
मीरा के शरीर में चारों तरफ से बिच्छू काट रहे थे । अगर वह हाथ झटकती तो पैर पर आ जाते थे, पैर झटकती थे तो पीठ पर आ जाते थे। इस सन्नाटे में वो बार-बार चीखकर अपनी आवाज सहायता के लिए किसी तक पहुंचाना चाहती थी मगर कोई उसकी सहायता करने को तैयार नहीं था। इसी क्रम में वो दहशत से पीली पड़ गई थी तभी एक बिच्छू ठीक उसके मुंह के पास आ गया। अब वह जोर से चीख पड़ी थी और तभी उसे पता चला कि अरे! वह तो सपना देख रही थी। उसने अपनी दीवार घड़ी पर नज़र डाली, और देखा कि 4 बज चुके थे तभी उसकी नजर बगल में सोते हुए पतिदेव पर पड़ी। वह अभी भी गहरी नींद में सो रहे थे । मीरा की हिम्मत नहीं हुई कि वह अपने पति राकेश को जगा पाए। उसने सोचा कि जो इतनी चीखने की बाद भी नहीं जागा उसे जगाने से क्या हो जाएगा? और तभी वह निकलकर बालकनी में आकर खड़ी हो गई। अब थोड़ी सी राहत की सांस आई।
मीरा को हमेशा से ही खुली हवा में घूमना बहुत अच्छा लगता है इसलिए बालकनी में आकर वहाँ पर पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गई। बालकनी के सामने गली में कोई शोर नहीं था। दिन भर लोगों की भीड़ से उसकी गली भरी रहती थी। रात की यह विरानी उसको बहुत सुकून दे रही थी। कुर्सी पर बैठकर आंखें अपने आप ही बंद सी होने लगी और बीते हुए भयावह दिन उसके ऊपर चोट करने लगे । एक सुकोमल सी लड़की बचपन से ही समाज की विसंगतियों की मार झेलती अचानक ही बड़ी हो चली थी। चारों तरफ घिनौनी आंखें उसको घूरा सा करती थी लेकिन छोटी मीरा किसी की परवाह नहीं करती थी लेकिन सच यह है कि वह अंदर से बहुत डरा करती थी। 12वीं पास करते-करते उसका विवाह हो गया।
अन्य सामान्य लड़कियों की तरह वह भी शादी के नाम से अति प्रसन्न थी। उसे पता ही न चला इस शादी ने कब उसकी मासूमियत छीन कर उसको दुनियादारी के सभी आयामों, विकारों और दबावों के बीच धकेल दिया। फिर भी जीवन ठीक-ठाक ही चल रहा था । मीरा का केवल एक ही पुत्र था। पिता और पुत्र दोनों ज्यादा बात नहीं किया करते थे और मीरा को भी घर के कामकाज में फुर्सत ही नहीं मिलती थी।
तभी घर में एक पढ़ी-लिखी बहू ने प्रवेश किया। मीरा की बाँछे खिल गई सोचा की पढ़ी-लिखी बहू घर आई है तो अब न केवल घर की खुशियों में बल्कि घर की रंगत में भी फर्क आ जाएगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। बहू को पता लग गया कि घर में सास की स्थिति एक गूंगी गुड़िया की है । वह तो केवल घर की व्यवस्था करने तक ही सीमित है। उसने देखा की बात-बात पर उसके ससुर उसकी सास को डांटा करते थे। मीरा घर की शांति के लिए चुप रहती थी, और सच कहें तो मीरा को यह एहसास भी नहीं हुआ कि यह सब ठीक नहीं है। उसने कभी कॉलेज का मुंह नहीं देखा था, उसको लिंग भेद का पता ही नहीं था। वह तो इसी को अपनी नियति समझती थी।
