– (पद्म भूषण) डॉ. अनिल प्रकाश जोशी*
फाइनेंसियल राजधानी मुम्बई से इकोलॉजिकल राजधानी उत्तराखंड तक की हमारी यह साइकिल यात्रा प्रकृति के लिए लोगों को एक साथ जोड़ने की यात्रा है। सभी वर्ग की भागीदारी जुटाने की पहल है। 2अक्टूबर से 9 नवम्बर, 2022, तक ये समुद्र से हिमालय तक के लोगों को जोड़ने और जुटाने की मुहिम है। आर्थिकी से लेकर पारिस्थितिकी के सन्तुलन की यात्रा है। प्रकृति व प्रभु के प्रति समान समझ बनाने की यह यात्रा कई तरह के सामूहिक सवालों और समाधानों के लिए है। मुंबई से देहरादून उत्तराखंड के लाखों लोगों की आवाज उठाने व बनाने का यह प्रयत्न है। जहां एक तरफ आमजन इसका हिस्सा बनें हैं, वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक, अभिनय या उद्योग घरानों की भागीदारी भी सुनिश्चित करने का प्रयत्न है। क्योंकि प्रकृति सबकी है इसलिए हर वर्ग को इसके प्रति कृतज्ञता भी जतानी है। ये यात्रा ऐसी ही कोशिशों का परिणाम हैं।
देश दुनिया आज एक बड़े बुरे दौर से गुजर रही है और इसके कई बड़े पहलू हैं। आधी से ज्यादा दुनिया शहरों में पहुंच गई और एक तरफ गांव खाली होते चले जा रहे हैं। इधर शहर फटने को है तो गांव को भूतहा बना दिया गया है। पहले शहर बड़े अच्छे लगते थे। पर अब धीरे-धीरे वह बुराइयों के गढ़ भी बनते चले जा रहे हैं।
किसी देश दुनिया की पूरी प्रगति अब लगता है शहरों पर केंद्रित नहीं हो सकती। पिछले 200 सालों में हमने इकोनामिक के नाम पर यही कुछ किया और ऐसा ही कुछ हमारे पल्ले पड़ा। हम जीडीपी के मारे अब भी सतर्क नहीं हो पा रहे हैं कि हमने हवा मिट्टी पानी सब खत्म कर दिया। आज नदियां सूखी है। समुद्र भी कई तरह के कूड़ा कबाड़ों के बीच में डूब गया और पहाड़ टूटने को है तो प्लास्टिक के पहाड़ों ने अब जगह बना ली है।
ऐसे में शायद एक बड़ी आवश्यकता इस बात को लेकर के हैं कि हम कहीं किसी न किसी रूप में कई अन्य तरह से फंसे हुए दिखाई देते हैं। मतलब बड़ा साफ है कि जीडीपी ने शायद हमारा सब कुछ ले लिया है। इस पूरी कहानी में हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हमें कई तरह के लाले पड़ने शुरू हो गए हैं। प्रकृति के संसाधनों का लेखा-जोखा, मिट्टी, पानी हमारे पास किसी भी रूप में नहीं रहा।
हम कहीं इस बात के लिए व्यथित हैं कि हम कितना जुटा पाए और कितना हमारे पल्ले पड़ा। हम पैसों से आर्थिकी की दुनिया में अपने लिए सुविधाएं या उससे जुड़ी हुई सुरक्षा जुटा सकते हैं। पर इन से निश्चित रूप से हम कभी भी अपनी जान नहीं बचा सकते। मतलब पिछले 200 वर्षों में दवाओं का जो एक नया दौर बढ़ चुका और एक से एक नई बीमारियों ने जिस तरह से हमको घेरा है, वह शायद इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि हम कहीं भटके हुए हैं। ज्यादा पीछे भी ना जाए, आज भी कोविड-19 का भय हमारे साथ बना हुआ है और शायद यही हमारी सबसे बड़ी इन 300 सालों की भूल भी रही कि हमने पारिस्थितिकी को नहीं समझा।
विकास के इस दौर में सुविधाओं से केंद्रित हमने भोगवादी सभ्यता के आगे प्रकृति को लील लिया और साथ में हमें भी चोट आई पर दुर्भाग्य यह था कि हम तब भी गंभीर न हो सके। आर्थिकी के साथ-साथ अगर हम पारिस्थितिकी का चिंतन भी करते या आर्थिकी पर जोर के साथ साथ पारिस्थितिकी का आकलन भी होता तो आज परिस्थितियां बदली हुई ना होती। मतलब जीडीपी के साथ जीईपी यानी ग्रॉस एनवायरमेंट प्रोडक्ट भी हमारी प्राथमिकता होती तो शायद हम जीडीपी से बेहतर जहान के साथ जीईपी से अपनी जान भी बचा लेते।
देश दुनिया को अकेली आर्थिकी ने हमेशा असमानता को ही जन्मा । हर जगह किसी न किसी रूप में आर्थिक असमानता परिलक्षित रही वहीँ प्रकृति ने कभी कोई भेदभाव नहीं किया। प्रकृति पेड़ पानी सबके साथ समभाव में रहे और रहेंगे भी इसीलिए शायद इन्हें बचाने के लिए हम सबकी ही भागीदारी जुटनी चाहिए ।अब समय आ चुका है, अब नहीं चेते तो फिर कभी नहीं चेतेंगें।इसीलिए आइए और इस साइकिल यात्रा की आवाज़ बन इसके साथ खड़े होइए।
*लेखक प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
No comment against good work/activity to save NATURE, WATER, EARTH& HUMANITY.