– संजय सिंह
हाल के वर्षों में भारत में चुनी हुई सरकारों को दल बदल के माध्यम से गिरा देना और विपक्ष द्वारा सत्तारूढ़ दल के विधायकों को अपने साथ लाकर सत्ता को अस्थिर कर देने का एक चलन सा बन गया है। भारत में जनादेश का कोई मतलब अब दिखाई नहीं देता। जनादेश का सम्मान भी बस कहने भर के लिए रह गया है। वर्तमान में राजनीति में आकांक्षाएं व महत्वाकांक्षाएं अपने चरम पर हैं और सत्ता में बने रहने की चाह दल बदल को तेज़ी से बढ़ा रही है। मतदाता भले ही किसी दल की विचारधारा से प्रभावित होकर किसी को वोट करे लेकिन यह जरूरी नहीं कि चयनित विधायक या सांसद उसी दल में रहे। अब चुनाव के दौरान आम मतदाता भी कहने लगे हैं कि कौन जीतेगा, पता नहीं लेकिन सरकार कौन बनाएगा यह निश्चित है।
मतदाता जिस दल के लिए एकजुट होकर वोट करते हैं वही दल दूसरे या तीसरे दल की तरफ हो जाते हैं। मतदाता का किसी राजनीतिक दल या नेता से व्यक्तिगत लगाव हो सकता है, किसी गठबंधन से भी मतदाता के सार्वजनिक हित जुड़े हो सकते हैं लेकिन उस पार्टी या गठबंधन से चुना हुआ नेता उसे छोड़कर किसी और दल में जाता है तो इससे मतदाता के वोट का कोई मतलब नहीं रह जाता है। अधिकांशत: दलबदल केवल निजी स्वार्थों के कारण ही होता है। पद, पैसा या महत्वाकांक्षा के कारण ही दल बदल होता है लेकिन इसमें हमारा यानी वोटर का हित कहां है? हम इसे समझना ही नहीं चाहते। आम मतदाता की जन भावनाओं को राजनीतिक दल कुचलते हैं लेकिन लोकतंत्र के इस बिगड़ते स्वरूप को बचाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। जो नेता दूसरे दल को गाली देते हुए नहीं थकते हैं जब वह उसी दल में जाकर मिलते हैं तो उसके कसीदे पढ़ने लगते हैं। अपने भ्रष्टाचार को वाशिंग मशीन में धोकर साफ सुथरा करने के लिए ही वह सत्ता पक्ष के साथ खड़े हो जाते हैं।
पिछले दिनों महाराष्ट्र में जो हुआ उसने तो राजनीति में खरीद-फरोख्त की एक नई इबारत लिख दी है। विचारधारा की दृष्टि से बिल्कुल अलग गठजोड़ अब दिखाई देने लगे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति दलबदल की बड़ी प्रयोगशाला बन गई है। वहां पिछले कुछ महीनों के राजनीतिक घटनाक्रम बताते हैं कि नैतिकता और जन हित की पैरोकारी की दुहाई देने वाले नेता सत्ता हथियाने को कैसे रंग ढंग बदलते हैं। कई राज्यों में बहुमत वाली सरकारें दल बदल के कारण अल्पमत में आईं, बाद में उस दल की सरकार बनी जिसे जनता ने सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया था। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में भी विधायकों के इस्तीफे दिए जाने के कारण सरकारें अल्पमत में आईं। मौजूदा दल बदल कानून विधायकों को इस्तीफा देने से नहीं रोकता है। सैद्धांतिक तौर पर भी देखा जाए तो सांसद अथवा विधायक के तौर पर निर्वाचित व्यक्ति यदि इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होता है तो वह गलत नहीं माना जा सकता। विधायकों और सांसदों के दल बदल में अब यही पैटर्न देखने को मिल रहा है। लेकिन, निकायों के प्रतिनिधि दल को छोड़े बगैर ही क्रॉस वोटिंग के जरिए अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रहे हैं।
आने वाले दिनों में भारत के 5 राज्यों में चुनाव होना है जहां अक्टूबर में आचार संहिता लागू हो जाएगी। अभी से राज्यों में दलबदल की संभावनाएं दिखाई पड़ने लगी है। इसमें कोई भी दल एक दूसरे से कम नहीं है, मतदाता को सिर्फ ठगा जा रहा है। दो दल मिलकर चुनाव लड़ते हैं और जीतते हैं तो सरकार बनाते वक्त धुर विरोधी दल से मिल जाते हैं। मतदाता के पास कोई अधिकार नहीं है कि वह इसका विरोध कर सके। यकीनन यह उसके मताधिकार का अपमान होता है। नेताओं को सत्ता में हिस्सा चाहिए इसीलिए दल बदल किया जाता है, हालांकि राजनीतिक दलों की दलील होती है कि जनता की खुशहाली के लिए राज्य के विकास के लिए फैसला लिया गया।
