व्यंग्य: एक पुरुष की डायरी
एक दिन मैं कबाड़ी को अखबार बेच रही थी तो उसके पास एक पुरानी डायरी दिखी। मैंने उलट-पलट कर देखी। वह एक पुरुष की डायरी थी। मैंने वह डायरी कबाड़ी से खरीद ली। उसमें पहला वाक्य लिखा था ‘मैं अपनी पत्नी को बहुत चाहता हूँ।’ पति अपनी पत्नी को चाहे और स्पष्ट शब्दों में स्वीकार भी कर ले, वह भी लिखित रूप में, घोर आश्चर्य की बात! ऐसे पति कम ही होते हैं।
वैसे, पति नामक जीव प्रायः दूसरों की पत्नियों का प्रशंसक होता है। अक्सर पति कहते पाए जाते हैं- ‘तुम्हें तो कुछ आता ही नहीं और शर्मा जी की पत्नी को देखो, घर भी संभालती हैं। बाज़ार भी जाती है और कहानियां भी लिखती है। तुम्हें तो बस दिन भर आराम करने से मतलब है।’ हर पति अपनी पत्नी का निन्दक और दूसरों की पत्नियों का प्रशंसक होता है। ये तो भारतीय पत्नियां ही हैं, जो कवि कबीर की अमरवाणी ‘निन्दक नियरे राखिये’ का आज तक पालन कर रही हैं, नहीं तो विदेशी पत्नियों की तरह कब की अपने निन्दक को छोड़, अपने नये बॉयफ्रेंड के साथ चल देतीं। पर बेचारी भारतीय नारी!
उस डायरी में आगे लिखा था- ‘अपनी पत्नी को मैं बहुत चाहता हूँ। उनका प्रशंसक भी हूँ भले ही उनके सामने उनकी प्रशंसा न करूं, पर दूसरों के सामने स्वीकार करने से नहीं हिचकता कि मेरी पत्नी बड़ी भली है। पर एक ही बुरी आदत है उसमें रूठने की।
अभी उस दिन पत्नी ने कहा- ‘बड़ा ठंडा मौसम है। ऐसे में गरमागरम मूंगफलियां खाई जाएं तो मज़ा आ जाए।’ मैंने कहा- ‘इसमें कौन-सी बड़ी बात है? अभी ले आता हूं मूंगफली ।’ शाम का समय था। बाहर आया तो जो भी परिचित मित्र मिले, बाढ़ और वर्षा की बात कर रहे थे। उनके साथ बातें करते-करते मैं भी घर से काफी दूर गंगा तट की ओर बढ़ गया। पानी देखने सैकड़ों लोग जमा थे। बाढ़ की आशंका से सभी घबराए हुए थे। रात के दस बजे घर पहुंचा। घंटी बजाई। द्वार खुला। मैंने भोजन मांगा तो पत्नी बोलीं- ‘खाना नहीं बना है। जो मूंगफली लाए हैं, खाकर सो जाएं।’ अब मुझे मूंगफली की याद आई। लाना भूल गया था, सो जाना ही बेहतर समझा। सो पानी पीकर सो गया।
बस यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती कि नाराज़ पत्नी जी जब रूठती हैं तो अचानक बोलचाल बंद कर देती हैं। वर्षों साथ रहते-रहते उनकी बक-बक सुनने की आदत सी पड़ गई है। जैसे किसी टी.वी. या लाउड स्पीकर की दुकान में काम करनेवाले को आदत पड़ जाती है शोर-शराबे में रहने की। जब चलता हुआ टी.वी. अचानक बोलना बंद कर दे तो बेचैनी तो होगी ही।
मैं डायनिंग टेबल पर अखबार पढ़ने लगा। पता था, आज नाश्ता नहीं मिलेगा। निकालनेवाले ने भी क्या चीज़ अखबार निकाली है। टाइमपास के लिए इससे बेहतर और कुछ नहीं। तभी मेज पर थाली रखने की आवाज़ के साथ मेरा पुराना टी.वी. सेट बोला- ‘गरमा-गरम पराठे और आमलेट खा लें।’ मैंने डरते-डरते कहा- ‘वो मूंगफली भूल गया था।’
इस बार पुराने टी.वी. का वॉल्यूम धीमा था- ‘क्या मूंगफली- मूंगफली की रट लगा रखी है? मैं मूंगफली लाने के लिए थोड़े ही गुस्सा थी। वो तो आप मुझे अकेली छोड़कर बाढ़ देखने चले गए थे, इसीलिए नाराज़ थी । मोहल्ले की कई औरतें बाढ़ देखने गई थीं। मेरा भी मन था कि देखूं। बाढ़ कैसी होती है जी?’
