रविवारीय: चहुं दिस में बह रही है चुनावी बयार
चुनाव का मौसम है और चुनावी बयार चहुं दिस में बह रही है। क्या उम्मीदवार क्या आम आदमी! सभी चुनावी मैदान में कूद पड़े हैं। भारतीय लोकतंत्र की यही तो खासियत है।किंतु कितने धीरे से बदलाव आ रहा है, हम इसे समझ ही नहीं पा रहे हैं। वक्त ने हौले से करवट ले लिया है। समझने की कोशिश करें।पहले जो बातें जो चीजें चौक चौराहों, गली मुहल्ले, पान और चाय की दूकानों पर हुआ करती थीं उनका स्थान आज व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर सहित तमाम सोशल मीडिया ने लिया है। बदलाव का एक दौर यह भी है।
आज भी हर गली मुहल्ले और चौराहों पर आपको चुनावी विश्लेषण करते हुए लोग मिल जाएंगे। मतदान का प्रतिशत भले ही कम हो, क्या फर्क पड़ता है, पर पान और चाय की दूकानों पर पान की गिलौरियां मुंह में दबाए हुए कुछ लोग, तो कुछ चाय की घूंटों के बीच जोर शोर से चुनावी विश्लेषण में लगे हुए हैं। ऐसा लगता है मानों सरकार तो यहीं ही बननी है। आज सरकार बना कर ही हम दम लेंगे।
हालांकि, सरकारी कार्यालयों में आप खुलकर चुनावी चर्चा नहीं कर सकते हैं, कहीं ना कहीं आप सरकारी नियमों और कानूनों से बंधे होते हैं, पर चर्चाएं यहां भी होती हैं। खेमों में बंट जाते हैं लोग इस बात से बिल्कुल ही बेखबर कि यह उनके वश का नहीं है। चुनाव खत्म होते ही सब कुछ खत्म। आपकी टिप्पणियां, आपकी चर्चाएं और आपके विश्लेषण सारे के सारे धरे रह जाते हैं। आपने अपने संवैधानिक अधिकार का निर्वहन कर लिया, बस इतना ही काफी है आम लोगों के लिए। आपको इस बात पर फक्र होना चाहिए कि आपने अपनी पसंद की सरकार चुन दी।
पर अब वो बातें कहां जब गांव गांव, गली मुहल्ले में जाकर उम्मीदवार लोग एक दूसरे से मिल अपनी बातें रखते थे। बैलगाड़ियों और साइकिलों से गांव गांव जाकर एक दूसरे से मिल कर बातें रखीं जाती थीं। पर, अब तो हमारे कदम बड़ी बड़ी गाड़ियों से नीचे ही नहीं उतरते हैं। काले शीशे के अंदर से ही अब बातें होती हैं और उन गाड़ियों के काफिलों के पीछे उठते हुए धूल के गुबारों के बीच बहुत कुछ छूट और छिप जाता है।
पहले अपने प्रतिद्वंद्वियों से भी बड़ा ही भाईचारे का रिश्ता रहता था। एक दूसरे का सम्मान करते थे, पर अब जब चुनाव टी वी के डिबेटों में, व्हाट्सएप पर, फेसबुक पर और ट्विटर पर लड़ा जा रहा है तो एक अलग ही आयाम दिखता है। कल तक जिसे हम एक त्योहार के रूप में मनाते थे आज बिल्कुल सिमट सा गया है। वो महीनों तक गली मुहल्ले में उम्मीदवारों का माइक पर प्रचार। उम्मीदवारों और उनकी प्रचार गाड़ियों के पीछे पीछे चलता हुआ लोगों का हुजूम जैसे बीते दिनों की बातें हो गई हैं। लोगों को इंतजार रहता था बड़े नेताओं के आगमन का। उनके भाषणों को सुनने के लिए सभी दूर दूर से आते थे। मैदानों में जहां उनका भाषण होना होता था लोग घंटों मुंगफली तोड़ते हुए इंतज़ार करते थे। उन भाषणों के बाद ही समां बंधता था।
घोषणा पत्र तब भी जारी होता था और आज भी जारी होता है, पर तब आम आदमी को पता कहां चल पाता था? नेताओं के भाषण ही पार्टी के मुखपत्र और घोषणा पत्र हुआ करते थे। चौक चौराहों पर लोग बाग इकट्ठे होकर उन पर ही चर्चा किया करते थे। एक महापर्व सरीखा था पूरी चुनावी प्रक्रिया। वो बड़े बड़े बक्सों के साथ बैलेट पेपर का इधर से उधर जाना। चुनावी प्रक्रिया खत्म होने के बाद उनका निस्तारण सभी कुछ एक माहौल के तहत। मतगणना के दिन लोगों का स्थानीय न्यूज पेपर के दफ्तर के सामने घंटों खड़े रहकर रूझानों पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करना। क्या अजीब दौर था वो! बाद के दिनों में जब दूरदर्शन ने अपना दायरा बढ़ाया तब मतगणना के दौरान दूरदर्शन पर सिनेमा का प्रसारण। लोग दिनभर टी वी से चिपके रहते थे।
आज के बारे में क्या कहा जाए।? सब कुछ आपके सामने है। आपकी अंगुलियों के इशारे पर। अब हम एक दूसरे से रूबरू होकर लड़ते झगड़ते और मनुहार करते हुए बातें नहीं करते हैं। बातें तो हम अब भी करते हैं, पर पूरी तरह से आभासी। सालों से हम एक दूसरे से बातें कर रहे हैं, मित्र हैं हमारे वो, पर हम एक दूसरे को पहचानते ही नहीं है। मिलने पर हम एक दूसरे को सोशल मीडिया का हवाला देते हुए अपने मित्र पन का अहसास दिलाते हैं। सरकारें हम आज भी चुनते हैं, पर पहले वाली बात अब कहां। दोष हम अपने उपर लेते नहीं हैं, पर दोषी तो हम हैं फिर क्यूं ठिकरा दूसरों पर फोड़ते हैं।
उम्दा, बहुत अच्छा
Sahi baat abb election ka prachar social media ka hi rah gaya hai wo daur jab ek k baad dusri gadi dusri k baad teesri yani alag 2 candidate ka alag alag kafila yani village’s m Sara din chunav ki sargarmi lekin abb to electronic tarike se sara kaam ho Raha hai wo chunavi sargarmi kho si gayi hai