रविवारीय: लोकतंत्र और आम आदमी
लोकतंत्र एक बड़ी ही खूबसूरत चीज है। एक खुशनुमा अहसास है। पर, लोकतंत्र के मजबूत और सफल होने के लिए यह एक बहुत बड़ी ज़रूरत है कि देश के हर तबके के लोग और खासकर समाज के आखिरी पायदान पर रहता आम आदमी मतदान की प्रक्रिया में अपना सार्थक योगदान दे। सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद हमारे मतदान का प्रतिशत वो नहीं है जो होना चाहिए।
हमें इस बात को समझना होगा। हम अभी तक अपनी शत प्रतिशत आबादी से मतदान नहीं करवा पाए हैं। जब हम मतदान की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन की बात करते हैं, तब शायद हम इस बात को भूल जाते हैं कि एक बड़ा तबका वोटों की दुनिया से आज भी बहुत दूर है।
अधिकांश लोगों को तो शायद मालूम भी नहीं कि संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन भला क्या बला है। वो कहां जानते हैं विभिन्न न्यूज़ चैनलों पर चल रहे बहसबाजी को? दिन भर की मेहनत मज़दूरी के बाद जब थक कर चूर हो कर घर आते हैं तो उनके लिए मनोरंजन के मायने बिल्कुल बदले बदले से होते हैं। कहां वो ड्राइंग रूम में बैठकर राजनीति पर चर्चा करते हैं? उनके मुताबिक राजनीति और राजनेता बस उतना ही मायने रखते हैं कि उन्हें दो जून की रोटी मयस्सर हो सके। उनके लिए तो जीवन-मरण, बीमारी-सीमारी सभी भगवान की देन हैं। परिवार में जन्म होने पर उनकी खुशी इस बात को लेकर होती है कि चलो कमाने वाले दो हाथ और बढ़ गए। उनकी जद्दोजहद कल के खाने को लेकर होती है। परिवार या पहचान में मृत्यु होने पर कहां शोक मना पाते हैं बेचारे?
परम्पराएं और रीति रिवाज जब दाल रोटी से उपर उठें तब तो सोचें। क्या चुनाव, क्या चुनावी प्रचार और क्या मतदान का दिन? उनके लिए सब दिन एक बराबर। उन्हें चुनाव के दांव पेंच तो क्या, वो तो बेचारे उम्मीदवार को भी नहीं जानते हैं। उम्मीदवारों के प्रतिनिधि आते हैं, उन्हें सब्ज़ बाग दिखाकर वोट ले जाते हैं। और उन्हें अपने अहमियत का पता भी कहां चल पाता है?
राजनीति मतलब नीति के साथ शासन करना। पर क्या ये नीतियां आम आदमी को कभी ख़ास बना पायीं हैं? आम आदमी के वश में कहां है शासन करना? दाल रोटी की जद्दोजहद से ऊपर उठे तब तो बाकी के बारे में सोचें। रोज कमाकर खाने भर के लिए भी पैसे नहीं जूटा पाते हैं। उनके लिए कहां चुनाव और चुनावी प्रक्रिया? एक आम आदमी तो मतदान के दिन बस अपनी संवैधानिक अधिकार का निर्वहन भर करता है। मतदान के दिन छुट्टियां रहती हैं, पर वो तो बेचारे यह सोचकर चिंतित रहते हैं कि आज के भोजन का जुगाड़ कैसे हो। जिस किसी ने उनके उस दिन के भोजन के साथ दारु का भी बढ़िया जुगाड़ कर दिया, हथेली पर चंद सिक्के रख दिए, बस उनकी सारी संवैधानिक जिम्मेवारियां उनके साथ पूरी हो गई। जिंदगी की जद्दोजहद में ये बेचारे लोकतंत्र के महायज्ञ के अंजाम से बिल्कुल अनजान और बेखबर!
बेचारा मजबूत लोकतंत्र !
Bilkul sahi beyan Kiya hai Manu aaj bhi bahut sare voters ko candidate k bare m pata nhi hota hai wo to sirf chunav chinh dekh kar vote kar dete hain voting k pahle jis ne bhi paise /Nasha ka intezam Kiya usi ko apna vote dal jate hain