एक वक्त था जब दलबदल को राजनीति में बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता था। दल बदलते भी थे लेकिन खुद को असली पार्टी बताने का दावा नहीं करते थे। इस दल बदल के खेल में सबसे अधिक फायदा छोटे दलों को हो रहा है जो मोलभाव करने में सबसे अधिक फायदा उठा रहे हैं। अब जब कोई गुट टूटता है तो टूटने के साथ ही खुद को असली पार्टी घोषित कर देता है। महाराष्ट्र में पहले शिवसेना के एकनाथ शिंदे और अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजीत पवार इस राजनीति के अगुआ हैं। वहीं राजनीति में अब नए तरह का प्रचलन देखने को मिल रहा है कि ताकतवर दल, दूसरे दलों के बीच दो फाड़ करने में माहिर हो रहे हैं।
छोटे दलों में कई तरह के स्वार्थ लाभ और भय उन्हें दल बदल करने के लिए मजबूर बना रहे हैं। कहा जा रहा है कि सरकारी एजेंसियों के छापे के डर से ऐसा हो रहा है। सवाल उठता है कि आखिर नेता छापे से डरते क्यों हैं? अगर बात साफ-साफ है तो मीडिया या केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) क्या बिगाड़ लेगी? लेकिन वे जानते हैं कि बात इतने भर की नहीं है। वे जानते हैं कि जांच एजेंसियों के पास इतने सारे पेंच होते हैं कि उनमें उलझाया जा सकता है। कायदे से इनमें चुनाव आयोग को दखल देना चाहिए। कुछ जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट को भी हस्तक्षेप करना चाहिए। चुनाव सुधार के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले भी बड़े-बड़े फैसले दे चुका है। 2 साल से ज्यादा की सजा पाने वालों की सदस्यता रद्द करने या 6 साल तक चुनाव पर रोक लगाने का फैसला भी सुप्रीम कोर्ट ने ही दिया था। अब दल बदल कानून पर भी कोर्ट को सख्त रुख अपनाने की जरूरत है ताकि राजनीतिक पार्टियां इसका दुरुपयोग न कर सके। देश में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म लगातार मुहिम चला रहा है। मतदाता जागरूक होकर जनादेश का माहौल उड़ाने वालों को अपनी वोट की ताकत से मतदाता का अधिकार बताने की कोशिश करें।
देश में अभी सांसद और विधायकों के दलबदल को रोकने वाला ही कानून लागू है बावजूद इसके देश में बड़ी संख्या में विधायक दल बदल करते नज़र आ रहे हैं। भारतीय राजनीति में जारी दल बदल का खेल बताता है कि सत्ता हथियाने को व्याकुल नेता किसी भी हथकंडे को अपना रहे हैं। नैतिक और सामाजिक मूल्य उनके लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। वे सत्ता हथियाने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार बैठे हैं। नेताओं की कुटिल चाले लोकतंत्र और नियम कायदे के प्रति आस्था रखने वाले मतदाताओं को निराश करती हैं। ऐसे में देश में अराजकता का माहौल बनने की संभावना भी प्रबल होती है। कांग्रेस हो या भाजपा, शिवसेना हो या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) सबका अपना संविधान हैं। जनहित की पैरोकारी का दावा करने वाले इन सभी दलों की नीतियां और रीतियां भी अलग अलग तय हैं। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन सभी दलों ने अपनी नीतियों के साथ जनहित और जन आकांक्षाओं की अवहेलना कर स्वार्थ सिद्धि के लिए बेमेल गठजोड़ किए। उनके गठजोड़ का प्रयोग और उनकी कार्यशैली बता देती है कि सत्ता की मलाई जीमने को वो किसी हद तक जा सकते हैं।
यह तो साफ़ है कि दलबदल के चलते मतदाता भ्रमित हो रहे हैं कि वे पार्टी को मद्देनजर रखकर वोट करें या प्रतिनिधि को। नेताओं की विचारधारा सत्ता में बने रहने की है जिसके चलते राजनीति में शुचिता कम हो रही है। दलबदल के चलते लोकतांत्रिक मूल्यों में भारी गिरावट को देखा जा सकता है जो आने वाले समय में भारतीय लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित होगा।
*लेखक एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म ( एडीआर ), यूपी इलेक्शन वाच के मुख्य संयोजक हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।