माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्याः – मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ और पृथ्वी मेरी माता है। ऐसा यह मातृस्थान, अधिष्ठान हमें मिला है। पृथ्वी के लिए संस्कृत में अनेक शब्द हैं। ‘पृथ्वी’ यानी फैली हुई। ‘धरा’ यानी धारण करने वाली । ‘भूमि’ यानी तरह-तरह के पदार्थों को जन्म देने वाली । ‘गुर्वी’ यानी भारी वजनदार। ‘उर्वी’ यानी विशाल। ‘क्षमा’ यानी सहन करने वाली। यह सारी पृथ्वी अहिंसा का उत्तम आदर्श पेश करती है।
हम रोज पृथ्वी को तारण करते हैं, खोदते हैं, पीड़ा देते हैं। पृथ्वी न सिर्फ क्षमा करती है, बल्कि पोषण ही देती है। वह ‘पूषा’ है। पूषा यानी पोषण करने वाली, अहिंसा के लिए आदर्श-मूर्ति, ध्यानमूर्ति पृथ्वी है। इस तरह एक-एक शब्द एक-एक गुणवाचक है। हर एक शब्द के साथ उसका एक-एक गुण ध्यान में आता है। परमेश्वर के कौन-कौन से गुण पृथ्वी में प्रकट हुए हैं? उन गुणों को देखकर एक-एक नाम दिये हैं। उसे हम ग्रहण करें।
वेद में एक मंत्र है, ‘पृथ्वी हमारे लिए सुखकारक बने, निष्कंटक बने, निःस्वप्न निद्रा दिलानेवाली बने और हमारे विशाल मंदिर की भी रक्षा करे।’ इसमें ऋषि अपने छोटे घर के लिए रक्षण नहीं मांग रहा है, वह अपने घर को ही विशाल मान रहा है। खुले आकाश के नीचे बैठकर वह पृथ्वी की प्रार्थना कर रहा है-विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे – हे पृथ्वीमाता! हमारे पादस्पर्श को क्षमा करे । इसमें भी पूरी धरती की वंदना है। वंदना उस धरती की नहीं, जिसके पालनकर्ता अकबर, श्रीहर्ष या नेपोलियन थे, बल्कि उस धरती की है, जिसके पालक विष्णु हैं।
वेद में कहीं भी भारत की स्तुति नहीं है, बल्कि पृथ्वी की ही स्तुति है। नानाधर्माणां पृथिवीं विवाचसम्। इसका भावार्थ है ‘हे पृथ्वीमाता! तू अनेक धर्मों से संपन्न है, अनेक भावों से संपन्न है, तुझमें भिन्न-भिन्न वाणियां हैं, ऐसी तू हम लोगों की माता है, हम पर प्रसन्न हो ।’ नानाधर्माणाम् यानी जिसमें अनेक धर्म मौजूद हैं और विवाचसम् यानी जहां विविध वाणियां हैं। नानाधर्माणाम् कहने से हिंदू-मुस्लिम इत्यादि आज के अलग-अलग धर्मों की भावना नहीं है, लेकिन उस समय भिन्न- भिन्न प्रवृत्तियां चलती होंगी, अनेक प्रकृति के लोग होंगे, उनकी बात है। और विवाचसम् यानी विविध भाषाएं बोलने वाले लोग होंगे। यानी इस वैदिक भूमि में वेदकाल से ही अनेक धर्मों का समन्वय किया गया है। विचार में तनिक भी संकुचिता नहीं है। यहां के विचारवान और ज्ञानी लोगों ने कभी आप पर भेद नहीं रखा। यह सारी भूमि मेरी माता है और मैं उस भूमि का पुत्र हूं। बड़ा प्राणवान वाक्य है। भूमि हमारी माता है और हम सब पुत्रों को उसकी सेवा करने का मौका मिलना चाहिए। यह विचार सब धर्मों का है और साथ-साथ वेद का भी है।
वेद का और एक शब्द है, विश्वमानुषः। बल्कि, वसुधैव कुटुंबकम् कहा। कुटुंब नहीं, ‘कुटुंबकम’ । ‘कम्’ प्रत्यय लगाने से उसका अर्थ छोटा कुटुंब हुआ। यह सारी वसुधा एक छोटा कुटुंब है। सुझा यह रहे हैं कि, अनंत तारिकाएं हैं, अनेक ग्रह हैं, वैसे ही अनेक वसुधाएं हैं। इसलिए अपनी इस एक वसुधा को एक कर लेते हैं, तो यह नहीं माना जायेगा कि, बहुत बड़ा काम कर लिया। वेदांत कह रहा है कि, इस वसुधा को एक करेंगे तो वह एक छोटा कुटुंब होगा।
