रविवारीय: बिटिया के आखिरी शब्द
ये आखिरी शब्द थे उस बिटिया के जिसने अंतिम बार अपने मां – बाप को अपनी पीड़ा से रूबरू कराया- “मम्मी पापा ये मैं नहीं कर सकती जी। मैं हार चुकी हूँ और सबसे खराब बेटी हूँ। माफ करना मम्मी, पापा…यही आखिरी विकल्प है।” ।
उस बिटिया के मां – बाप ने बड़े अरमानों से अपनी बिटिया को इंजिनियर बनाने का सपना देखा था और उसे कोटा भेजा था कोचिंग में पढ़ने के लिए।
हम सभी जानते हैं कि कोटा आज के समय में कोचिंग कैपिटल है भारत का। शायद, कोई अतिशयोक्ति नहीं है अगर मैं कोटा को कोचिंग कैपिटल कह रहा हूँ।
मां-बाप अपनी हैसियत से बढ़कर अपने बच्चों को डाक्टर और इंजीनियर बनाने के लिए कोटा भेज रहें हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि कोटा रूपी फैक्ट्री में हम एक तरफ से बच्चों को डालेंगे और कुछ समय के बाद दूसरी ओर से वो डाक्टर और इंजीनियर बन कर बाहर निकलेंगे। बहुत बड़ा मायाजाल है यह। पुरी तरह से हम भ्रम में जी रहे हैं। सच्चाई से कोसों दूर, पर दुःख की बात तो यह है कि हम सच्चाई जानना भी नहीं चाहते हैं। हमारी आंखों पर पर्दा पड़ा हुआ है या यूं कहें डाल दिया गया है। हम बस वही देखते हैं जो हमें दिखाया जाता है।
हमने अपनी सोचने और समझने की शक्ति को खो दिया है। परिणाम हम सबके सामने है। आज किसी की बिटिया है। कल किसी का बेटा होगा। चक्र तो चल पड़ा है। किसे फर्क पड़ता है? किसी के चले जाने से क्या दुनिया रूक जाती है? बिल्कुल नहीं! पर, उस मां से पूछें जिसने अपनी बिटिया को खोया है। बाप तो बेचारा जी भर कर रो भी नहीं सकता है। क्या करे बेचारा। उसने तो समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए बच्चे को कोटा भेजा था। जो वो नहीं कर पाया उसने वही तो सपना देखा था। खुली आंखों का सपना।
कहीं ना कहीं हम भूल जाते हैं। भगवान ने हम सभी को विशेष बनाया है। हम अगर डाक्टर या इंजीनियर नहीं बन पाए तो क्या दुनिया ख़त्म हो जाएगी। दिल धड़कना छोड़ देगा? नहीं ना? तो फिर क्यूं हम अपने बच्चों से बातें नहीं करते हैं। क्यूं हम अपने अरमानों को, अपनी कुंठाओं को अपने बच्चों पर थोपते हैं। क्यूं नहीं एक बार ही सही हम उनसे पूछते हैं कि बताओ तुम्हें क्या पसंद है। बचपन में तो मां खाना खिलाने के लिए बच्चों से पूछती ही थी। क्या हम भूल सकते हैं यह सारी बातें।
ग़लती किसकी है? हम कहेंगे कोचिंग सेंटर वालों की। बिल्कुल नहीं ! सभी अपनी अपनी रोटी दाल की जुगत में लगे हुए हैं। क्यों उन्हें दोषी ठहराया जाए। प्रतिस्पर्धा के इस युग में कहां आप बहुत ज्यादा मानवीय संवेदनाओं की इच्छा रखते हैं?
बाजारवाद है और हम सभी इसके वाहक हैं चाहे और अनचाहे। बाजारवाद ने हम सभी को जकड़ रखा है। बस हम सभी भागते जा रहें हैं एक बड़ी भीड़ के पीछे। महज़ हम एक हिस्सा हैं उस भीड़ के जिसे बाजारवाद ने गढ़ा है हमारी कुंठाओं और अरमानों को हवा देने के लिए।
हम स्वीकार करें या ना करें कहीं ना कहीं हम मां बाप ही दोषी हैं। बस जरा अपने दिल की धड़कनों को तो सुनिए। अपनी कुंठाओं और अरमानों को हमने जबरन थोप दिया है अपने बच्चों पर उनकी इच्छाओं और रूचियों को जाने बिना। उनका बचपन छीन लिया है हमने। उन्हें एक चलता फिरता मशीन बना दिया है। अरे भाई! मशीनों को भी समय समय पर रख रखाव की जरूरत महसूस होती है, पर यहां हमने तो उन्हें बस झोंक दिया है बिना रख रखाव के मशीन की तरह। परिणाम हम सबके सामने है।
अब भी वक्त नहीं गुजरा है। सोचने समझने की कोशिश करें। कोई शेक्सपियर, आंइसटाईन, या पिकासो नहीं बनता अगर उनके मां बाप ने उन पर अपनी इच्छाओं को थोपा होता। अनगिनत उदाहरण हैं। बच्चों को उन्मुक्त होकर जीने दें। उन पर विश्वास करें। अपनी जिंदगी के बारे में उन्हें खुद सोचने का मौका दें और आप एक बेहतरीन गाइड की तरह बस उनके साथ रहें।
Bilkul sahi bat
Waqai aaj hm parents apni khwahish k anusar bachhon ko career banane ka pressure dete hain issi ka ye natiza hai hme chahiye bachhon ko unke anusar career select karne den