रविवारीय: सफर ट्रेन का
– मनीश वर्मा ‘मनु’
मां की भाषा
सफर का अपना एक अलग ही मज़ा होता है।एक अलग सी अनुभूति, एक अलग सा अनुभव। सफर अगर ट्रेन का हो तो कहना ही क्या। दूर के सफर में तो ऐसा लगता है पुरे भारतवर्ष का दर्शन और उसकी संस्कृति मानों एक जगह पर ही आकर सिमट सी गई हो। सफर में बस आप इन तमाम चीजों का लुत्फ उठाने को तैयार रहें।
वैसे सभी ट्रेन का सफ़र आनंददायक नहीं होता है। यात्रियों से खचाखच भरी हुई ट्रेन हालांकि एक अलग ही अनुभव देती है। पर असल में ट्रेन में सफर का आनंद तो तभी है जब आपके पास आरक्षित टिकट हो। नीचे का बर्थ हो ( नीचे का बर्थ आपको कहीं ना कहीं अति विशिष्ट होने का अहसास दिलाती है) । आप लंबी दूरी की यात्रा कर रहे हों और समय समय पर तलब के अनुसार आपको चीजें सर्व होती रहें। मतलब चाय, नाश्ते और भोजन का समुचित इंतज़ाम हो।वाकई, सफ़र का लुत्फ तभी ही उठाया जा सकता है।
लंबी दूरी की यात्रा, अगल बगल की खिड़कियों से गुजरते बेहतरीन नज़ारे। और आप नज़ारों के साथ ही साथ अपनी दुनिया में अपनी सोच के साथ खोए हुए। यही तो आनंद है। कुछ करने को नहीं। जब मन किया इस डिब्बे से उस डिब्बे तक एक छोर से दूसरे छोर तक घुम आए। कहीं कोई परिवार के साथ बैठा है। बच्चे अलग ही धमाचौकड़ी मचा रहे हैं। पति पत्नी भी इस पल का आनंद ले रहे हैं। भागदौड़ की जिंदगी में आनंद तो कहीं पीछे छूट सा जाता है। रोज़मर्रा की जिंदगी तो बस दाल रोटी की मशक्कत और जिम्मेवारियां उठाने का ही नाम है। जब तक इनसे उबरते हैं आनंद तो कहीं खो चुका होता है। चलिए, कहां से कहां पहुंच गए। ख़ैर ! पुनः वहीं से शुरूआत करते हैं।
कहीं कोई समुह में बातचीत में मशगूल है तो कोई ताश खेल समय व्यतीत कर रहा है। कहीं राजनीति पर चर्चा हो रही है जो थमने का नाम ही नहीं ले रही। ऐसा लगता है मानो अब सरकार तो ये लोग बना कर ही चैन लेंगे। फिलहाल तो बस एक ही चर्चा हो रही है।बस, अब तो गिनती के दिन बचे हैं। ऋषि सुनक को तो कोई अब रोक ही नहीं सकता है। आखिरकार करोड़ों भारतीयों के दिल का मामला जो है।
कहीं कोई अकेला सफ़र कर रहा है जो अपनी ही दुनिया में या तो किताबों में खोया है नहीं तो मोबाइल पर आंखें धंसाए बैठा है। कहने का मतलब हर कोई अपने आप में मशगूल हैं। कभी कभी लोगों की तंद्रा भंग होती है किसी स्टेशन के आने पर। कुछ लोग उतरते हैं और कुछ लोग चढ़ते हैं। फ़िर से सफ़र की शुरुआत। जिंदगी भी मेरे दोस्त एक सफ़र ही तो है। जिनका मुकाम पहले आता है वो पहले उतर जाते हैं। हर कोई का एक तय मुकाम है। सभी अपनी मंजिल का इंतजार ही तो कर रहे होते हैं। हमारा संबंध तो उनसे उनके पड़ाव तक ही तो सीमित था। सफ़र में मिले यात्रियों से कहां दिल लगाया जाता है।
खैर! दिल्ली से कोलकात्ता की हमारी यात्रा। तरह तरह के लोग। यात्री कहना ज़्यादा मुनासिब होगा। विभिन्न धर्मों और भाषाओं को मानने वाले लोग। सभी साथ में ही तो यात्रा कर रहे होते हैं। अपने आप में मशगूल।
एक छोटा परिवार भी हमारे साथ हमारे ही कूपे में यात्रा कर रहा था। पति पत्नी और दो बच्चे। एक बड़ा बच्चा लगभग बारह साल का जबकि छोटा बच्चा तकरीबन चार साढ़े चार साल का। बड़े बच्चे की अपनी ही दुनिया थी। उसे शायद अपने बड़े होने का अहसास हो चुका था।मोबाइल पर सीमित थी उसकी दुनिया। फुटबॉल का प्रेमी था। मोबाइल पर फुटबॉल मैच देख रहा था। छोटा बच्चा ज़रूर लगातार अपनी उत्सुकता पूर्ण बातों से अपने होने का अहसास सभी को करा रहा था। बच्चे की प्यारी मीठी मीठी, भोली भाली बातों की वज़ह से अक्सर ध्यान उधर चला जा रहा था। पुरा परिवार बंगला भाषा में बातचीत कर रहा था। शायद बंगला उनकी अपनी मातृभाषा थी। पर, उनका छोटा बेटा बंगला बोलते बोलते कभी हिन्दी के भी दो चार वाक्य बोल देता था। बच्चे तो आखिर बच्चे ही होते हैं। उन्हें कहां भेद विभेद मालूम। ऐसा लगा बच्चे ने स्कूल जाना अभी अभी शुरू किया हो और दोस्तों के बीच की बोलचाल की भाषा हिन्दी हो।
बच्चे के बार बार हिंदी बोलने पर मां का प्यार से टोकना ” बेटा बांगला में बोल” । थोड़ा ठिठक कर बच्चा फिर से बंगला में शुरू हो जाता। ऐसा कई मर्तबा हुआ और लगभग हर बार मां ने उसे टोका।
यही तो भाषाई आत्मीयता है। मातृभाषा यूं ही नहीं मां की, मां से जुड़ी हुई भाषा है। ऐसी भाषा जो रज्जू नाल की तरह जुड़ी होती है। मां ने कितने प्यार से अपने बच्चे को मातृभाषा का पाठ पढ़ा दिया। सिर्फ पाठ ही नहीं पढ़ाया बल्कि अपने दो चार शब्दों से बच्चे के बालमन पर हमेशा के लिए अंकित कर दिया कि बेटे यही तुम्हारी भाषा है, जो तुम्हारी मातृभाषा है और यही भाषा तुम्हारी मां को पसंद है। मां तुम धन्य हो।