क्या हमने इस बात पर कभी ध्यान दिया कि विकास की जिस आर्थिक वृद्धि वाली अवधारणा पर सर्वप्रथम सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा था, उससे विस्थापन, बिगाड़ और विनाश हुआ है?
समाज के विभिन्न वर्गों ने विकास की अवधारणा के प्रभावों को विश्लेषित किया; उन्होंने यह पाया कि, विकास की आर्थिक वृद्धि की संकीर्ण परिभाषा एवं एकपक्षीयता ने स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँचाया है। इससे मानव अस्तित्व के लिए संकट खड़ा हो गया है। इस बात को ध्यान में रखते हुए एक ऐसे विकास की अवधारणा पर विचार किया गया जिसमें विकास और पर्यावरण को परस्पर सहयोगी बनाते हुए कार्य किया जाए। इसी अवधारणा ने समग्र एवं सतत् विकास की अवधारणा को जन्म दिया। यही हमारे लिए शुभ है। यही सस्टेनेबिलिटी है।
सतत् विकास का अर्थ है सर्वांगीण विकास। जिसमें जीवन के सभी पहलुओं का एक साथ सर्वांगीण विकास शामिल है। विकास की इस प्रक्रिया में आर्थिक क्षमता में वृद्धि ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी सकारात्मक परिवर्तन पर जोर दिया जाता है। लगभग 1990 तक विकास को आर्थिक विकास के रूप में ही समझा गया परन्तु बाद में इसमें कई सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयाम जोड़े गए। समग्र विकास की एक महत्वपूर्ण शाखा के रूप में सतत् विकास ने मनुष्य, समाज, प्रकृति और पर्यावरण की परस्पर अन्तक्रिया एवं अन्योनाश्रितता पर बल दिया।
समग्र विकास के अंतर्गत ऐसे विकास की संकल्पना की गयी जो आर्थिक स्तर पर बुनियादी जरूरतें पूरी करने को प्राथमिकता देकर जीवन की गुणवत्ता बढाएं, रोजगार में वृद्धि करे; सामाजिक स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य की पहुँच लोगों तक बनाए तथा सभी प्रकार के अन्यायों एवं असमानताओं – जाति, लिंग, धर्म इत्यादि – का निषेध करे; राजनीतिक स्तर पर देश के भीतर शांति, लोकतंत्र एवं निर्णय प्रक्रिया में लोगों की अधिकतम भागीदारी को सुनिश्चित करे; सांस्कृतिक स्तर पर सभी विविधताओं का संरक्षण एवं देशज ज्ञान का सम्मान करें तथा पर्यावरणीय स्तर पर प्रकृति की पुनर्जत्पादन क्षमता का सम्मान एवं संसाधनों का संरक्षण करता हो। प्रकृति प्यार और सम्मान से ही सतत् विकास का रास्ता बनता है। इस रास्ते से विस्थापन, बिगाड़ और विनाश मुक्त विकास, सतत् विकास या पुनर्जनन की प्रक्रिया शुरू होती है।
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सतत् विकास के विचार की शुरूआत द्वितीय विश्वयुद्धोतर परिदृश्य में आर्थिक वृद्धि के विकास प्रारूप की आलोचनाओं में देखी जा सकती है। तीव्रतम आर्थिक वृद्धि के विकास प्रारूप ने जिन पर्यावरणीय एवं सामाजिक परिणामों को जन्म दिया, वे काफी खतरनाक थे। इस विकास ने पर्यावरणीय जैव-विविधता, प्राकृतिक संसाधनों एवं वायुमंडलीय परिस्थितियों के नैसर्गिक स्वरूप को बहुत क्षति पहुँचायी। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने इन संसाधनों की उपलब्धता के संकट को जन्म दिया। अनियंत्रित औद्योगीकरण ने एक ओर पर्यावरणीय जैव- विविधता को नष्ट किया, वनों का विनाश किया और प्रदूषण जैसी गंभीर समस्या को उत्पन्न किया तो दूसरी ओर विस्थापन के संकट को उत्पन्न किया। ओजोन परत में छिद्र होने, अम्लीय वर्षा इत्यादि इसके उदाहरण है जिसमें उपभोक्तावादी जीवन स्तर का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस विकास के सामाजिक एवं आर्थिक परिणाम भी बहुत गंभीर रहे। समाज में अमीर-गरीब के बीच की खाई और चौड़ी हुई। प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की लड़ाई तेज हुई। समुदाय के प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय के नियंत्रण को अस्वीकार किया गया। पश्चिमी विकसित देशों के विकास प्रारूप की नकल करने से अन्य देशों में भी इसी तरह के परिणाम सामने आए। इसी पृष्ठभूमि में सतत् विकास की अवधारणा का जन्म हुआ। इस अवधारणा के विकास में वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों ही प्रयासों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
सतत् विकास की अवधारणा की शुरुआत रिशेल कार्सन की पुस्तक व साइलेट स्प्रिंग’ (1962) से मानी जा सकती है जिसमें डीडीटी जैसे कीटनाशकों के प्रयोग से वन्यजीवों पर होने वाले प्रभावों की विस्तार से चर्चा की। इस पुस्तक ने विश्व स्तर पर समाज, प्रकृति एवं विकास की बहस को प्रस्तुत किया। दूसरी महत्वपूर्ण घटना जीवविज्ञानी पॉल इर्लिच की पापुलेशन बॉम्ब’ (1968) का प्रकाशन रही जिसने जनसंख्या वृद्धि एवं प्राकृतिक संसाधनों के बीच की बहस सामने रखी। 1969 में एक ‘फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ’ नामक गैर-सरकारी संगठन की स्थापना हुई जिसने पर्यावरण संरक्षण और निर्णय प्रक्रिया में लोगों की सहभागिता का प्रयास किया।
