उत्तर प्रदेश
– ज्ञानेंद्र रावत*
देश में पांच राज्यों – उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और मणीपुर – के विधान सभा चुनाव का परिणाम आ गया है । पंजाब को छोड़कर सभी जगहों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई है। इनमें पंजाब को छोड़कर जहां कांग्रेस की सरकार थी, सभी चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। जाहिर है इन चुनावों में जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सरकारों पर काबिज थीं, वहां-वहां वह पूण: सरकार बनाने में सफल रही। इस दिशा में उसने उन राज्यों में वहां की विभिन्न जातियों, जिनका मत प्रतिशत और आबादी के हिसाब से खासा असर है, उनसे गठजोड़ भी किया और खासा सफल भी रही। इसमें दलबदल की भी अहम भूमिका रही है। इसमें खासकर पिछड़े व अति पिछड़ेवर्ग के नेताओं का योगदान अहम रहा है।
यदि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें, जो देश की राजनीति की धुरी माना जाता है, राज्य में पिछले तीन विधान सभा चुनावों में प्रदेश की सत्ता बराबर बदलती रही है। 2007 में राज्य में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी जबकि 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी और 2017 में भारतीय जनता पार्टी सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रही। बीते 15 सालों में कोई भी दल प्रदेश की सत्ता पर दोबारा काबिज होने में कामयाब नहीं हुआ।
यह पहला मौका है जबकि भाजपा अपने पूरे दमखम के साथ प्रदेश की सत्ता पर दोबारा काबिज हुई है।
हालांकि यह बात भी दीगर है कि उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दलबदल करने वालों में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की भूमिका अहम रही । यहां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इनमें अधिकांश वही नेता हैं जो 2017 के विधान सभा चुनाव से पहले दूसरे दलों को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे और पूरे पांच साल भाजपा सरकार में मलाई खाकर यानी मंत्रिपद की सारी सुख-सुविधाएं भोगकर 2022 के विधान सभा चुनाव से पूर्व भाजपा को छोड़कर दूसरे दलों में शामिल हो गये। इन सभी को चुनाव पूर्व समाजवादी पार्टी में अपना भविष्य दिखा और उसके झंडे और डंडे के नीचे प्रदेश के सुखमय भविष्य को बनाने-संवारने की जोड़-जुगत में लग गये। विडम्बना यह कि ये सब उस समाजवादी पार्टी में गये जिसको यह कभी गरियाते नहीं थकते थे । इसे यदि यूं कहें कि यह सपा को पानी पी पीकर कोसते थे तो कुछ गलत नहीं होगा।
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उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में प्रदेश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी में मुख्य संघर्ष रहा । अस्तित्व की लडाई लड़ रही बहुजन समाज पार्टी 403 में से सिर्फ 1 सीट ही जीत पायी और प्रियंका गांधी की अगुआई में कांग्रेस पार्टी तो सिर्फ 2 सीट ही जीत पायी।
प्रमुख विपक्षी दल सपा ने इस चुनाव में सपा ने मुख्यतः जयंत चौधरी नीतित राष्ट्रीय लोकदल, महान दल, ओम प्रकाश राजभर, अपना दल के नेता रहे सोनेलाल की धर्म पत्नी कृष्णा पटेल और स्वामी प्रसाद मौर्य सहित भाजपा छोड़कर आये दारा सिंह चौहान आदि नेताओं को जोड़कर गठबंधन बनाया था। हालाँकि समाजवादी पार्टी ने पिछले बार से बेहतर प्रदर्शन किया परन्तु मौर्या और पटेल चुनाव हार गए जबकि चौहान को विजय मिली। राष्ट्रीय लोकदल के साथ आने पर जाट, फिर स्वामी प्रसाद मौर्य, कृष्णा पटेल व सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर के साथ आने से सपा मौर्य कहें, काछी कहें या कुशवाहा, कुर्मी कहें या पटेल, राजभर व निषाद सहित पासी, खटीक, बिंद के अलावा छोटी- पिछडी़ जातियों के मतों के बल पर राज्य में सत्ता पाने का प्रयत्न कर रही थी । राजभर भी अपना चुनाव जीत गए। रालोद को जाटों की पार्टी कहा जाता है लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों से भाजपा ने इस मिथक को कि जाट चौधरी की पार्टी को ही वोट देंगे, तोड़ दिया है। चुनावी रैलियों में उमडी़ भीड़ भी सपा समर्थकों के दावों को बल प्रदान कर रही थी पर वह नाकाफी सिद्ध हुई।
कांग्रेस पार्टी में अजय सिंह लल्लू का नेतृत्व व प्रियंका गांधी वाड्रा का संघर्ष, ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का कांग्रेस का नारा और 40 फीसदी महिलाओं को टिकट मतदादाओं को अपने पक्ष में करने में बुरी तरह नाकामयाब रहा। बुरा हश्र तो पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी का भी हुआ है जिसे सिर्फ एक ही सीट से संतोष करना पड़ा है। मायावती को उनकी जाती जाटव और मुसलामानों का भी पहले जैसा समर्थन नहीं मिला है इस बार।