आज मानव के लिए सबसे खतरनाक कोई चीज है, तो वह है, उसका जमीन से उखड़ना। जैसे हर एक पेड़ का मूल जमीन में होता है, वैसे ही हर एक मनुष्य का संबंध जमीन के साथ होना चाहिए। मनुष्य को खेती से अलग करना माने पेड़ को जमीन से अलग करना ही है। हमने अखबार में पढ़ा कि, अमरीका में हर दस मनुष्यों में से एक मनुष्य दिमागी बीमारी से पीड़ित है। इसका कारण यही है कि वहां मनुष्य जमीन से उखड़ता जा रहा है। मेरा यह विचार है कि मनुष्य का जीवन जितना पूर्ण होगा, उतना ही वह सुखी होगा। भूमिसेवा पूर्ण जीवन का एक अनिवार्य अंग है। खेती से खुली हवा और सूर्यप्रकाश मिलता है, जिससे आरोग्यलाभ और मानसिक आनंद प्राप्त होता है, बुद्धि तीव्र होती है। अलावा, भक्ति का भी साधन है। जितने लोगों को पूर्ण जीवन का मौका मिलेगा, समाज में उतना ही समाधान और शांति रहेगी।
मेरा तो स्पष्ट मत है कि प्रकृति से जितने ही दूर हम होते जायेंगे, उतने ही शारीरिक दृष्टि से पंगु होते जायेंगे। एक प्राकृतिक चिकित्सा-विशेषज्ञ का मत है कि, बांस के फट्टों से बने मकान अधिक अच्छे हैं। क्योंकि उनके छिद्रों से ताजी हवा पूरे घर में आती और फैलती रहती है। बंबई, न्यूयार्क, लंदन जैसे शहरों में लोगों को ताजी हवा तक नहीं मिल पाती। मकान जितना ही हवादार होगा, उसका किराया उतना ही अधिक होगा। हम यहां जिस ताजी हवा का आनंद उठा रहे हैं, वह भी शहरों में महंगे दामों पर मिलती है। और यह इसलिए कि धरती से, प्रकृति से हम बिलग हो गये हैं। यह बिलगाव दूर कर हमें धरती से नाता जोड़ना चाहिए, धरती पर ही काम करना चाहिए। यही आदर्श हमें लाभ पहुंचा सकता है। आज डॉक्टर भी बढ़ते जा रहे हैं और रोग भी बढ़ते जा रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि रोग घटें तो डॉक्टर भी घटें। साफ बात है कि लोग प्रकृति से बिलग होते जा रहे हैं। प्रकृति हमारी माता है। उससे संपर्क जितना घटेगा, उतना ही यह शरीर विकृत होगा।
मैंने अपने जीवन में कृषि की उपासना की है। उस अनुभव के आधार पर मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूं कि, जीने का शुद्धतम साधन कृषि ही है। व्यापार में हम मुनाफाखोरी करके समाज का अहित करते हैं। नौकरी तो आत्मा की तेजस्विता को ही नष्ट करने वाली है। इसलिए इन दोनों का सहारा छोड़कर कृषि को आजीविका का साधन बनाना चाहिए। पर देश में उद्योग के बिना हमारा जीवन परिपूर्ण नहीं बनेगा। इसलिए कुछ लोग ग्रामोद्योग के आधार पर अपना जीवन चलायेंगे। पर उनके लिए भी थोड़ी देर भूमाता की सेवा आवश्यक है। क्योंकि नीति का अधिष्ठान खेती है।
इसलिए हमें गांव की रचना ऐसी करनी होगी, जिससे हरएक के पास कम से कम चौथाई एकड़ जमीन रहे। हर एक को दिन में दो-तीन घंटे खेत में काम करने का मौका मिलना चाहिए। फिर बचे हुए समय में वह दूसरे उद्योग करे। खेती बुनियादी सेवा है। खेत एक सुंदर उपासना-मंदिर, एक उत्तम ज्ञान मंदिर है।
