रविवार विशेष: पुनर्जीवित सभ्यता की सरिताएँ पार्बती और सैरनी
– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
पुनर्जीवित सभ्यता की सरिताएँ हैं पार्बती और सैरनी! पार्बती नदी और सैरनी नदी राजस्थान के करौली और धौलपुर जिले में बहती हैं। दोनों नदियां पहले शुद्ध सदानीरा बहती थीं । जब यह नदियां सूखी तो यहाँ की सभ्यताएँ भी बेपानी होकर मर गई थीं। तब पानी की कमी होने के कारण खेती भी नहीं हो पाती थी, लोग बेपानी होकर उजड़ने लगे थे। लाचार, बेकार और बीमार होकर फरार होने लगे थे। लेकिन मरता क्या नहीं करता! इसलिए बन्दूक़ उठाकर जो भी कुछ कर सके, करते रहे। यह पूरा क्षेत्र अन्न, जल और जलवायु परिवर्तन का संकट झेल रहा था। इस क्षेत्र में जीवन की कोई सुरक्षा बची नहीं थी। असुरक्षित जीवन उजड़ ही जाता है। इसलिए इस नदी के किनारों के लोग उजड़ गये थे।
नारी और नदी का गहरा सम्बन्ध है। जब नारियों ने नीर को बचाने का काम शुरू करवाया तो बन्दूक़धारी पुरुषों ने बन्दूक़ें छोड़कर, अपने-अपने खेतों में वर्षा जल का पानी पकड़ कर बचाना शुरू कर दिया। जब खेतों में पानी पकड़ना शुरू हुआ तो प्रकृति ने आनन्द ही आनन्द दे दिया है। प्रकृति और मानवता का आनन्द प्यार से होता हैं, प्यार से बना विश्वास आनन्द पैदा करता।
उजड़े हुए लोगों को वापस अपने घर बुलाने की शुरुआत यहाँ की महिलाओं ने की। उन्होंने बन्दूक़ धारी पुरुषों को, घर आकर पानी का काम करने के लिए प्रेरित किया। इस क्षेत्र की भगवती ने यह करिश्मा करके दिखाया। फिर तो लोग अपने आप जुटते चले गए।
भगवती ने अपने खेत पर पानी का काम करके, पहली फसल में सरसों बोई। उसकी आय से उसने अपने बन्दूक़धारी पति के लिए कपड़े खरीदे और पति की पूरी गैंग को बुला कर, उनके सामने उसे कपड़े भेंट किये। यह जगदीश बहुत नामी बाग़ी था, उसके ऊपर बहुत सारे केस थे। ये लोग डकैत नहीं थे, डकैत तो आजकल दिल्ली-मुम्बई में रहते हैं। ये तो बाग़ी हैं, इन्होंने अपने जीवन, जीविका और ज़मीर को बचाने के लिए हाथियार उठाए थे।
भगवती नाम की उस महिला ने जब अपने पति जगदीश को वस्त्र दिए, तभी से उसके पति ने हथियार छोड़ दिये और कहा कि लानत है इस बंदूक को जिसके कारण मुझे यह ज़िल्लत देखनी पड़ रही है कि मेरी पत्नी कपड़े लेकर आयी है। 12 साल हो गये मेरी शादी को, मैं आज तक इसे कुछ लाकर नहीं दे पाया। इसलिए अब मैं ऐसे हथियार नहीं चलाऊँगा, जो अपमान कराते है, और अपने व दूसरों के जीवन को त्रस्त बनाते हैं।
बन्दूक़ छोड़ने के बाद साथियों ने कहा कि हथियार छोड़ना आसान नहीं होता। यह सरकार हमें जीने नहीं देगी। इसलिए हथियार मत छोड़ो। इसने कहा कि बस आज छोड़ दिया तो दोबारा हाथ नहीं लगाऊँगा।
उसके बाद पुलिस और न्यायालय ने उदारतापूर्वक कहा कि जिस आदमी को पुलिस 12 साल से नहीं पकड़ पायी; उसने अपने हथियार छोड़कर पानी का काम किया है, इसलिए इसे माफ किया जाता है। सिर्फ़ 10-11 महीने तक जेल में रहा और वहाँ से रिहा होकर अब खेती करने लगा है।
ये उस दिन से इज्जतदार, ईमानदार बन गए और निर्भय होकर आनंद से जीने लगे हैं। आज जब इनसे बात करते हैं तो कहते हैं कि, अब तो जीवन में आनन्द ही आनन्द है। ऐसे ही लोग समृद्ध सभ्यता के प्रतीक होते हैं। जैसे ही इन्होंने बन्दूकें छोड़ीं तो इनके लिए सभ्यता और सम्मान दोनों वापिस लौटने लगे। यह वाकया बताता है कि, हम प्रकृति को पुनर्जीवित करके ,हम भी पुनर्जीवित होते हैं। दुनिया के बहुत सारे देशों को देखकर यह महसूस किया था कि, जब नदियाँ सूखती हैं, तो सभ्यताएँ भी सूख जाती हैं। यदि हम सभ्यताओं को आनन्द और समृद्धि में बदलना चाहते हैं, तो प्रकृति के पुनर्जनन का कार्य करना होगा।
जब नीर को नारी ने पकड़ना शुरू किया तो नदी बन गई। जब नदी बहने लगी, तो जो मौसम का मिजाज बिगड़ा हुआ था, वह गगन ने ठीक कर दिया। इससे धरती की वायु शुद्ध हो गई और धरती पर बहने वाली नदी शुद्ध अविरल सदानीरा बनी। जिससे चारों तरफ अन्न, जल ,वायु की सुरक्षा सुनिश्चित होने लगी और इससे आपस में प्रेम, विश्वास, श्रद्धा, निष्ठा और भक्ति ने जन्म लिया। इसके कारण इस भू क्षेत्र पर फिर से आनन्द ही आनन्द होने लगा, यह आनन्द ही उत्तम मनुष्य बनाता है।
यह हम सभी जानते हैं कि दुनिया की सारी सभ्यताएँ सरिताओं के किनारे बनती और बसती हैं। मिटती भी सरिताओं के साथ ही हैं। सैरनी नदी ने सभ्यताओं के मिटने से पहले अपने आपको पुनर्जीवित कर लिया। जब यहाँ का समाज उजड़ गया था, तब पहले सरिता सूखी फिर, समाज सूखा। अब सरिता पुनर्जीवित हुई, तो उसने अपने समाज को भी पुनर्जीवित कर लिया। यह बात हम भूल जाते हैं कि, मनुष्य जिन पंचमहाभूतों और प्रकृति से निर्मित हुआ है, उनके प्रति प्यार और विश्वास मिटने से ही सरिताएँ सूखती हैं।इनके प्रति मानवीय प्यार बढ़ने से सरिताओं के पुनर्जीवित होने की प्रक्रिया आरम्भ होती है।
हम जानते हैं कि, सर्व शक्तिमान भगवान एक ही होता है, परम परमात्मा। पंचमहाभूतों के योग से निर्मित भगवान की आत्मा ही परम आत्मा होती है। यही आत्मा एकमात्र सर्वशक्तिमान परमात्मा होती है। उसके बाद के सभी अंश अवतार होते रहते हैं। ये युग प्रवर्तक होते हैं, ऐसे लोग प्रकृति का सम्मान करते हैं, जैसे- भारत में राम, कृष्ण आदि। ये ऐसे अवतार हैं, जो सुखाड़ और बाढ़ जैसे संकटों से मानवता को बचाते हैं और रावण और कंस जैसी राक्षसी प्रवत्ति से लड़कर, उन्हे मिटाते हैं।
सर्वशक्तिमान हम प्रकृति को कहते है, इस शक्ति से ही यह ब्रह्माण्ड बनता है। भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर यह परमशक्ति है, जो भगवान को बनाती है। जब इंसान इन परम शक्ति के रक्षण-संरक्षण में जुट जाता है, तो उसे ही हम अवतार कहते हैं। सभ्यताएँ भी इन्हीं परम् तत्त्वों के योग से निर्मित अवतारों के साथ जुड़ने लगती हैं। सभ्यताएँ और संस्कृति नई बनने लगती हैं।
