक पास कर दिया।
नए वर्ष में फिर से मेहनत करके मैंने बड़ा सा केक बनाया और श्रीमती जुगाडू की व्यंजन प्रतियोगिता में भाग लेने पहुंच गई। घबराई हुई तो मैं थी ही। वहां जाकर मेरा उत्साह अचानक कम हो गया और दिल की धड़कन बढ़ गई। प्रतियोगिता में शामिल होने वाली महिलाएं एक से एक बढ़िया व्यंजन खूब सजा-सजाकर लाई थीं। दही-बड़े, समोसे, चाट-पकौड़ी, पनीर-पकौड़े, गाजर का हलवा, ढोकला, मूंगफली की बरफ़ी, सोहन-हलवा. न जाने क्या… क्या… सबने अपने व्यंजन प्रतियोगिता में जमा कर दिए।
महिलाओं और कॉलेज-स्कूल की छात्राओं की बड़ी भीड़ भी वहां दर्शकों में जमा थी क्योंकि प्रतियोगिता के बाद संस्था द्वारा प्रतियोगिता में आए व्यंजनों की बिक्री भी होती थी। निर्णायक महिलाएं सभी व्यंजन देखकर-“वाओ, हाऊ डेलिशियस, वेरी नाइस, वेरी गुड, वंडरफुल, मार्वलस, एक्सलेंट, सुपर्ब” जैसे कमेंट करती जा रही थीं।
अंत में परिणाम घोषित हुए। पहला पुरस्कार श्रीमती जुगाड़ू की बहन की ननद की मौसेरी बहन की लड़की को मिला। उसने ‘झाल-मूढ़ी’ बनाई थी। यह सस्ता और पौष्टिक व्यंजन था, इसलिए प्रथम पुरस्कार इसी को दिया गया। दूसरा पुरस्कार ‘प्याज़ की खीर’ और तीसरा पुरस्कार ‘भात से बनाए रसगुल्लों’ के लिए मिला क्योंकि ये नई चीज़ें थीं। मैंने बड़ी मेहनत से बहुत पैसा खर्च करके केक बनाया था। परंतु मुझे सांत्वना पुरस्कार में एक छोटा-सा फूल-पत्ती की कढ़ाई वाला रुमाल ईनाम में मिला। मैं दुखी मन से, उसी रूमाल से आंसू पोंछती हुई घर को रवाना हुई। मेरी एक सहेली ने मुझे ढाढ़स बंधाते हुए कहा- “रोओ मत. यह कोई प्रतियोगिता थोड़े ही है। यह तो बिजनेस है, बिजनेस। श्रीमती जुगाड़ू व्यंजन प्रतियोगिता करवाकर अच्छा-अच्छा खाती हैं और जो बचता है उसे बेचकर पैसे कमा लेती हैं। इसी तरह कभी चित्र बनाने की, कभी रुमाल बनाने की, कभी टोपी बुनने की, कभी कलात्मक चीजें बनाने की प्रतियोगिताएं करवाती हैं। जमा चीजों में से थोडा बहुत ईनाम के रूप में बांट देती हैं, बाकी बेचकर वे पैसे कमा लेती हैं। इसीलिए तो इनका नाम जुगाड़ू है।”
मैं उदास मन से रोती-बिसूरती घर पहुंची। नए साल में संकल्प ले लिया कि अब किसी व्यंजन प्रतियोगिता में भाग नहीं लूंगी। घर पहुंचते ही पति और बच्चों ने मुझे घेर लिया। फिर बोले-“चलो, सांत्वना पुरस्कार को मारो गोली। आओ, हम सब मिलकर नया साल मनाएं। चलो, पार्टी करें।” मैं हॉल में पहुंची तो देखा सजी हुई मिठाइयों के बीच मेरा बनाया केक भी रखा है। पता चला, मेरा उदास चेहरा देखकर मेरा बेटा, प्रतियोगिता के बाद मेरा बनाया केक खुद ही खरीद लाया था। व्यंजन प्रतियोगिता में नहीं मिला तो क्या, घर में मुझे अच्छे प्यारे बच्चों के बीच मेरा इनाम मिल चुका था। अब मैं रुमाल से खुशी के आंसू पोंछ रही थी। यही मेरा नए वर्ष का सबसे बड़ा पुरस्कार था। परिवार वालों के प्यार से बढ़कर भी कोई पुरस्कार होता है कहीं।
*डॉ. गीता पुष्प शॉ की रचनाओं का आकाशवाणी पटना, इलाहाबाद तथा बी.बी.सी. से प्रसारण, ‘हवा महल’ से अनेकों नाटिकाएं प्रसारित। गवर्नमेंट होम साइंस कॉलेज, जबलपुर में अध्यापन। सुप्रसिद्ध लेखक ‘राबिन शॉ पुष्प’ से विवाह के पश्चात् पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज में अध्यापन। मेट्रिक से स्नातकोत्तर स्तर तक की पाठ्य पुस्तकों का लेखन। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। तीन बाल-उपन्यास एवं छह हास्य-व्यंग्य संकलन प्रकाशित। राबिन शॉ पुष्प रचनावली (छः खंड) का सम्पादन। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित एवं पुरस्कृत। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से शताब्दी सम्मान एवं साहित्य के लिए काशीनाथ पाण्डेय शिखर सम्मान प्राप्त।