मिट्टी का भी एक प्रकार का रंग होता है। रंग और मैल में फर्क है। मैल में जंतु होते हैं, पसीना होता है, उसकी बदबू आती है। मृत्तिका तो पुण्यगंध होती है। गीता में कहा है पुण्यो गंधः पृथिव्यां च। मिट्टी का ही शरीर है और मिट्टी में ही मिलनेवाला है। उसी मिट्टी का रंग किसान के कपड़े पर होता है। मिट्टी लगने से कपड़े खराब नहीं होते। मिट्टी का रंग गंदा नहीं होता, वह पवित्र है। शास्त्र में कहा है, मृज्जलाभ्यां बाह्यशुद्धिः। बाह्य शुद्धि पानी और मिट्टी से होती है और सत्यसंयमाभ्यां अंतः शुद्धिः– सत्य और संयम से अंतःशुद्धि होती है। इसलिए शरीर पर मिट्टी लगे तो अच्छा है। ऐसा होगा तो नौकरों की मुक्ति हो जायेगी और सच्चा स्वराज्य आयेगा।
कहते हैं कि आबादी बढ़ी तो जमीन पर भार बढ़ेगा। पर हमारा मानना है कि पृथ्वी को पाप का भार होता है, संख्या का नहीं। हम इसको ‘एक्सियमँटिक ट्रुथ’ (स्वयंसिद्ध सत्य) मानते हैं। मिट्टी में से जो चीज पैदा हुई, उसको धारण करने के लिए मिट्टी समर्थ है, बशर्ते कि पुण्य से रहें और उससे जितना लिया, उतना उसको वापस पहुंचायें । हड्डी, मलमूत्र, सूखे पत्ते, कचरा, सब उसको वापस देना चाहिए। इस प्रकार उसकी संपत्ति उसको वापस दे दें और संयम से रहें। मिट्टी सबको पोषण देगी, पोषण करेगी, अगर खेती की ओर ध्यान दिया जाये ।
हमें विश्वास होता है कि कृषि अपनी माता है, उसकी सेवा करेंगे, तो मातृसेवा से संतान पवित्र होगी। वेद में मंत्र है विप्रासो न मन्मभिः स्वाध्यः । क्षतीनां न मर्या अरेपसः -ब्राह्मण होते हैं, वे अपने ध्यानयुक्त बनते हैं और भगवान के प्यारे होते हैं। और खेती में काम करते हैं, वे मजदूर हमेशा निर्दाष होते हैं।
उपासनापूर्वक, कुशलतापूर्वक, विज्ञान की मदद लेकर खेती की, तो खेती से ब्रह्मचर्य की भी प्रेरणा मिलेगी। श्रमनिष्ठा से मनुष्य को पर्याप्त आनंद प्राप्त होता है। पाया गया है कि, जिनके जीवन में दुःख ज्यादा और आनंद कम होता है, वहां संतति ज्यादा होती है। जिनके पास आनंद के लिए साधन हैं, उनको आनंद के लिए वासनामय नहीं होना पड़ता। खेती में शरीरश्रम से आनंद प्राप्त होता है, क्योंकि सृष्टि से संपर्क आता है। निसर्ग से संपर्क न रहा तो राष्ट्र क्षीण होगा। निसर्ग- संपर्क से चित्तशुद्धि होती है। चित्त उदार बनता है।
एक बार हम घूमने के लिए निकले। रास्ते में खेत थे। सुबह का समय था। फसल की रक्षा के लिए मचान बनी थी। उस पर किसान बैठा था। मैंने उससे कहा, ‘ये पक्षी फसल खा रहे हैं। तुम्हारा उधर ध्यान है या नहीं?’ वह बोला, भाई, यह रामप्रहर है। अभी तो भगवान सूर्यनारायण आ रहे हैं। थोडा सा खायेंगे, उसके बाद मैं उन्हें उड़ाऊंगा। उनका भी तो हक है। यह है भारतीय चित्त ! गांववालों का उदार दिल! उन्हीं पर भारत का सारा आधार है। खाने से पहले तुलसी के पौधे को पानी पिलाना चाहिए। और, गाय, कुत्ते के लिए खाना अलग निकालकर रखना चाहिए, यह भारतीय संस्कृति का विचार है। उसमें समाज के लिए कुछ न कुछ देने की बात है।
