उर्लिका (स्वीडन): 26 अगस्त 2022 को ही सुखाड़-बाढ़ जन आयोग की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी और खोज यात्रा पर चर्चा हुई थी। आयोग के गठन के बाद जो कार्यक्रम हुए, उनको संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी माना है।
26 अगस्त 2023 को विश्व खोज यात्रा का एक साल पूरा होने पर खोज यात्रा पहला चरण संपन्न हो गया और यहाँ सुखाड़-बाढ़ विश्व जन आयोग के कार्यालय की बैठक में इस यात्रा अनुभव पर विमर्श व निष्कर्ष पर भी बातचीत आरंभ हुई। अब पानी की चेतना व बाढ़-सुखाड़ मुक्ति की युक्ति खोजने वाली यात्रा के दुसरे चरण की शुरुआत बाल्टिक सागर से 27 अगस्त 2023 को होगी।
खोज यात्रा की शुरुआत गोपालपुरा गांव, जिला अलवर राजस्थान से की गई थी क्योंकि यह गांव सुखाड़ के कारण उजड़ गया था। फिर उन्होंने अपने आपको पानी का काम करके, पानीदार बना लिया। अब यह एक समृद्ध गांव बन गया।
गोपालपुरा गांव में जो पिछले चार दशकों में काम हुआ है, उसने सुखाड़-बाढ़ से उजड़ने वाले लोगों को अपनी जगह पर वापस बसा दिया है। वापस आने के बाद उन लोगों ने अपनी प्राकृतिक समृद्धि स्थापित की है। यह बाढ़-सुखाड़ मुक्ति की युक्ति को समझने एक बड़ा उदाहरण है। इसलिए यात्रा गोपालपुरा गांव से आरंभ हुई थी। इस यात्रा में एक के बाद एक अध्याय जुड़ते गए।
इस खोज यात्रा में 12 अंतर्राष्ट्रीय विश्व जल सम्मेलन हुए हैं। पहला सम्मेलन उदयपुर (भारत), दूसरा दिल्ली (भारत), तीसरा ढाका (बांग्लादेश), चौथा श्रृमोशेख इजिप्ट, पांचवा न्यू यॉर्क (अमेरिका), छठवां कैलिफ़ोर्निया (अमेरिका), सातवां सल्वाडोर ब्राजील, आठवां नीमली-भीकमपुरा (भारत), नौवां महावीर जी करौली राजस्थान (भारत), दसवां न्यूबर्ग (जर्मनी), ग्यारहवां स्टॉकहोम (स्वीडन), बारहवां धारवाड़, कर्नाटक (भारत) में हुए हैं। इसी के साथ दो जल और शांति सम्मेलन हुए- पहला दिल्ली और दूसरा चंबल में। इस प्रकार कुल 14 सम्मेलन हुए।
52 राष्ट्रीय स्तर पर सम्मेलन हुए और बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में 9 सम्मेलन आयोजित हुए। जल चेतना की 102 कार्यशालाएं और 107 कार्यकर्ता निर्माण शिविर आयोजित हुए। 260 संवाद जनसभा हुई। इस प्रकार कुल 544 कार्यक्रम हुए। इन कार्यक्रमों में 250000 से अधिक लोगों ने भाग लिया। यह यात्रा करीब 10 लाख किलोमीटर लंबी थी क्योंकि, स्वीडन से आरंभ होकर यह यात्रा भारत से ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल पुर्तगाल से फिर भारत, फिर अमेरिका, अमेरिका में न्यू यॉर्क , कैलिफोर्निया, लॉस एंजेलिस, शिकागो आदि बहुत सारे शहरों और यूरोप के बहुत सारे देशों जिनमें जर्मनी, डेनमार्क, स्पेन भी शामिल है । अफ्रीका में केन्या, सोमालिया, ईथोपिया और एशिया में चीन, तिब्बत आदि जगहों में भी गई।
निष्कर्ष यह है कि आज दुनिया में बाढ़-सुखाड़ बढ़ रही है। इसका मुख्य कारण हमारी जीवन पद्धति में प्रकृति के साथ मानवीय रिश्ते टूट गए हैं। अब मानवीय शिक्षा प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी केवल प्रकृति का शोषण ही सिखाती है। प्रकृति के शोषण से जंगल, मिट्टी, प्रकृति के साथ जो प्यार के रिश्ते थे, वह बिगड़ गए हैं। इससे जंगल घटते जा रहे हैं। नदियों को आज़ादी से बहाने वाले रास्ते अवरूद्ध हो गए हैं। प्राकृतिक रास्तों पर अतिक्रमण और प्रदूषण बढ़ा है। ऊपर से मिट्टी का कटाव आकर जल प्रभाव क्षेत्र में जम रहा है, जिसके कारण वर्षा जल तेजी से आकर मिट्टी को काटकर, नदियों में जमा देता है, जिससे नदियों का तल ऊपर उठ रहा है। जब वर्षा का चक्र बदला तो बाढ़-सुखाड़ भी बढ़ता चला गया। इसके कारण हम देख रहे हैं कि, इंसानों के जीवन में कष्ट और संकट पैदा हो गया। यह मानवीय स्वास्थ्य लिए बहुत घातक है और यह तीसरे विश्व युद्ध को बढ़ावा दे रहा है।