कुछ ही दिन में बहू ने अपने रंग दिखाने प्रारंभ कर दिए। पढ़े लिखे होने का घमंड तो उसे था ही, साथ में उसको अपनी सास के दुर्बल होने का भी पता चल गया। अब क्या था बाहर लिंग भेद की शिक्षा देने वाली उसकी बहू, मीरा को तरह-तरह से प्रताड़ित करने लगी। जब उसकी सास उससे किसी काम की बात करती तो वह लिंग भेद का पाठ पढ़ाने लगती और बताती कि लड़का लड़की में कोई अंतर नहीं होता, सबको काम करना चाहिए। कम पढ़ी लिखी मीरा उससे कुछ भी ना कह पाती और चुपचाप सारा काम करती रहती।
साल पर साल बीतते गए और इस दौरान न पति और न बेटे, किसी के कान पर जूँ न रेंगी । सब उस पढ़ी-लिखी बहू की ही तरफदारी में लगे रहते। इस दौरान मीरा शारीरिक और मानसिक रूप से और कमजोर हो गई। बहू तो पूरे दिन घर से बाहर रहकर अपने मन की बात अपनी सहेलियों से कर आती थी, लेकिन मीरा को कोई सहारा नहीं था।
धीरे-धीरे मीरा हालात का शिकार होकर एक सुकोमल स्त्री से विध्वंसक बम बन गई। मीरा को बात और बिना बात दोनों पर गुस्सा आने लगा। क्रोध उस पर हावी हो गया । अब स्थिति बहुत भयानक हो गई। ना बोलने वाली गूंगी गुड़िया अब प्रश्न उत्तर करने लगी। अब वह किसी को नहीं भाती थी। पति तो पहले ही मीरा की कोई बात नहीं सुनता था, बेटा अपने आप में ही रहना पसंद करता था। कोई मीरा की मदद को नहीं आया।
एक दिन घर में एक छोटी सी बात पर लड़ाई में बहू ने कहा कि मीरा नार्सिसिस्ट है। मीरा ने सोचा यह नार्सिसिस्ट क्या होता है? उसको इसका मतलब नहीं समझ आ रहा था। उसने सोचा बहू ने अंग्रेजी में कोई गाली दी है। मीरा को कुछ समझ नहीं आ रहा था तभी पास में चल रही पर्यावरण, पानी, महिला सशक्तिकरण, एवं बुजुर्गों के लिए कार्यरत स्वयंसेवी संस्था ‘सम्पूर्णा’ की आशा जैन वहाँ पर आ गई। उन्होंने पहले मीरा को शांत किया और फिर नार्सिसिस्ट का मतलब बताया। उन्होंने बताया कि यह एक मनोवैज्ञानिक टर्म है जिसका अर्थ होता है अपनी-अपनी चलाना और किसी की भावनाओं का ध्यान नहीं करना। आशा ने मीरा को समझाया कि यह कोई गाली नहीं है बल्कि बहू ने आपको नार्सिसिस्ट के टाइटल से नवाजा है। मीरा जोर-जोर से हंसने लगी और बोली आशा जी यह सबसे बड़ी गाली है। आशा को समझ नहीं आया कि वह क्या उत्तर दे। मीरा अब रोने लगी उसने बताया कि अपनी क्षमता और ज्ञान अनुसार उसने सब की भावनाओं का ध्यान रखने की कोशिश की और जीवन की कठोरतम पगडंडियों पर मीरा अकेले चली। जो मिला उसी को मुकद्दर समझा। लेकिन आज इस नार्सिसिस्ट शब्द में उसको ऐसा एहसास दिया कि वह लाखों बिच्छुओं से डसी जा रही है।
मीरा के आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। आशा ने भरसक प्रयत्न किया। अंत में आशा ने मीरा से अनुरोध किया कल से सम्पूर्णा के परामर्श केंद्र में अवश्य आए। तभी मीरा ठिठक कर बालकनी में लगी कुर्सी से उठ गई और उसे याद आया कि आज उसे सम्पूर्णा जाना है ।
…क्रमश:
*डॉ. शोभा विजेंदर दिल्ली स्थित एनजीओ, संपूर्णा, की संस्थापिका और अध्यक्षा हैं, जिसकी स्थापना 1993 में हुई थी।