रविवारीय: ब्रांड वैल्यू
चलिए आज़ रविवारीय चिन्तन में हम ब्रांड वैल्यू पर चिन्तन करते हैं। एक मल्टीनेशनल कंपनी है, नाम क्यों लिया जाए? यह एक जर्मन कंपनी है, जो गुणवत्ता पूर्ण जूते और चप्पलें बनाती है और लगभग ढाई सौ वर्षों से यह बाजार में अपने उत्पादों के साथ ससम्मान सहित स्थापित है। यह कंपनी अपने जूते और चप्पलें बनाने के लिए उच्च कोटि के कार्क, चमड़े और प्राकृतिक रबड़ का इस्तेमाल करती है। ऐसा गुगल बाबा ने बताया। पब्लिक डोमेन पर है, सही बताया होगा ऐसा मानने में कोई बुराई नहीं है। और वैसे भी मामला विदेशी है और हम ठहरे पूर्वांचली तो हमारे लिए तो आदरणीय है। लगभग चार साढ़े हजार रुपए से इसकी रबर के चप्पलों की रेंज शुरू होती है। कार्क और चमड़े के जूतों और सैंडलों के लिए तो आपको कम से कम आठ हजार और उससे भी कहीं ज्यादा रुपए खर्चने पड़ सकते हैं। इनकी अपनी एक ब्रांड वैल्यू है। विश्व के तमाम बड़े शहरों में इनके शोरूम हैं। भारत में भी हाल फिलहाल में इन्होंने अपने कई शोरूम खोलें हैं जो यहां के बड़े शहरों में हैं।
हालिया दिनों में हमारे देश में एक नया मध्यम वर्ग उभर कर सामने आया है जो ब्रांड का दिवाना है। अपनी हैसियत के अनुसार वो किसी भी चीज में ब्रांड से नीचे उतर कर बात करना अपनी तौहीन समझता है। कंपनियां आपकी इस मनोदशा को बखूबी समझती है और भुनाती भी है, तो भाई यह कंपनी क्यों पीछे रहे।
बाजारवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है यह। जहां के अधिकांश लोग अपने आप को बाटा, हालांकि यह भी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी है पर सदियों से हमारे लोगों ने इसे अपना मान रखा है, के हवाई चप्पल, जुबली ब्रांड के चमड़े के चप्पल और बाटा के जूतों तक ही सीमित रखे हुए थे उनके लिए बड़ा ही मुश्किल है अचानक से उधर का रुख करना, पर अति आक्रामक मार्केटिंग ने उन्हें इस तरह से वशीभूत कर दिया कि वो इधर उधर से काट कूटकर, बस इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खेमें में खिंचें चले आते हैं।
भारतीय बाजार में एक ब्रांड है ‘टाटा’ । टाटा ने भारतीय बाजार में अपनी ब्रांडिंग इस प्रकार से की है कि भारतीय लोग इसे अपनी कंपनी मानते हैं। उन्हें लगता है कि वाकई में टाटा हमारे लिए हमारे जरूरत का सामान बनाती है। कहीं ना कहीं इस बात में दम भी है। कहा जाता है जब टाटा ने बाइक पर सवार एक परिवार को सड़कों पर भींगते हुए जाते देखा तो उन्होंने इस तरह के लोगों के लिए ‘ नैनों ‘ को मार्केट में ला खड़ा किया। संभवतः यह पहली पूरी तरह से हमारे देश में निर्मित पैसेंजर कार थी। हमारे लोगों ने इसे हाथों हाथ लिया।
जब हमारे लोग गहनों के बाजार में दिग्भ्रमित थे तो उन्होंने तनिष्क को मार्केट में ला खड़ा किया। बाद में इस तर्ज पर हालांकि बहुत सी कंपनियां आयीं , पर टाटा भारतीय जनमानस के नज़र में टाटा आखिर टाटा ही है। मध्यमवर्ग को ध्यान में रखते हुए वेस्टसाइड को लाना हो या फिर बिल्कुल ही आम लोगों के लिए ज़ुदीओ को लाना हो। और हां टाटा अपने लिए इस बात को बड़ी ही प्रमुखता से लिखती भी है – प्राउडली मेड इन इंडिया।
हम वैसे भी बहुत ही संवेदनशील हैं।
खैर! हम कहां आ पहुंचे टाटा के पास! आखिर क्यों? टाटा ने अपने शोरूम के माध्यम से हू-ब-हू रबड़ से निर्मित ठीक उसी तरह के स्लीपर चप्पल को महज़ तीन सौ रूपए में उतार दिया। अब अगर आप ब्रांड वैल्यू के चक्कर में नहीं फंसे हैं तो टाटा ने आपके लिए एक विकल्प तो ला ही दिया है। टाटा तो फिर भी एक बड़ा ब्रांड है, एक कॉर्पोरेट हाउस है, अच्छी वस्तुएं बनाता है और अपने देश का ही है।
पर आज भी कच्छ, पंजाब और राजस्थान की जूतियों का कोई जवाब नहीं है।जूते-चप्पल बनाने वाले छोटे मोची क्या किसी से काम हैं? कोल्हापुरी चप्पलों का भी क्या है कोई जवाब? सस्ता, सुन्दर, टिकाऊ!
पर जूते चप्पल तो सिर्फ उदाहरण हैं। आज देश में कितने कुटीर उद्योग आपके इस ब्रांड प्रेम की वजह से मर रहे हैं। कभी सोचा है उनके बारे में?
आज ज़रुरत है कुछ मनन करने की बाजार और उससे उभर कर सामने आया बाजारवाद के बारे में। हम यहां अर्थशास्त्र की जटिलताओं के बारे में आपसे बातें नहीं कर रहे हैं।हम तो एक आदमी के नजरिए से आपके समक्ष अपनी बातों को रखते हुए थोड़ा अर्थशास्त्री बनने की कोशिश कर रहे हैं।
भारत आज बाजार बन कर उभरा एक विकासशील देश हैं। विश्व के विकसित देशों के लिए यह महज़ एक बाज़ार बनता जा रहा है। और हम हैं कि थोड़ा अलग दिखने के चक्कर में बिल्कुल ही अलग थलग पड़ते जा रहे हैं। ब्रांड वैल्यू के साथ ही साथ हमें वैल्यू फॉर मनी भी देखना चाहिए, पर हम सिर्फ और सिर्फ ब्रांड वैल्यू के चक्कर में ही अटके पड़े हैं। रही सही कसर कंपनियों की जो आक्रामक मार्केटिंग होती है वह हमारे, हमारे बच्चे के मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव डालती हैं कि हम तो बस सम्मोहित हो खींचे चले जाते हैं जहां कहीं भी वो हमें ले जाना चाहते हैं।
अस्वीकरण:- कृपया इसे किसी भी कंपनी का ना तो प्रचार समझें और ना ही दुष्प्रचार
Ji haan Manu aaj ka jamana to Brand ka hi hai log Brand k pichhe bhage chale jaa rahe hain companies bhi issi ka fayeda uthha Rahi hai Bata Jo ek jamane m sabhi ka status symbol hua karta thha aaj k jamane m koi khas value nhi hai
Bahut sahi bhaiya .. Brand ke chakkar mein hum yeah bhul jate hai ki humari savings chali gayi ..