अब प्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा को लें, उसने भी केन्द्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल नीतित अपना दल एस, निषाद पार्टी आदि से चुनावी गठबंधन किया । जाहिर है पटेलों जिन्हें कुर्मी कहें या सचान कहें या फिर कटियार और निषाद यानि मल्लाहों का पार्टी को समर्थन मिला है। अनुप्रिया पटेल चूंकि केन्द्र में मंत्री हैं और उनके दल की भागीदारी राज्य मंत्रिमंडल में भी है, इसका फायदा भी उन्हें सपा से ज्यादा मिला है। क्योंकि उनकी बहन पल्लवी पटेल कुर्मी मतदाताओं को उनके खिलाफ यानी सपा के पक्ष में करने में उतनी कारगर नहीं रही है जितनी सपा उम्मीद लगाये बैठी थी। जहां तक लोधी राजपूत मतदाताओं का सवाल है, राज्य के मध्य में इनकी आबादी यादवों से थोडी़ ही कम है लेकिन यह हमेशा भाजपा की पक्षधर रही है। बीते दशकों का इतिहास इसका प्रमाण है। कल्याण सिंह अपवाद जरूर हैं जबकि भाजपा से अलग होने की स्थिति में जब वह सपा के सहयोग से एटा से लोकसभा के लिए खडे़ हुए थे तब इस वर्ग ने भाजपा के खिलाफ जाकर उन्हें जिताया था। अब उनका बेटा राजवीर सिंह एटा से भाजपा का लोकसभा सदस्य है और राजवीर सिंह का बेटा राज्य में मंत्री। उस स्थिति में बुलन्दशहर से लेकर अलीगढ़, हाथरस,फरूखाबाद, मैनपुरी,एटा, उन्नाव व जालौन तक फैले लोधी राजपूतों की भाजपा को जिताने में अहम भूमिका रही है। फिर इस इलाके में काछी, मौर्य कहें या कुशवाहा भी लम्बे अरसे तक भाजपा के ही वोट रहे हैं। कश्यप कहें या धीमर, नाई, गड़रिया या बघेल आदि जातियां भी भाजपा की पक्षधर रही हैं। फिर वैश्य, ठाकुर मतदाता तो भाजपा का स्थायी समर्थक है। सपा भले गूजर और जाटों में सेंध लगाने का दावा करे लेकिन हकीकत में भाजपा इन जातियों को काफी हद अपनी ओर करने में कामयाब रही है। जहांतक यादवों का सवाल है, अक्सर इन्हें सपा का ही कट्टर पक्षधर माना जाता है। इस बारे में यहां भाजपा नेताओं की इस दलील को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा नेताओं की मानें तो यादवों में एक खास वर्ग कमरिया ही सपा का कट्टर समर्थक है। अपने शासन काल की बात हो या राजनीति में हिस्सेदारी का सवाल हो, सपा नेताओं ने हमेशा इसी वर्ग को प्रमुखता दी है। सपा पर इन्हीं का कब्जा है जबकि दूसरे जो घोस कहलाते हैं, उनसे हमेशा सौतेला वर्ताव किया गया है। यही वजह है कि यह तबका हमेशा इनसे दूरी बनाये रखता है। इस वर्ग की मानें तो रामनरेश यादव भले प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, लेकिन दूसरे वर्ग ने उन्हें कभी आगे बढ़ने ही नहीं दिया। इस वर्ग के लोगों को टिकट देना तो बहुत दूर की बात है। इन हालातों में सपा को यादवों के एकमुश्त वोट मिलने का दावा संशय जरूर पैदा करता है।
मौजूदा समय में कुछ राजनीतिक विश्लेषक किसान आंदोलन के चलते जनता में मौजूदा सरकार के विरोधी रुख के बारे में जोर-शोर से दावे करते हुए समाजवादी गठबंधन की सरकार आने की घोषणा कर रहे थे । कयास तो यह लगाये जा रहे थे कि हिजाब मामले का फायदा समाजवादी गठबंधन को मिलेगा लेकिन उसे एआईआई एम नेता मौलाना असदुद्दीन ओबैसी भी भुनाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे।परन्तु किसान आंदोलन का उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम में कोई ख़ास असर नहीं दिखा। और हिजाब का मसला भी भाजपा के ही हित में गया दिखता है ।
जहां तक भाजपा के दावों की बात करें तो जनता भाजपा के शासन में किये गये विकास कार्यों, कुंभ व कांवड़ यात्रा शांति पूर्ण व सफलता पूर्वक सम्पन्न होने, निवेश में बढो़तरी के साथ, महिला सुरक्षा, चिकित्सा सुविधा, मेडीकल कालेजों की स्थापना,किसानों के खाते में सीधे राशि पहुंचाने, समाज के सभी वर्गों के गरीबों वंचितों को मकान उपलब्ध कराने, अपराधियों के सपा शासन में खुलेआम घूमने का आरोप लगाने के साथ अपराधियों से प्रदेश को मुक्ति दिलाने और चौबीसो घंटे बिजली देने सड़क निर्माण, राजमार्गों के निर्माण, प्रशासनिक ईमानदारी,भ्रष्टाचार के खात्मे, आम जन की सुरक्षा, राज्य से दंगों व माफिया राज के खात्मे, कानून व्यवस्था में सुधार, गुंडागर्दी के खात्मे, किसानों की कर्ज माफी, फर्जी राशन कार्डों के खात्मे, गरीबों को राशन मुहैय्या कराने, महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने, उज्ज्वला योजना के तहत घरेलू महिलाओं को गैस उपलब्ध कराने, परिवार की जगह सबका साथ-सबका विकास करने के दावों को व्यापक जन समर्थन मिला है।
*वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद