रविवारीय
– मनीश वर्मा ‘मनु’
मोबाइल फ़ोन के युग में अधिकांश हिस्सा तो मुंह और कान के बीच ही गुजरता है
चलो फ़ोन रखो। गाड़ी स्टेशन पर लग रही है। सेटल हो कर बात करता हूं। यह कह कर उसने फोन बंद कर दिया। गाड़ी के स्टेशन पर लगते ही आपाधापी के बीच अपना कोच ढूंढ कर फ़ोन पर आए संदेश के मुताबिक अपने बर्थ के नीचे सामान को सुरक्षित रख उसने फिर से फ़ोन मिलाया। हां, अब कहो सेटल हो चुके हैं । गाड़ी खुलने में अभी थोड़ी देर है। हां, अभी बर्थ पूरी भरी नहीं है। लोग बाग अभी आ ही रहे हैं। कुछ इस तरह से बातों का सिलसिला जारी था। पल-पल की खबरें सुनाई जा रही थी उधर से भी सवालों का दौर जारी था। हालांकि अभी तो घर से आए हुए महज एक घंटा भी नहीं हुआ था। हम सभी अधीर हो चलें हैं। धैर्य ख़त्म होता जा रहा है। तभी ट्रेन ने लंबी सीटी दी। ट्रेन अब खुलने को थी। पब्लिक ऐड्रेस सिस्टम पर भी ट्रेन के खुलने की सूचना दी जा चुकी थी । फ़ोन पर सारी बातें शेयर की जा रही थी । रात के लगभग 9:00 बज रहे थे। बातों का सिलसिला अनवरत जारी था। खाना खा लिए से लेकर बोगी में बैठे लोगों तक के बारे में। अब नींद आ रही थी। सुबह फ़ोन की घंटी से ही नींद टूटी। तब तक चाय वाले ने भी आवाज दे दी थी। अपना स्टेशन भी अब आने को था। खेत खलिहान पीछे छूट गए थे। शहर दिखाई देने लगा था।
हम लोगों ने बदलाव का लगभग सभी दौर देख लिया है
ख़ैर! ट्रेन भी वहीं खत्म होती थी। उतरने में आपाधापी की गुंजाइश नहीं थी। लोगों ने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया था । मैंने कहा चलो अब घर पहुंच कर फ़ोन करते हैं। आधे घंटे में पहुंच ही जाएंगे।
पटना से चलने के बाद दिल्ली पहुंचने तक कहीं ऐसा नहीं लगा कि हम एक दूसरे के साथ नहीं हैं। यह संभव हो सका आज के मोबाइल के युग की वजह से। क्या बच्चे, क्या युवा, क्या बुजुर्ग सभी इसके शिकार हैं।
अब थोड़ा पीछे चलते हैं। वैसे भी हम लोगों ने बदलाव का लगभग सभी दौर देख लिया है। इसे किस्मत कहें या फिर बदकिस्मती। बदलाव के वाहक तो नहीं रहे हैं पर बदलते हुए दौर को हमने देखा है। देखा है, अपने सामने मौसम की तरह परिवेश को बदलते हुए। सामंजस्य बड़ी मुश्किल से बैठा पा रहे हैं।
जब हर अक्षर, हर शब्द की कीमत थी
पता नहीं कहां से कहां पहुंच गए। थोड़े ही समय पहले की तो बात है। मोबाइल फ़ोन तब नहीं हुआ करता था। फ़ोन भी तो हर घर में नहीं हुआ करता था। पीसीओ ही एकमात्र सहारा हुआ करता था। आपातकाल में तो टेलीग्राम सेवा थी। अब बंद हो चुकी है। प्रासंगिकता शायद खत्म हो गई थी। बंद करना पड़ा। बच्चों ने तो सिर्फ नाम ही सुना होगा । हर अक्षर, हर शब्द की कीमत थी। तभी तो उस वक्त हम सभी बातचीत तोल मोल कर करते थे। पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र का जमाना था । उसी दौर में हम लोगों ने उठना, चलना और दौड़ना सीखा था। अब तो सब कुछ धीरे-धीरे पीछे छूटता जा रहा है। ट्रेनें तब भी थीं, सफर तब भी तय करते थे। तब चाय वाले की आवाज से नींद टूटती थी। अब सुबह-सुबह किसी अपनों के फ़ोन से नींद टूटती है। गंतव्य पर पहुंचने की खबर जरूरत के मुताबिक तार से या पोस्टकार्ड/ अंतर्देशीय पत्र से या फ़िर पी सी ओ जाकर फ़ोन से दी जाती थी। कोई परेशानी नहीं, कोई शिकवा शिकायत नहीं।
आज के दौर जैसी घबराहट तब कहां? आज तो घर से निकल दिल्ली जाने के 12 से 14 घंटे के सफर का अधिकांश हिस्सा तो मुंह और कान के बीच ही गुजरता है, जो पहले आमने-सामने के बर्थ पर बैठे लोगों से बातचीत करने, ज्वलंत और समसामयिक विषयों पर बहस करने में गुजरा करता था। और कुछ नहीं, तो फिर अगर दिन हुआ तो खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने या फिर उपन्यास पढ़ने में गुज़र जाया करता था। जिंदगी जीने और समाज में लोगों को देखने का नजरिया ही कुछ और था। सोच में एक दृष्टिकोण, एक व्यापकता और कह सकते हैं परिपक्वता थी । प्रतीक्षा सूची में टिकट वाले भी बड़ी सहजता से अपना सफ़र तय कर लेते थे। आज तो खैर व्यवस्था ही कुछ ऐसी हो गई है कि प्रतीक्षा सूची वाले बोगी में चढ़ते ही नहीं हैं। और अगर कहीं गलती से या मज़बूरी में कहीं चढ़ गए तो भाई साहब लोगों को ऐसा लगता है कि कोई गुनहगार उनके बीच आ गया हो।
आज हम कहते हैं कि सामाजिकता कहीं खो सी गई है। कहीं नहीं खोई है, हमने उसे अपने रास्ते से हटा दिया है। आत्ममंथन करें हम सभी। हमने और हमारी पीढ़ी ने बदलाव जरूर देखा है, पर खुद को बदलाव के साथ नहीं बदल पाए हैं। देखिए अगली पीढ़ी इसे कहां और किस तरह से लेकर जाती है।
वर्तमान संदर्भ में दैनिक जीवन के ऊपर आपका यह आलेख अद्भुत
Bahut badhiya aur yatharthparak lekh hai. Saadhuwaad!
Nice description of change of time.
बहुत बढ़िया
चलचित्र की तरह वर्णन
इस “रविवारीय” का अंतिम पारा हमसब को एक चिन्तनीय मोड पर छोड़ आती है और एक प्रश्नवाचक चिह्न हमारे अन्तर्मन पर लगा जा रही है ।
हम ही लोगों ने अच्छे और सामाजिक माहौल से खुद को निकाल कर एकाकी व्यवस्था में कैद कर लिया है । बीमार खुद के कारण हुए है और इलाज भी खुद ही को करना है । हम बीमार हो गए है ..खुद में खो गए है , यह आप जैसे लोगों के द्वारा कुरेदने पर शायद समझ पा रहे है । इस बात का अहसास करवाते रहे..शायद फिर सामाजिकता भाईचारा अपनापन का दौर शुरू हो जाये ।
अच्छे लेखनी के लिए बधाई भईया ।
ढेरों शुभकामनाएं सहित
बढ़िया आलेख। सांस्कृतिक परिवर्तन का एक दौर हमारी पीढ़ी ने अपनी आंखों के सामने घटते देखा। पहले व्यक्ति वस्तु पर प्रभाव डालते थे अब वस्तु व्यक्ति पर डालते हैं। यही परिवर्तन है और परिवर्तन ही नियम है। शुभकामनाएं। ऐसे ही लिखते रहें।