दुनिया विविध भू सांस्कृतिक विविधताओं की दुनिया है। इसमें जलवायु परिवर्तन के विविध प्रकार के प्रभाव और जलवायु का खेती के साथ संबंध जैव विविधता है। इन सब विविधताओं में सब जगह सुखाड़ और बाढ़ है। लेकिन जिन क्षेत्रों में बाढ़-सुखाड़ है, उनका दुष्प्रभाव दिखने लगा है। जहां पर धरती नंगी हैं, वहां सुखाड़-बाढ़ का दुष्प्रभाव अधिक है। धरती नंगी होने के कारण सूरज की किरणों से धरती और सूरज के बीच में जब हरियाली का स्पंज नहीं होता, तब वह गर्मी पैदा करके, बिगाड़ करती है। इसलिए हरियाली ही सुखाड़-बाढ़ मुक्ति की युक्ति है। इसलिए हरियाली बढ़ाने के लिए काम होना चाहिए। समाज को यह भी समझने की जरूरत है कि, जिन देशों ने अपनी धरती पर हरियाली बढ़ाई है-जैसे स्वीडन में जब पहले पृथ्वी शिखर सम्मेलन 1972 में हुआ, उस वक्त इनके पास आज की अपेक्षा आधे ही जंगल थे। इन्होंने पिछली 50 वर्षों में अपनी धरती पर दोगुना जंगल बढ़ा लिया है। जिन-जिन देश ने अपनी हरियाली बढ़ाई तो वहां के समाज का स्वास्थ्य, धरती का स्वास्थ्य और मानवीय स्वास्थ्य के साथ-साथ, पानी का स्वास्थ्य भी सुधर गया है।
इस खोज यात्रा से यह बात बहुत साफ तौर पर समझ में आया है कि पानी दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। यह ऐसा पदार्थ है जो द्रव, गैस और ठोस में है। इस पर विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी को ज्यादा संवेदनशीलता के साथ काम करने की जरूरत है। जल से बनने वाले पृथ्वी के चारों तरफ के परिवेश को समग्रता में समझकर ही लाभ से ज्यादा शुभ होगा। पूरी धरती पर जल, अन्न, स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन आदि सभी प्रकार की सुरक्षा मिलेगी। इसलिए हम शुभ और सुरक्षा के लिए काम करें, यह हमारे आज की सबसे बड़ी चुनौती है। प्रकृति की सेहत को ठीक करने का काम न केवल वैज्ञानिक सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता, विधि-विधान बनाकर, प्रत्यक्ष व्यवहारिक काम करेंगे तो सभी काम होंगे। इसके लिए तो प्रकृति की समग्रता से काम करना होगा। विखंडित शोध को रोककर, समग्रता के साथ जोड़कर शोध का काम करने की जरूरत है।
पहले चरण में यह खोज यात्रा अभी तक केवल समुदायों, सामाजिक संस्थाओं, शिक्षण संस्थानों, स्कूलों में भी गई थी, लेकिन अब अगले साल 2024 में इसे दुनिया की सर्वोत्तम शिक्षण संस्थानों में जाना चाहिए। क्योंकि वहां से जो रास्ता निकलेगा, उस रास्ते में नई और गहरी समझ मिलेगी। दूसरी तरफ जिनके साथ संवाद करेंगे, उनके साथ भी प्रकृति के प्रेम और सम्मान का रिश्ता बनेगा। फिर वह लोग भी अपने लाभ के साथ, शुभ की सुरक्षा तरफ भी काम करना शुरू करेंगे।
अभी तक की इस यात्रा से एक यह भी निष्कर्ष निकला है कि दुनिया में आधुनिक शिक्षा ने प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी और विज्ञान के सहारे से बहुत तेजी से प्राकृतिक शोषण किया है। इसलिए जलवायु परिवर्तन हुआ और बाढ़-सुखाड़ आने लगी है। अब प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी को संवेदनशील बनाने के लिए दुनिया की उच्चतम शिक्षण संस्थान में यात्रा को जाना चाहिए।शिक्षा को प्राकृतिक पोषण को बढ़ाने वाली विद्या की तरफ आगे बढ़ाने की जरूरत है। इसीलिए दुसरे चरण में यह यात्रा पूरी दुनिया के 100 सर्वोत्तम संस्थानों में भी जाएगी। इन शिक्षण संस्थानों में प्राकृतिक पोषण को बढ़ाने वाली विद्या द्वारा उनमें भी प्रकृति की समग्रता से जोड़ने का संस्कार आएगा और फिर वह अपनी शिक्षा को प्रकृति के समग्रता में सम्मिलित करके आगे की शोध करेंगे। अभी तक की खोज यात्रा में जो तथ्य सामने आए हैं, उन तथ्यों को दुनिया के सामने रखने के लिए एक अच्छी पुस्तक बनेगी। दुनिया को भी इस अनुभव से सीख मिल सके उसके लिए हमें काम करने की जरूरत है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल विशेषज्ञ।