हमारी भावना है कि यह पृथ्वी परमेश्वर की बैठक है। मानवता को इस पृथ्वी के अलावा दूसरा कोई भी आधार नहीं है। इसलिए हमारी बिलकुल वैश्वानर वृत्ति होनी चाहिए। हमें विश्वमय मनुष्य बनना है। विज्ञानयुग का यह आवाहन है और आत्मज्ञान का यह आश्वासन है। विज्ञान और आत्मज्ञान, दोनों संकुचितता पर दोनों ओर से प्रहार कर रहे हैं। हम यह पहचान लें और विशाल दृष्टि कायम रखकर काम करें। फिर भले ही अपने घर का काम करें, या अपनी गली की सफाई करें या एकाध स्टेट भी चला लें, तो भी हर्ज नहीं। तभी हम टिक पायेंगे। हम ऐसी अनुभूति आने दें कि पृथ्वी पर जो भी मानव हैं वह मेरा ही रूप है और मैं उसका रूप हूँ। मनुष्य को देखते ही महसूस होना चाहिए कि मेरा आत्मा ही मुझे मिल रहा है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि, पृथ्वी का कम से कम दो सौ करोड़ साल पहले जन्म हुआ। और दो सौ करोड़ साल वह टिकेगी। फिर खतम होगी। उसके टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे। आकाश में टुकड़े घूमेंगे, फिर उनकी हवा बन जायेगी। सूर्य दिन-ब-दिन ठंडा हो रहा है। होते-होते इतना ठंडा होगा, जितनी पृथ्वी है। फिर उस पर प्राणी, मानव भी हो सकते हैं। फिर वह और ठंडा होते-होते पृथ्वी जैसा खतम होगा। दुनिया में एक भी पदार्थ मिला नहीं, जो बना ही बना रहा है। जो बना सो नष्ट होता ही है। ऐसे देखा जाये, तो यह वर्तुलाकार है। वर्तुल का आदि कहां है और अंत कहा है, कहना मुश्किल है। इसलिए समझना चाहिए कि, जो अनंत परमेश्वर है, उसको आदि नहीं, वह अनादि है। उसी की लीला चल रही है।
भारतीय वेदों और वैज्ञानिकों के मतानुसार 4.5 अरब वर्ष पूर्व जल ने पृथ्वी की निर्माण प्रक्रिया शुरू की थी। पृथ्वी का आकार बदलता रहा है लेकिन पृथ्वी का निर्माण शुरू होने के बाद, इस पर जीवन आया। जीवन की प्रक्रिया पानी से आरंभ होकर, मिट्टी जीवन को निर्मित करती है और हवा जीवन को चलाने में योगदान देती है, सूरज की ऊर्जा उसको बनाकर सदैव जीवित रखते हुए मदद करती है।
पृथ्वी निर्माण की प्रक्रिया है। केवल पृथ्वी दिवस मनाने से पूरा नहीं होगा बल्कि हमें अपने पूरे भगवान (भ – भूमि, ग – गगन, व – वायु, अ- अग्नि, न – नीर)को समझना होगा। इनको समझकर, इनके साथ भगवान जैसा सम्मान व्यवहार और सदाचार करेंगे, तब हम 21वीं शताब्दी में भी पृथ्वी दिवस मनाने का औचित्य पूरा कर सकेंगे। पृथ्वी दिवस केवल एक दिन मनाने का उत्सव नहीं है, पृथ्वी दिवस तो प्रतिक्षण मनाने का दिवस है। पृथ्वी दिवस पर हमें पृथ्वी की निर्माण प्रक्रिया और हमारे जीवन के निर्माण की प्रक्रिया दोनों के रिश्तों को समझकर, उनके साथ सम्मान से जीने और प्रेम की प्रक्रिया दोनों के बीच बनाए रखना है। यह मानवीय कर्तव्य है, जब मानव उसे कर्तव्य को पूरा करेगा तब हम विश्व पृथ्वी दिवस मनाने का सपना साकार कर सकेंगे।
मैं जानता हूँ कि, संयुक्त राष्ट्र संघ ऐसे दिवस घोषित करता ही रहता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने बहुत फैशनेबल तरीके से यह विश्व दिवस मनाने की प्रक्रिया शुरू की है; पर हमें एक इंसान के नाते संयुक्त राष्ट्र से भी और गहरा, चिंतन मनन करके इस दिवस को मानना है। हमारे मन में वास्तविक भगवान अपना कर शुरू करेंगे तो हमारा पृथ्वी दिवस मनाने का सपना साकार होगा।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं