रविवारीय: शर्ट खरीदने की क्या हैं शर्तें?
– मनीश वर्मा ‘मनु’
कभी गौर फ़रमाया कि शर्ट खरीदने की क्या हैं शर्तें? आज के दौर में अमूमन हम सभी एडवरटाइजिंग और मार्केटिंग से ही आकर्षित होकर सामानों को खरीदते हैं। चाहे वह रोजमर्रा के सामान हों या फिर गहने, टी.वी., वाशिंग मशीन अथवा साड़ी या शर्ट ही क्यों न हो। अब तो लोगों के जेहन में यह धारणा बलवती हो गई है कि ‘जो दिखता है वो बिकता है’।
एडवरटाइजिंग और मार्केटिंग के जाल में हम यूं फंस से गए हैं कि इस मकड़जाल से निकल पाना नामुमकिन सा दिखाई देता है। आटा, चावल, दाल और नमक से लेकर कुछ भी। बस, आप चीजों के नाम बताएं।यह हो नहीं सकता है कि उस वस्तु की बिक्री में एडवरटाइजिंग और मार्केटिंग का योगदान न हो। एक अन्योन्याश्रय संबंध बन गया है उनके बीच। एक दूसरे के पूरक हैं वो।
सड़कों पर बड़े-बड़े होर्डिंग और उस पर बड़ी-बड़ी कंपनियों के विज्ञापन आपको आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।आप कितना भी तार्किक हो लें, पर यह कहीं न कहीं आपको प्रभावित कर ही जाता है। आपके निर्णय को प्रभावित कर ही देता है। अगर आप किन्हीं कारणों से प्रभावित होने से बच भी गए तो, अपने बच्चों और पत्नी को कैसे समझा पाएंगे? वे तो एडवरटाइजिंग और मार्केटिंग के गुलाम बन चुके हैं!
विज्ञापन बनाने के लिए बड़े-बड़े एड गुरुओं की सेवाएं ली जाती हैं। विज्ञापन पर करोड़ों खर्च किए जाते हैं। आखिर, इस खर्चे के बोझ का वहन भी तो उपभोक्ता को ही करना है।
खैर! चलिए, होर्डिंग, एडवरटाइजिंग और मार्केटिंग इनसे वशीभूत होकर आप अब पहुंच गए अपनी तथाकथित पसंद का सामान लेने के लिए। अपने सामर्थ्य के अनुसार अपने वाहन से अपने पूरे परिवार के साथ आप दुकान पर हैं। मध्यमवर्गीय, खाते-पीते नौकरी-पेशा वर्गों में यह एक मौका होता है , परिवार के साथ बाहर निकलने का। कुछ बड़ा सामान लेना हो, तो भाई, पूरे परिवार की पसंद होनी चाहिए। किसी को कलर पसंद आएगा, तो कोई किसी खास कंपनी पर हाथ रखता है। बेचारा मुखिया तो इसी उधेड़बुन में लगा हुआ होता है कि कहीं इन लोगों की पसंद जेब में रखे पैसे पर भारी न पड़ जाए।
बात अगर इतने पर ही खत्म हो जाती, तो कोई बात नहीं। पर, थोड़ा इसके दूसरे पहलू पर गौर फरमाएं – ‘शर्तें लागू’!
अब देखिए ना कुछ बातों को लेकर चिक-चिक हो रही है। मामला कुछ गर्म सा हो रहा है। दुकानदार अपनी कह रहा है और हम अपनी दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर सही पर दिक्कत कहां आ रही है। वहीं, ‘शर्तें लागू’ ।
हमने सब कुछ तो विज्ञापन में पढ़ लिया था, पर उसे न पढ़ पाए, जो विज्ञापन में सबसे आखिर में किसी कोने में छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था- “शर्ते लागू”, और, मामला यहीं अटक गया। एडवरटाइजिंग और मार्केटिंग के बीच। खैर! जब आप इनसे निबटकर कर घर आते हैं और कोई जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही पर, जब जरूरत पड़ती है वारंटी/गारंटी की तब बाकी पंक्तियों के बीच यही दो शब्द आपके पक्ष में आने को तैयार नहीं होते हैं। इन्हें डिज़ाइन ही कुछ इसी प्रकार किया जाता है।
बीमा कंपनी की शर्तें हों, बैंकिंग कंपनी की शर्तें हों या अन्य कोई भी हाउसहोल्ड चीजों की शर्तें हों। ‘शर्ते लागू’ और इन दो शब्दों के महाजाल में उलझ कर रह जाता है बेचारा उपभोक्ता । क्या करे! किधर जाए। इन दो शब्दों में इतनी ताकत है कि कोई कानून आपको संरक्षण नहीं दे सकता है। अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है यह दो शब्द । फिर भी इसका स्थान वहां होता है, जहां किसी की भी इस पर नजर नहीं जाती है।आप नहीं बच सकते। लाख जतन कर लें। बस, दोस्त बना लें इसे। इसकी अहमियत समझ लें। इसकी सत्ता स्वीकार कर लें। इसी में हम सबकी भलाई है। ज्यादा कुछ कहने- सुनने की जरूरत नहीं है। तो फिर यदि शर्ट ही लेना है तो नहीं होंगी क्या ‘शर्तें लागू’? मान लीजिये जनाब वर्ना…
बहुत सुन्दर । बढिया विश्लेषण ।।
धन्यवाद भाई