
रविवारीय: महाकुंभ संपन्न!
महाकुंभ संपन्न! अब इंतजार करिए कम से कम 12 वर्षों का! 144 वर्ष का इंतजार हम तो नहीं कर सकते भाई! इसलिए मौका मिलते ही दौड़ते भागते प्रयागराज पहुंच स्नान ध्यान कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा आए! फिर मौका मिले कि ना मिले! सुना है कि जो छुट गए हैं, वो एक छोटा वाला कुंभ जिसे सभी अर्ध कुंभ कहते हैं, जो आएगा छः साल बाद, उसमें डुबकी लगा सकते हैं, अगर बाकी सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो। अब तो भाई हमारे यहां कुछ ही श्रेणियां रह गई हैं। पहले बहुत ज्यादा थीं। सम्हाल पाना मुश्किल हो रहा था। समझ में ही नहीं आता था। पता नहीं समाज वैज्ञानिक लोग कैसे हैंडल कर लेते थे। अभी तो बस स्नान ध्यान करने वाला या फिर स्नान ध्यान नहीं करने वाला, बस दो ही श्रेणियां रह गई हैं। इन्हीं दो श्रेणियों में हमारा पुरा हिंन्दुस्तान सिमट गया है। अच्छा हुआ !
हां! एक वर्ग और है। आप कह सकते हैं, जिसे इन सब बातों से कोई मतलब नहीं। अपने आप में ही मस्त रहने वाला वर्ग है। पिछले साल विदेश गए थे। वहां देखे कि सभी धर्मों के लोगों के लिए स्थान है और जो कोई धरम नहीं मानता है, सरकार ने उनके लिए भी एक काॅलम रख छोड़ा है। ऐसा नहीं है कि वे ईश्वर को नहीं मानते हैं, पर हां किसी धर्म को फाॅलो नहीं करते हैं। भाई सृष्टि की रचना कोई कल की बात तो है नहीं। हम आप तो ठहरे मेहमान। कुछ दिनों के लिए इस नश्वर संसार में मेहमान बन कर आते हैं, और फ़िर चले जाते हैं। क्यों लगते हैं बदलाव की बात करने ? अरे भाई! यह हमारा घर नहीं है। इस बात को समझिए।
खैर! हम लोगों को भी कुछ ऐसा करना चाहिए, वैसे लोगों के लिए जो अपने आप में मस्त रहते हैं। किसी बात की चिंता फिकिर से मुक्त। क्या करना है इन सब बातों में पड़ कर। अच्छा है भाई! राजरोग नहीं लगता है। निरोग रहने से बेहतर कुछ भी नहीं।
एक बात और कहें – हम क्या हमारे जैसे कई लोग, लगभग हमारे देश की आबादी के 45 % लोगों ने तो महाकुंभ में स्नान ध्यान सिर्फ इसलिए किया कि उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो। मरने के बाद सीधे स्वर्ग पहुंचे।स्वर्ग में उनका स्थान सुनिश्चित हो जाए। एक बार बस वहां दाखिला हो जाए, बाकी तो सारी समस्याएं चुटकी बजाते हल हो जाएंगी ।
विदेशों से भी काफी लोग आए थे। उन्हें भी उत्सुकता थी इस बात को जानने में आखिर महाकुंभ में डुबकी लगाने भर से मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है। स्वर्ग का दरवाज़ा कैसे खुल सकता है हमारे लिए। गुगल बाबा ने ऐसा तो कहीं नहीं बताया था। अरे भाई मानना है तो मानो नहीं मानना है तो नहीं मानो। किसी ने जबरदस्ती किया है? लगभग 66 करोड़ लोगों ने डुबकी लगाई है। किसी ने सवालात तो नहीं किए।
अब बचे उन लोगों की बात करते हैं जिन्होंने स्नान ध्यान नहीं किया है, उनके लिए तो पहले से ही जगह तय था। हां! उनके लिए जरूर सोचना होगा जिन्हें कोई मतलब नहीं। अपने आप में ही मस्त रहते हैं। ऐसे लोगों का तो कोई कुछ नहीं कर सकता है। शनिदेव भी इन्हें दूर रखना ही मुनासिब समझते हैं। बाकी बात की चिंता हमारे चित्रगुप्त महाराज जी करें। कहां किसको रखना है। जगह कैसे बनाना है। इतने लोग ने एक साथ अपना निबंधन करा लिया है। परेशान हैं बिचारे। स्वर्ग तो पहले से ही फुल है। तत्काल में ही कोई जुगत भिड़ाना पड़ेगा।इधर उधर से काट छांट कर जगह बनाने की जुगत में लगे हुए हैं महाराज जी। नरक में जो थोड़ी बहुत अच्छी जगह थी उसे भी स्वर्ग में मिला लिया गया है। क्या करें? मजबूरी जो है।
डिस्क्लेमर: कृपया इसे सिरियसली ना लें। एक हल्का फुल्का व्यंग्य है। किसी व्यक्ति विशेष या फिर संस्था पर कोई टिप्पणी नहीं है और ना ही किसी के आस्था और विश्वास पर कोई टिप्पणी है।
महाकुंभ पर बहुप्रतीक्षित अपने चिंतन से आँखें चार कराने हेतु आभार। आपने पूरे जनमानस को, जो डुबकी लगाए या किसी कारणवश डुबकी नहीं लगा पाए और साथ ही वैसे लोग जिन्हें इन सब बातों से अलग अपनी दुनिया में मस्त रहने वालों के लिए भी , बहुत ही सरलता एवं मधुरता से अपने चिंतन में स्थान दिया। देश व दुनियां के श्रद्धालुओं ने बिना किसी भेदभाव एवं बिना भौतिक लालसा के सिर्फ आत्मिक शुद्धि एवं तृप्ति हेतु आस्था की डुबकी लगा कर इस अलौकिक पर्व को जिया एवं आत्मसात किया । सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति, इस माहकुंभ की सफलता का मूल कारण बना। संचार व्यवस्था का उत्कृष्ट नमूना है यह कुंभ। चाहे प्रशासनिक मैनेजमेंट हो या कुंभ का प्रचार प्रसार हो सभी का समुचित एवं वैज्ञानिक आधार की तथ्यात्मक प्रचार – प्रसार ने इसे पूर्णता एवं भव्यता प्रदान करने में कोई कोर – कसर नहीं छोड़ा ।
यह ब्लॉग एक हल्के-फुल्के व्यंग्य के रूप में समाज की धार्मिक और आस्था से जुड़ी प्रवृत्तियों पर रोशनी डालता है। इसमें महाकुंभ के महत्व, उसमें भाग लेने वाले लोगों की मानसिकता और आस्था से जुड़े विभिन्न दृष्टिकोणों को व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। ब्लॉग में तीन तरह के लोगों का जिक्र है—स्नान करने वाले, न करने वाले और जो इन सबसे परे हैं। यह हमारे समाज की धार्मिक विविधता और व्यक्तिगत आस्थाओं को दर्शाता है। साथ ही स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं और मोक्ष की अवधारणा को भी हास्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। निष्कर्षतः श्री वर्मा जी का यह ब्लॉग व्यंग्य धार्मिकता और आधुनिक समाज के बदलते दृष्टिकोणों पर एक चुटीली टिप्पणी करता है, जिसे हल्के-फुल्के अंदाज में लिया जाना चाहिए।