जी मैं तो आया कह दूँ, जब तुम गुस्से में फनफनाती हो, थाली-गिलास फेंकती हो- ऐसी ही होती है बाढ़। पर टी.वी. और बीवी जब बोले, श्रोता को चुप रहना पड़ता है, जब अधिकांश पत्नियों के हाथों में रिमोट होता है।
एक बार की बात है, हम दोनों बाज़ार घूमने निकले। एक जगह कपड़ों की सेल लगी हुई थी। श्रीमतीजी अचानक किलक उठीं- ‘वो देखो !’ उन्होंने उसी मुद्रा में तर्जनी उठाई, जिस मुद्रा में सीताजी ने रामजी को स्वर्ण मृग दिखलाया था। फिर मुझे पकड़कर लगभग घसीटती हुईं एक हरी चमकदार रेशमी साड़ी की ओर ले गईं- ‘ये देखिए कितनी सुंदर साड़ी है। रिडक्शन सेल में कितनी सस्ती है। मार्केट में तो बहुत महँगी मिलेगी। निकालिए पैसे।’
मैंने बहाना बनाते हुए कहा – ‘हे भगवान! पर्स लाना ही भूल गया।’ और अचानक टी.वी. ने बोलना बंद कर दिया। मेरी परेशानी बढ़ गई। बातचीत बंद हो जाने से मैं बार-बार कह नहीं पाता ज़रा शेविंग के लिए पानी गर्म कर दो। ज़रा कमीज़ में बटन टांक दो आदि-आदि। सभी काम मुझे ही उठकर करने पड़ते हैं। अब पता चला कि कितने छोटे-मोटे कामों लिए मैं उनपर निर्भर करता रहा हूँ। कुछ काम वे खुद ज़रूर कर रही थीं, पर बिन बोले और बिन पूछे। जैसे चेकवाली शर्ट मुझे जरा भी पसंद नहीं, पर वे उसी पर इस्तरी करके रखतीं। भिंडी मुझे पसंद नहीं और वे भिंडी की सब्जी मेरे टिफिन में रख देतीं बिना ज़बान खोले। श्रीमतीजी का इस तरह रूठना मुझे ज़्यादा दिन बर्दाश्त नहीं हुआ। सोचा, उन्हें अब मना ही लिया जाए, क्योंकि मैं भी भिंडी खा-खाकर बोर हो चुका था। मैंने श्रीमतीजी से कहा- ‘वह हरी साड़ी न सही, चलो कोई दूसरी साड़ी खरीद देते हैं।’ मेरा इतना कहना भर था, वे झट से तैयार हो गईं। चलते समय देखा, उनके हाथ में घर का सबसे बड़ा प्लास्टिक का बास्केट था। मैंने सोचा, अब ओखली में सर दे ही दिया है, तो मूसलों का क्या डर!
उस दिन सच में मेरी शामत आई थी। पहले उन्होंने साड़ियां पसंद कीं। फिर मैचिंग के ब्लाऊज । फिर पेटीकोट के कपड़े। बच्चों के लिए कपड़े। जब मैंने कहा- ‘मेरी जेब खाली हो गई है, तब कहीं श्रीमतीजी ने घर की ओर कदम बढ़ाए। अचानक बोलीं- ‘अरे, आपके लिए तो कुछ खरीदा ही नहीं। ‘ फिर खादी भंडार से दो रूमाल खरीद कर मुझे भेंट करते हुए प्रेम कहा- ‘इसे जब इस्तेमाल करेंगे, गांधी बाबा के साथ-साथ मेरी भी याद आएगी।’
रास्ते में मैं सोच रहा था, रूठी रहतीं, वहीं ठीक था, क्योंकि उन्हें मनाने में, पूरे हज़ारों की चपत नहीं पड़ती। पता नहीं किस दिलजले ने यह गाना लिखा था- ‘तुम रूठी रहो, मैं मनाता रहूं, तो मज़ा जीने का और भी आता है…’ प्रैक्टिकल आदमी नहीं होगा वह कवि या शायर । रूठने-मनाने का यह किस्सा आपने पढ़ लिया। अब आपसे क्या छुपाना, क्या शर्माना। अंत में एक राज़ की बात बता ही दूं। दरअसल, कबाड़ी से जो डायरी मैंने खरीदी थी, वह मेरे पतिदेव की है।
*डॉ. गीता पुष्प शॉ की रचनाओं का आकाशवाणी पटना, इलाहाबाद तथा बी.बी.सी. से प्रसारण, ‘हवा महल’ से अनेकों नाटिकाएं प्रसारित। गवर्नमेंट होम साइंस कॉलेज, जबलपुर में अध्यापन। सुप्रसिद्ध लेखक ‘राबिन शॉ पुष्प’ से विवाह के पश्चात् पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज में अध्यापन। मेट्रिक से स्नातकोत्तर स्तर तक की पाठ्य पुस्तकों का लेखन। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। तीन बाल-उपन्यास एवं छह हास्य-व्यंग्य संकलन प्रकाशित। राबिन शॉ पुष्प रचनावली (छः खंड) का सम्पादन। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित एवं पुरस्कृत। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से शताब्दी सम्मान एवं साहित्य के लिए काशीनाथ पाण्डेय शिखर सम्मान प्राप्त।