अभी हम सभ्यताओं की आंधी दौड़, लालची विकास और भौतिक बनावट में सरिता और अपनी की सेहत के संबंधों को भूल गए हैं। जब प्रकृति में मानवता को अपने ऊपर टिकाए रखने की क्षमता नहीं बचती, तब विनाश का दौर शुरू होता है। इससे बचने के लिए हमें यह बात ध्यान में रखनी होगी कि, यदि हम सभ्यताओं को जीवित रखना चाहते हैं, तो सरिता के साथ जोड़कर ,सभ्यता का ध्यान रखें। जब भी सरिता का प्रवाह सूखता हैं, तो फिर सभ्यताओं का बचना सम्भव नही होता है। इसलिए हमे पार्बती-सैरनी नदी से सीख लेनी चाहिए।
पार्बती नदी औरसैरनी नदी को अरवरी नदी से सीख मिली थी। अरवरी नदी अलवर जिले की थानाग़ाज़ी तहसील के भाँवता-काल्याळा, सेवा का गुवाड़ा व प्रतापगढ़ गाँवों से आरम्भ होती है। जब यह नदी सूख गई थी, तो लोग उजड़ गए थे। फिर तरुण भारत संघ ने काम शुरू किया, तो नदी पुनर्जीवित होने लगी। यहाँ की महिला मनभर, रामा, आदि ने बहुत साथ दिया। ये विश्वास के साथ काम में आगे बढ़ी और नदी परिवार को आगे जुटाया।
ऐसे बहुत लोग थे, जिनकी झोपड़ी में बैठकर, काम किया और अरवरी की सभ्यता पुनर्जीवित हुई। यहाँ काम की शुरूआत में युवा लोग नही थे, सिर्फ बुजुर्ग लोग ही थे। ये लोग मिट्टी, हवा, पानी के साथ जुड़े हुए थे, जो अपने परम प्राकृतिक भगवान को जानते-पहचानते थे। ये लोग जल्दी ही नदी को पुनर्जीवित करने में जुट गए थे। फिर धीरे-धीरे युवा भी आगे आने लगे। इसी तरह से सरसा, भगाणी, जहाजवाली नदी में भी काम हुआ था। जब ये नदियाँ बहने लगीं, तो समाज पुनः जाग्रत होकर, पुनर्जीवित हुआ। आज इसका प्रभाव नदियों में जमीन के अंदर दिखता है। धरती के ऊपर थोड़़ा कम होने लगा है, भूजल पुनर्भरण की जगह, भूजल का शोषण बढ़ गया है। फिर भी धरती पर कहीं कहीं नदी में प्रवाह देखने को मिल जाता है। नदी नीचे से प्रवाहमान है, इसलिए इस इलाके में अटूट खेती हो रही है। इस काम की शुरुआत राजस्थान से हुई, अब यह काम विविध स्थानों पर होने लगा है। महाराष्ट्र में अग्रणी और महाकाली नदियाँ आज भी शुद्ध सदानीरा होकर बह रही हैं। लेकिन इनमें कृष्णा नदी का पानी भी आता है, क्योंकि इस इलाके में भी बहुत खेती है। महाराष्ट्र में गन्ने की खेती ज्यादा होने के कारण, भूजल नीचे जा रहा है। इसी तरह कर्नाटक में ईच्चनहल्ला नदी को पुनर्जीवित किया है। ईचनहल्ला में गन्ना नही होता, इसलिए वह अपने वर्षा जल से बह रहा है। इस क्षेत्र में ज्वार, तिल आदि मूल अनाज पैदा होते हैं, इसलिए यहाँ नदी भी बह रही है और अनाज का उत्पादन भी हो रहा है।
भारत सरकार और संयुक्त राष्ट्र संघ ने मूल अनाज वर्ष अब घोषित किया है जबकि भारत की सभ्यता को और सरिता को जोड़कर रखने वाले मूल अनाज सदियों से पैदा होते थे। आज हम सरिता, सभ्यता और मानवीय स्वास्थ्य के सम्बन्धों को जहाँ-जहाँ भूल रहे हैं, वहाँ-वहाँ सभ्यताएँ और सरिताएँ सूख कर मर रही हैं। जहाँ-जहाँ पर लोगों ने इन्हें पुनः याद किया, जैसे राजस्थान की पार्बती-सैरनी, कर्नाटक की ईच्चनहल्ला, महाराष्ट्र की अग्रणी नदी आदि, वहाँ-वहाँ पुनः सभ्यता की सरिताएँ भी पुनर्जीवित हो रही हैं।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विश्व विख्यात जल संरक्षक हैं।