
रविवारीय: कैंटीन वाली चाय
दफ़्तर की शुरुआत ही चाय से होती है। चाय, वह भी कैंटीन वाली! पता नहीं, क्या नशा है इस कैंटीन वाली चाय में! बड़ी नशीली है यह कैंटीन वाली चाय। आपका दफ्तर आना उतना मायने नहीं रखता है जितना मायने यह रखता है कि आपने दफ्तर में कामकाज की शुरूआत कैंटीन की एक अदद चाय से की या नहीं।
एक बहुचर्चित गीत के बोल हैं – “नशा शराब में होती तो नाचती बोतल”। चाय के संदर्भ में यह बात अक्षरशः सत्य मालूम पड़ती है। नशा तो नशा है जनाब। किसी भी चीज़ का हो सकता है।
ख़ैर! हम बातें कर रहे हैं, कैंटीन वाली चाय की। उन्हें कहां मालूम कैंटीन की चाय के मज़े और स्वाद के बारे में जिन्होंने बंद कमरों में अपनी जिंदगी बितायी है। एक बड़े से कमरे में दो चार किताबें और एक बड़ी मेज के कोने कंप्यूटर और लैपटॉप के बीच छुप सा गया व्यक्ति। एक टेबल को बीच में रख उसे घेर कर बैठे सात आठ लोग। चुस्कियों का दौर चल रहा है। लोग आ रहे हैं और आस पास से कुर्सियां खींच बैठते हैं और हांक लगाते हैं – अरे भाई ज़रा जल्दी से एक चाय लाना और हां चीनी थोड़ा कम डालना ( आजकल लोग कुछ ज्यादा जागरूक हो गए हैं )। यहां केवल चाय पीना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि चाय के बहाने यह एक अनकही परंपरा का हिस्सा है। चाय के साथ होने वाली चर्चा और उसके बहाने मिलने वाली छोटी छोटी खुशियां जो कभी ख़त्म नहीं होती।
सन 2000 के फिल्म हर दिल जो प्यार करेगा के एक गाने के ये बोल- “एक गरम चाय की प्याली हो और उसको पिलाने वाली हो” – ऑफिस के माहौल में थोड़े फिट नहीं बैठते हैं पर कैंटीन में गरम चाय पिलाने वाले को भी हम तो दरकिनार नहीं कर सकते। हमारे ऑफिस लाइफ का वो एक अहम् हिस्सा बन गया है। जहां कैंटीन नहीं होती है वहां नुक्कड़ वाली चाय, ठाकुर की चाय या फिर…
एक चायवाला ही तो वो किरदार है जो सबकी पसंद जानता है, और ख़याल भी रखता है। किसे मीठी चाहिए, किसे फीकी चाहिए या फिर कड़क चाय मलाई मार कर। चाय की टपरी पर बैठा वो साथी जो हर वक्त तैयार रहता है बहस करने के लिए या फ़िर दफ्तर का वो व्यक्ति जिसे तलब की दरकार नहीं, बस चाय पीने का बहाना चाहिए।
मुझे याद है मेरे दफ़्तर के गेट पर एक बड़ा सा इमली का पेड़ हुआ करता था। विकास की ऐसी बयार आयी कि उसे वहां से हटा कर ही ले गई। एक पहचान था वो। जब भी किसी को ढूंढ़ो वो वहीं मिल जाया करता था। कुछ दिनों तक तो समझ में ही नहीं आया आखिर क्यों जिसे ढूंढ़ो वो इमली पेड़ के नीचे पाया जाता है? क्या अधिकारी क्या कर्मचारी! बस , उन्हें छोड़कर जिनकी दुनिया बंद कमरों के बीच सिमट सी गई है, पर क्या करें मजबूरी है।
खुले हवा में सांस लेना किसे पसंद नहीं। नज़रें कमजोर हो जाती हैं, दिवारों से बाहर जो नहीं देख पाते हैं। बहुत दिनों के बाद समझ में आया वो इमली का पेड़ और उससे जुड़ी हुई कथाएं। दरअसल, एक चायवाला था वहां पर। बोरियत कहें या फ़िर तलब। इमली के पेड़ के आसपास का क्षेत्र हमेशा गुलज़ार रहता था। लोगों से बात करने पर पता चलता था कब उनकी बोरियत तलब में तब्दील हो गई उन्हें पता ही नहीं चला। अड्डे पर नहीं जाने पर महसूस होता है कि आप कुछ खो रहे हैं।
डाक्टर ने मना कर रखा है चाय पीने को। पत्नी हिदायतें देकर, क़सम खिलाकर दफ्तर भेज रहीं हैं, पर यह मुआ दिल मानता कहां है? अपने आप को अपनी नज़रों से छुपाते पहुंच ही जाता है अपने अड्डे पर। कैंटीन, इमली पेड़ के नीचे या फ़िर ऐसी ही कोई और जगह।
चलिए चलते चलते चाय के बारे में एक दो बातें और कर लेते हैं। सन् 1600 ईस्वी चाय भी लैंगिक भिन्नता की शिकार थी। युरोप में सिर्फ़ और सिर्फ़ पुरूषों को ही चाय सर्व किया जाता था। वो तो डच लोग थे जिन्होंने चाय में सबसे पहले दूध मिलायी। वरना आज़ जो हम आप शौक से काली चाय ही पी रहे होते!
ख़ैर! सबसे महत्वपूर्ण बात हमारी दार्जिलिंग चाय को पश्चिमी देशों में चाय का शैम्पेन कहा जाता है। हमें तो गर्व होना चाहिए।
यह ब्लॉग न केवल दफ्तर की कैंटीन वाली चाय की अहमियत को दर्शाता है, बल्कि भारतीय कार्य-संस्कृति में उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक भूमिका को भी गहराई से उकेरता है। श्री वर्मा जी ने जिस सूक्ष्मता से चाय के इर्द-गिर्द घूमती आदतों, संवादों और संबंधों की पड़ताल की है, वह एक गंभीर लेखकीय दृष्टि को दर्शाती है। चाय यहाँ केवल एक पेय नहीं है, बल्कि एक सेतु है — विचारों, अनुभवों और भावनाओं को जोड़ने वाला माध्यम। लेख में चाय को एक सामाजिक उत्प्रेरक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो सहकर्मियों के बीच की औपचारिक दूरी को कम कर, उन्हें एक सहज मानवीय धरातल पर ले आता है।
भाषा शैली सरल, प्रवाहमयी और आत्मीय है, जो पाठक को जोड़कर रखती है।
निष्कर्षतः यह ब्लॉग एक साधारण विषय को असाधारण संवेदनशीलता और साहित्यिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है।