सतत् विकास (सस्टेनेबिलिटी) भारत के हजारों वर्ष पुराने ‘शुभ’ शब्द से जन्मा है। यह शब्द दुनिया में 1992 में प्रचलित हुआ था। रियो डी जेनेरियो, ब्राजील में आयोजित दूसरा पृथ्वी शिखर सम्मेलन इस शब्द की नई उत्पत्ति का स्थान बना। भारत में इस शब्द को सनातन, सतत् (शुभ) विकास जैसे शब्दों के साथ जोड़ा गया है। भारत में ‘शुभ’ शब्द ‘लाभ’ के साथ इसलिए जोड़ा है जिससे व्यक्ति लालची बनकर प्रकृति को कष्ट ना पहुंचाए।
दूसरे पृथ्वी शिखर सम्मेलन की पूर्व तैयारी दिसबंर 1991 में पेरिस में हुई थी। मैं उसमें गया था। रियो डी जेनेरियो वर्ष 1992 में भी स्वैच्छिक संगठन प्रतिनिधि बतौर शामिल हुआ था। यहां आंखों देखी, कानों से सुना अनुभव की अनुभूति लिख रहा हूं।
भारत में सस्टेनेबिलिटी के लिए प्राकृतिक मान्यता है ‘‘प्रकृति हमें पुरखों से मिली है। इसका रक्षण-संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है। हम इससे जो ले रहे है, वह हमारे बच्चों का हम पर उधार व कर्ज है।’’ हम जीवित रहते हुए अपने बच्चों को सौंप देंगे। पृथ्वी, प्रकृति व बच्चों से जो हमने लिया है, उसे अपनी मेहनत से वापिस लौटायेंगे। भारतीय वेदों में हम पृथ्वी से प्रार्थना करते हैं कि, जो भी तुम्हे अपने लाभ के लिए हानि पहुंचाए उसे रान्ध दो या वध कर दो-
यो नो द्वेषत् पृथिवि यः पृतन्याद् भिदासान्मनसा यो वधेन।
तं नो भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ।।{अथर्ववेदः कां| १२, सू| १, मं| १४}
भारतीय, प्रकृति के ‘शुभ’ सस्टेनेबिलिटी हेतु सुबह पृथ्वी पर पैर रखने से पहले ही क्षमा मांगते हुए कहते हैं: समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे।
पहला पृथ्वी शिखर सम्मेलन 1972, स्टॉकहोम में आयोजित हुआ था। इसमें पर्यावरण शब्द उठाया गया था। प्रकृति में हो रहे विनाश को रोकने के लिए पर्यावरण संरक्षण की बात सर्व सम्मति से स्वीकार की गई थी। इसके 20 वर्ष बाद ब्राजील की राजधानी रियो डी जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में शामिल अर्थशास्त्री और उद्योगपतियों ने कहा था कि, पर्यावरण की चिंता से हमारा विकास रुक गया है। हमें औद्यौगिक आर्थिक विकास चाहिए। इस लंबी चर्चा के बाद यह मान लिया गया था कि विकास की भी जरूरत है। हां! यह विकास शुभ स्थायित्व, सतत् (सनातन विकास) होना चाहिए। वर्ष 1992 में नए ‘सतत् विकास’ शब्द को नई मान्यता मिल गई और हमारे व्यवहार में इस शब्द को जोड़ा गया था।
विकास की आवाज जोरों से उठ रही थी; लेकिन स्थायित्व की आवाज उठाने वाले कम ही लोग थे और बिगाड़ने वाले ज्यादा ताकतवर थे। इसलिए स्थायित्व विकास की जगह बिगाड़ ही होता रहा। इस भयानक बिगाड़ ने अनेक आपदायें जैसे जलवायु परिवर्तन, सुखाड़-बाढ़ समुद्र में उफान, तूफान जैसे ग्लेशियर का पिघलना आदि प्रलय जैसी गंभीर बिमारिया फैला दी। कोरोना जैसी महामारी भी इसी विकास के विनाश से पैदा हुई है। अब इसके रोकथाम के लिए प्रकृति के पुनर्जीवन का काम करके ‘स्थायित्व विकास’ लाना सबको जरूरी लगता है। इसलिए अब औद्योगिक उत्पादन में भी सतत् विकास जरूरी हो रहा है।
भारतीय मूल ज्ञान तंत्र में सतत् विकास का अर्थ ‘सनातन’ है। भारतीय शास्त्रों में सनातन विकास के बारे में कहा गया है कि, जिसका कोई अंत ना हो। जिसमे सदैव नित्य नूतन निर्माण होता रहे। लेकिन ऐसा निर्माण जिसमे विनाश, बिगाड़ और विस्थापन ना होता हो; वही सतत् विकास है। यही अब सभी के लिए अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों और प्राकृतिक प्रेमी इसी रास्ते को मिलकर अपना सकते हैं। परन्तु आज भारत का औद्यौगिक विकास ही नहीं बल्कि अब कृषि, मौसम, वातावरण में भी स्थायित्व नहीं रहा है।
स्थायित्व विकास के लिए मानव निर्मित उत्पादन में प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया नही रुकनी चाहिए तथा सहजता से प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया को अपनाने के लिए सिद्धांतों की पालना आवश्यक है। जब समाज का जीवन यापन प्रकृति के अनुकूल होता है, तो प्रकृति में किसी भी तरह का कैसा भी बिगाड़ नहीं होता। व्यक्ति यदि आपने लालच के लिए प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया में बिगाड़ करता है तो कुछ भी सतत् सनातन या टिकाऊ नहीं हो पाता। इसलिए मानव को प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया को बनाए रखते हुए किया गया नया निर्माण प्रकृति में स्थायित्व प्रदान करता है। स्थायित्व की तरफ सभी को लेकर जाता है। वही सतत् या सनातन स्थायित्व विकास जिसे अंग्रेजी शब्द में ‘सस्टेनेबिलिटी’ कह सकते है।
स्थायित्व को समझने और परिभाषित करने के लिए दुनिया के वैज्ञानिकों को तकनीक और इंजीनियरिंग में प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। इस हेतु किए गए मानवीय नव निर्माण हो या प्रकृति के द्वारा हो रहे नव निर्माण, दोनो ही स्थायित्व की तरफ ले जाते है।
हिंसाहीन-अहिंसामय विकास ही सस्टेनेबिल बन सकता है। दुनिया के औद्यौगिक विकास में स्थायित्व तब होगा जब उसमें प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया शुरू होती है। इसके उत्पादन से प्रकृति का बिगाड़ नहीं होता है। यदि बिगाड़ हो रहा तो उस बिगाड़ के साथ प्रकृति के पुनर्जीवन की प्रक्रिया भी शुरू करनी होगी। जिससे प्रकृति का संतुलन बना रहे। यही आज की पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन मान्यता प्राप्त सस्टेनेबिलिटी है।
स्थायित्व विकास के लिए सभी प्रकार के मानवीय और प्राकृतिक विकास के कामों में स्थायित्व को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। जब हम इस बात का ध्यान नहीं रखते तो विकास टिकता नहीं है। औद्यौगिक उत्पादन में आर्थिकी और प्रबंधन को एक साथ जोड़कर स्थायित्व लाने के लिए किए जा रहे उत्पादन से प्रकृति में बिगाड़ नहीं होना चाहिए। जब लाभ का लालच बढ़ जाता है तो शुभ (सस्टेनेबिलिटी) को भूल जाते है। लालच सस्टेनेबिलिटी के विचार को खत्म कर देता है। यह विचार बनाए रखने का काम शुभ चिंतन ही करता है।
*लेखक जल पुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक हैं।