काठमांडू: यहाँ पिछले हफ्ते हुए विश्व सामाजिक मंच के तहत संयुक्त राष्ट्र संघ की ” मरुस्थलीकरण” विषय पर आधारित बैठक की अध्यक्षता करते हुए मैंने कहा कि मरुस्थलीकरण रोकने की बातें तो हम बहुत करते हैं लेकिन रोक नहीं पा रहे हैं । यदि रोकना है तो जिस तरह से राजस्थान के लोगों ने नंगी वीरान धरती को हरा भरा बनाया है, वो तरीका अपनाएंगे तब ही वो रुकेगा। यह सामुदायिक विकेंद्रित प्राकृतिक प्रबंधन से ही संभव है। संयुक्त राष्ट्र संघ का जो प्रयास है, उसका बहुत असर कहीं दिख नहीं रहा है। इसलिए हमें इसके असर को प्रभु बनाना है तो हमें सोचना पड़ेगा की हम अपने जीवन को साझा कैसे बनाएं?
मुझे याद है अपने बचपन, तरुणाई और जवानी तक आते-आते हमारे समाज में लोग साझे भविष्य को बेहतर बनाने के सपना देखा करते थे, अब तो वह सपने देखने भी बंद हो गए हैं। पहले नदियों, तालाब और जो भी हमारी साझा संपदा है, उस जल के उपयोग करने का हक सबको था। यह हक हम अब खत्म कर रहे हैं। उस समय मेरे जैसा मामूली तरुण भी साझे भविष्य को बेहतर बनाने के सपने देखता था। इसलिए पेड़ लगाता, जिन बच्चों के पास पढ़ने की किताबें, स्लेट और कॉपी नहीं थी, उनको कॉपी देता था। क्योंकि बेहतर दुनिया बनानी है। बेहतर दुनिया बनाने के वह सपने मिटते जा रहे है, ऐसे काल चक्र में अब नया सीखना होगा।
उस दौर में दुनिया को बेहतर बनाने वाले बहुत इंसान बनते थे, अब वैसे इंसान नही बन रहे। अभी तो प्रदूषण, अतिक्रमण और लूटने वाले हजार गुना तेज गति से बढ़ रहे हैं। जबकि जो सबके भले के लिए सोचते हैं, उनकी ऊर्जा घटती जा रही है।
यहां विश्व सामाजिक मंच से बोलते हुए मैंने कहा कि हमारी नदियों, समुद्र, जंगलों, पहाड़ों आदि सब पर कब्जा हो रहा है। पहले की अपेक्षा आज के पानी का बाजार ज्यादा खतरनाक है। इस वक्त तकनीक से पूरी धरती और पानी पर कब्जा करने का षड्यंत्र चल रहा है। हमारी तकनीक और इंजीनियरिंग उन सब साधनों पर बड़ी तेजी से कब्जा कर रही है। हमें चाहिए कि, हम प्रकृति के रक्षण, संरक्षण और संवर्धन का काम करें, तब ही यह कब्जे रोके जा सकते हैं। लेकिन जल, जंगल, जमीन को बचाने की अब चुनौती है। इस चुनौती को यदि अवसर में बदलना है तो हम सबको जल, जंगल, जमीन के संरक्षण से प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया आरंभ करनी होगी। इससे ही हम प्रकृति और मानवता को बचा सकते हैं।
ऐसे दौर में हमें एक बार फिर से विचार करने की जरूरत है। हम यदि बेहतर दुनिया बनना चाहते हैं तो हमें बेहतर संगठन बनाना होगा। बेहतर संगठन वैश्विक स्तर पर नहीं बल्कि समुदाय के स्तर पर अपने अपने संगठन खड़े करने होंगे, यही एक बेहतर दुनिया बना सकता है। एक दुनिया विविध समुदायों से बनती है, इसलिए सभी समुदायों को स्वावलंबी, आत्मानुशासी और आत्मसंगठित होकर, सबको जोड़कर इस दिशा में आगे बढ़ेंगे, तब हमारा बेहतर दुनिया बनाने का सपना साकार होगा।
हमें एक बेहतर दुनिया अभी बनानी है। इसलिए अभी से अपनी जीवन पद्धति बदलनी पड़ेगी। हमारी जीवन पद्धति का जब तक मूल आदिवासी ज्ञान के साथ संबंध नहीं होगा, तब तक हमारा सुधार होना संभव नहीं है। इसलिए हमे अपने जीवन को सुखद, सरल, सहज आदिवासियों की तरह बनाना होगा, तभी हम बेहतर नई दुनिया बना सकते है।
ब्राजील से शुरू हुए विश्व सामाजिक मंच में भारत में वर्ष 2004 में हुए आयोजन में एक लाख से ज्यादा लोग आए थे। हम मुंबई के विश्व सामाजिक मंच के सम्मेलन में नई बेहतर दुनिया बनाने के सपने देख रहे थे कि यह संगठन अब एक बेहतर दुनिया बनाने का काम करेगा। तब तक इस सम्मेलन में बराबरी, समता, सादगी से जीवन चलाने का संस्कार था। इस संगठन से जुड़े हुए लोगों ने ईमानदारी से कोशिश भी की, लेकिन दूसरी तरफ लूटने वाला बहुत शक्तिशाली था, उनको यह संगठन रोक नहीं पाया। अभी स्थानीय समुदायों के पास भी लूटपाट करने वाले बहुत लोग पहुंच गए हैं। सबसे बड़ा लुटेरा बाजार है। बाजार में आदमी, प्रकृति, जल, जंगल, जमीन सब कुछ बिक जाता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर लूटपाट करने वालों को रोकना संभव है। वही वैश्विक बेहतरी का सपना बन सकता है। अभी तो संगठन में समता, सादगी, सहजता, ईमानदारी है लेकिन साझा जीवन जीने का संस्कार खत्म होता जा रहा है। जब तक जीवन में साझापन नहीं आयेगा तो ना जल बचेगा, न जीवन बचेगा । इसलिए हमे साझा जीवन जीने के लिए आगे बढ़ना होगा।
अभी यदि हमें इन सब दुष्चक्र को रोकना है, तो संगठित होने के रास्ते तलाशने होंगे। अभी तो संगठित होने के विकेंद्रित रास्ते हैं। हम जहां भी हैं, जैसे भी हैं, जितनी भी ऊर्जा हमारे अंदर, उस पूरी ऊर्जा को अपने स्थानीय समुदायों के साथ लगाना होगा। वही वैश्विक बेहतरी का सपना बन सकता है। सामुदायिक विकेंद्रित, प्रकृति और मानवता दोनों का प्रबंध करना होगा क्योंकि अब मानव अंतिम व्यक्ति तक लोभी होता जा रहा है।
आज दुनिया में सब कुछ बिक रहा है, लेकिन प्रकृति और मानवता के प्रति प्यार नहीं बिक सकता। इस वक्त संवेदनहीनता का एक दौर सा हैं क्योंकि खरीदने वाला संवेदनहीन है। जो इंसान प्रकृति के प्रति संवेदन होकर जीता था, वह अब प्रकृति का लुटेरा बन गया है। प्रकृति का लुटेरे सब लोग नहीं बने, सिर्फ चंद लोग हैं, जो प्रकृति व मानवता दोनों को खरीद रहे हैं। दोनों पर शोषण अतिक्रमण और प्रदूषण कर रहे हैं। इनको रोके बिना नई बेहतर दुनिया बनाने की बात करना बेईमानी होगी।
यदि दुनिया को अन्न, जल, जमीन, जंगल, जलवायु की सुरक्षा मिलेगी, तब ही दुनिया में शांति कायम होगी। जब लोगों के पास अपने चलाने का साधन नहीं होता, तब लड़ाई और झगड़े शुरू होते है, यही बाद में बड़े विवाद बनते हैं। अब दुनिया को शांति की जरूरत है। यदि शांति के लिए काम नहीं किया, तो तीसरा विश्व युद्ध हमारे सिर पर है। तीसरे विश्व युद्ध से बचने के लिए हमें शांति के नारे नहीं, बल्कि दुनिया में जल सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। शांति कायम करने के लिए हमें और विश्व सामाजिक मंच को जुटना होगा।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक