सप्ताहांत विशेष
– रमेश चंद शर्मा*
सा विद्या या विमुक्तये– एक दृष्टि
विद्या प्राणी जीवन का एक प्रमुख अंग रहा है। प्राणी के मानसिक, शारीरिक, भौतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, प्राकृतिक विकास में विद्या का अमूल्य, अभूतपूर्व योगदान रहा है। विद्या प्राणी की विरासत, धरोहर है। विद्या विनम्रता, सहजता, सरलता, सादगी, स्पष्टता, संवेदना, संकल्प, समझदारी, समर्पण,समता, ममता, सौह्रार्द, साझापन, एकजुटता, अपनापन, करुणा, प्रेम, सृजन, रचना, विनय, निपुणता, कौशल, स्वावलंबन, शुभ, कल्याणकारी व्यापकता के मौके, अवसर प्रदान करती है। विद्या प्राणी, प्रकृति, सृष्टिकर्ता का तालमेल रखती है।
जीवन जीने की कला का आधार, अभ्यास, आचरण ही विद्या है। हृदय, मस्तिष्क, हाथ का विकास विद्या है। विचार, कर्म, चिंतन मनन, सोच समझ का माहौल विद्या प्रदान करती है। प्राणी का समग्र विकास ही विद्या है।
विद्या ली जाती है, सहजता, सरलता, स्पष्टता से अपने आप भी प्रकट हो जाती है। साधना, सिद्धि, अभ्यास, कर्म से इसे बढ़ावा मिलता है। विद्या जीवन के लिए, जीवन के द्वारा, जीवन ही जब विद्या बन जाता है तो विद्या का सही, सच्चा स्वरूप प्रकट होता है।साधक का हर सांस, कदम विद्या से भरपूर होता है। इसको सब समझ पाएं यह जरुरी नहीं है।
प्रकृति ने हर जीव को विशेष बनाया है। प्रत्येक में कोई न कोई विशेषता जन्मजात ही उपलब्ध है। उसका विकास अनेक कारणों, माहौल पर निर्भर करता है। उसका प्रकटीकरण सही ढंग से हो जाए तो वाह वाह अन्यथा वही ढाक के तीन पात। विद्या सर्व शुभ, मंगलकारी, मुबारक, कल्याणकारी, बरकत प्रदान करती है।
विद्या खंड नहीं समग्र है। पींड एवं ब्रम्हांड, पुरुष एवं प्रकृति, जीव एवं परमात्मा का जोड़ है। विद्या मुक्त करती है। मुक्तता, खुलापन, हल्कापन, अपनेपन की खिड़की, द्वार खोलती है। स्वाभिमान, स्वाभाविकता, सहजता के साथ बहती है।
विद्या में भारीपन, बोझ, वजन, आज के शब्दों में कहें तो बोरियत, हताशा, निराशा, उदासी, तनाव, दबाव, शोषण, लालच, लूट नहीं होती। विद्या नौकरी, दासता, गुलामी से दूर रखकर चाकरी का भाव जगाती है। स्वैच्छिक सेवा, साधना, श्रम संस्कार की पगडंडी बनाती है। विद्या सहकार, सहयोग, आत्म विश्वास से जोड़ती है।
विद्या का अर्थ है लोकोपयोगी ज्ञान, मुक्ति का मतलब है जीवन में सभी तरह की गुलामी से छुटकारा। यह है विद्या जो मजबूती प्रदान करती है। विद्या किसी विशेष आयु, सीमा के बंधन से मुक्त है। विद्या का जीवन पर्यन्त का साथ है। विद्या सदाचार, मानवता, कर्त्तव्यनिष्ठा, सहिष्णुता, सदवृत्ति, सेवावृत्ति, साधनावृत्ति पैदा करती है।
शिक्षा साक्षरता, नौकरी, अधीनता, गुलामी, मजबूरी की मानसिकता पैदा करती है। बेकाम, बेकाबू बुद्धि और बेअकल काम खतरनाक है। शिक्षा आजकल जिसका व्यापक विस्तार साफ नजर आ रहा है, इसके बारे में जानकारी होते हुए भी लठ्ठ लेकर लोग इसके पीछे पड़े हुए हैं। शिक्षा को प्रतिष्ठा, पद, पैसे से जोड़कर देखा जा रहा है।
ज्यों ज्यों शिक्षा का विस्तार हुआ, शिक्षितों की संख्या बढ़ी त्यों त्यों लालच, लोभ, भ्रष्टाचार, शोषण, लूट, बेकारी, मजबूरी का विस्तार होता नजर आ रहा है।
स्थिति को साफ करने के लिए जैसे जैसे शिक्षण संस्थान बढ़े, पुस्तकालय बढ़े, छात्र छात्राओं, अध्यापकों की संख्या बढ़ी, तकनिकी प्रोद्योगिकी साधन बढ़े वैसे वैसे जानकारी, सूचना तो बढ़ी मगर आत्मज्ञान, संस्कार, आत्मबल कैसे हैं?
अस्पताल बढ़े, डाक्टर बढ़े, दवा बढ़ी, प्रशिक्षण जांच के औजार, साधन सुविधाएं बढ़ी ईलाज बढ़ा, आयु बढ़ी मगर स्वास्थ्य, सेहत, निरोग की स्थिति क्या है?
पुलिस, पुलिस चौकी, थाने, सुरक्षा बलों की संख्या, हथियार, अस्त्र शस्त्र खूब बढ़े मगर सुरक्षा का क्या हाल है? भय, दहशत, नफरत, द्वैष, कड़वाहट, अलगाव, घृणा, दूरी बढ़ी है, बढ़ाई जा रही है।
राजनीतिक दलों, नेताओं की संख्या बढ़ी है मगर राजनीतिक समझ, सोच, विचार, चिंतन, मनन का अभाव नजर आ रहा है। अर्थव्यवस्था अनर्थकारी बनाई गई है। लाभ से पहले शुभ मंगल कल्याण की सोच, भाव आता था। अब लाभ के स्थान पर लोभ, लालच, लूट ने ले ली है।
समाज विभिन्न क्षेत्र, भाग, जाति, वर्ण, वर्ग में बंटा हुआ था मगर कोई न कोई धागा चाहे अनचाहे, जाने अनजाने सबको साथ रखने का प्रयास करता था। वह और अधिक कमजोर हुआ है। विघटन बढ़ा है। इस पर विचार मंथन की आज सख्त ज़रुरत है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।