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के युवा वैज्ञानिकों के समूह (क्लब ऑफ रोम) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ’लिमिट्स टू ग्रोथ (1972) ने पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया जिसमें यह प्रतिपादित किया गया था कि आर्थिक वृद्धि को संयमित नहीं किया गया तो हमें गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। यह वैश्विक पर्यावरणीय संकट का पहला आधिकारिक अध्ययन था। इसने भी संसाधन क्षरण, प्रदूषण, जनसंख्या जैसे विषयों के आपसी संबंधों पर चर्चा की। यह बताया कि सीमित संसाधनों के आधार पर असीमित आर्थिक वृद्धि को कायम नहीं रखा जा सकता है। 1972 में ही मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीएचई) का स्टॉकहोम में आयोजन हुआ। यह परिसंवाद इस मामले में महत्वपूर्ण है कि इस आयोजन के जरिए पहली बार वैश्विक स्तर पर पर्यावरण और विकास विमर्श के मुद्दे बने और यह महसूस किया गया कि इन पर तत्काल विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। इसने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की स्थापना की जिसने ’पर्यावरणीय विकास की अवधारणा को प्रचलित किया जिसमें विकास को पर्यावरणीय संरक्षण के साथ जोड़ा गया।
1974 में मानव विकास हेतु विज्ञान और तकनीक शीर्षक से आयोजित परिसंवाद में ‘सतत् समाज’ शब्द प्रचलन में आया। यह शब्द समतापूर्ण वितरण के विचार पर जोर देता था जिसने ब्रेटलैंड आयोग की रिपोर्ट को बहुत प्रभावित किया। 1980 में ग्लोबल 2000 शीर्षक से अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने वैश्चिक पर्यावरणीय विनाश को बताया और स्पष्ट किया कि अमेरिकी या पश्चिमी देशों के उपभोगस्तर को विश्व स्तर पर लागू नहीं किया जा सकता है। 1980 में अंतरराष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (आईयूसीएन), संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम तथा विश्व वन्य निधी द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित अपनी रिपोर्ट वर्ल्ड कंजर्वेशन स्ट्रेटेजी लिविंग रिर्सोसेज कंजर्वेशन फॉर सस्टेनेबल डवलपमेंट’ में पहली बार ’सतत् विकास’ का शब्द प्रचलित किया।
इस रिपोर्ट के मुख्य उद्देश्य निम्नानुसार थे-
1. अनिवार्य पारिस्थितिक प्रक्रियाओं और जीवन सहयोग व्यवस्था को बनाए रखना।
2. आनुवंशिक विविधता की सुरक्षा तथा
3 प्राकृतिक संसाधनों एवं जैव मंडल के सतत् उपयोग को सुनिश्चित करना।
इस रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद अनेक राष्ट्रों द्वारा अपने संसाधन संरक्षण संबंधी रणनीतियों का निर्माण किया गया। जेनेटिक विविधता की सुरक्षा ने आगे चलकर पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता से संबंधित दस्तावेज को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस रिपोर्ट ने इस बात को पुरजोर तरीके से बताया कि संसाधन संरक्षण और सतत् विकास एक सहयोगी प्रक्रियाएं है।
1983 में संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा ने पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग (डब्ल्यू सी ईडी) गठित किया। इस आयोग की अध्यक्षता नार्वे की प्रधानमंत्री ग्रो हार्लेम ब्रा बैंड को सौंपी गयी, अतः इसे ब्रटलैंड आयोग के नाम से भी जाना जाता है। इस आयोग का उद्देश्य संकटपूर्ण पर्यावरणीय एवं विकास संबंधी समस्याओं का विश्लेषण करना तथा उन्हें सुलझाने के व्यावहारिक उपाय बताना था। जिसमें सतत् विकास के जरिए मानव हित वृद्धि हो सके और भविष्य की पीढ़ियों के हितों को नुकसान भी न हो।
इस आयोग के निम्नलिखित उद्देश्य थे –
- पर्यावरण और विकास के महत्वपूर्ण मसले का पुनर्विश्लेषण तथा इनसे निपटने के लिए नवोन्मेषी, ठोस और व्यावहारिक सुझाव प्रदान करना।
- पर्यावरण और विकास पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग मजबूत करना तथा वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावित करने वाले और वर्तमान तरीकों में बदलाव लाने वाले नये सहयोगी क्षेत्रों एव तरीकों की पहचान करना।
- व्यक्तियों, स्वैच्छिक संगठनों, व्यापारों, संस्थाओं और सरकारों के बीच पर्यावरण और विकास सबधी समझ में वृद्धि करना और ठोस कार्यवाही के प्रति प्रतिबद्धता पैदा करना।
इस आयोग ने स्पष्ट किया कि यह जनसंख्या , खाद्य सुरक्षा, प्रजातीय एवं आनुवांशिक संसाधनों की क्षति, ऊर्जा, उद्योग, मानवीय आवास इत्यादि विभिन्न मुद्दो को अपना विषय बनाएगा क्योंकि ये सभी आपस में गुथे हुए है और एक-दूसरे से अलग कर के इन्हें समझा नहीं जा सकता है। इस आयोग की रिपोर्ट के प्रकाशन एवं पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग के महत्वपूर्ण कार्य ने 1992 में पृथ्वी सम्मेलन के आयोजन तथा एजेंडा 21. रियो घोषणापत्र एवं सतत् विकास आयोग की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक