हरिद्वार: पर्यटन, तीर्थ दर्शन और प्रकृति का क्या है रिश्ता? हमें अपने जीवन को एक तीर्थ दर्शन के साथ आगे बढ़ाना है या पर्यटन दर्शन के साथ? 15-16 नवंबर 2023 को मातृ सदन, हरिद्वार में विश्व तीर्थ बचाओ अभियान दल में दुनिया के सभी महाद्वीपों से आए 12 देशों के प्रतिभागियों के समक्ष मैंने यह प्रश्न रखा।
अपनी विभिन्न मान्यताओं व परंपराओं के अनुसार मातृ सदन में इन विदेशियों ने भी गंगा की पूजा अर्चना की थी। कार्यक्रम के दौरान हुई वार्ता में यह प्रतिपादित हुआ कि दुनिया के विभिन्न देशों में पर्यावरण और नदियों को लेकर जो मान्यताएं हैं, उनमें बहुत समानता है। उनके द्वारा प्रकृति को समर्पित करते हुए जो कर्मकांड इत्यादि किये जाते हैं, उनमें भी भारतीय अध्यात्म की झलक और प्रकृति के प्रति प्रेम की एकरसता देखने को मिली। जिस प्रकार भारतीय परंपरा में वट, पीपल, बेलपत्र इत्यादि से भगवान की पूजा-अर्चना की जाती है, ठीक उसी प्रकार दक्षिण अमेरिका के एंडीज़ पर्वत से लाए गए कोका पौधे की पवित्र पत्तियों को एक टेनेन्टिन (एक विशेष कपड़ा) के अंदर लपेटा गया और सभी उपस्थितों द्वारा फूंक मारकर अपनी प्राणिक ऊर्जा को आपस में प्रसारित किया गया, जो औपचारिक रूप से यह निर्धारित करता है कि संपूर्ण विश्व एक प्राण से बना है, जो मानवता की एकता को दर्शाता है । इस अनुष्ठान के पश्चात् सभी नदियों के जल व इन वनस्पतियों को गंगा में प्रवाहित किया गया । मातृ सदन में बहती गंगा के सामने विश्व की कई पवित्र नदियों का जल एक बर्तन में लाया गया और उनमें गंगा जल मिलाया गया, जो इस बात का प्रतीक है कि सभी नदियों को गंगा का आशीर्वाद मिले और वे पुनर्जीवित हो जाएं।
तीर्थ दर्शन और पर्यटन दर्शन दोनों का अंतर समझना होगा। तीर्थ मानवीय आत्मा को ब्रह्म स्वरूप और ब्रह्मांड को एक मानकर कल्याण के लिए काम करती है। यह जीवन जब विश्व के कल्याण में रम जाता है, तब वह तीर्थ की स्थिति में पहुंच जाता है। जब हम अपने ऊपरी मन में केवल मनोरंजन बनाए रखते हैं, तो वह हमारे तीर्थ को पर्यटन में बदलने का दौर होता है। इसलिए हमें यह समझना है कि हम किसे पर्यटन और किसे तीर्थाटन कहते हैं।
भारतीय मानस में जब तक ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के चरण चलते थे, तब तक वह अपनी आस्था में प्रकृति का उतना ही सम्मान करता था, जितना वह अपने जीवन का करता था। भारतीय मनुष्य का मन, शरीर पवित्र तीर्थ था; उसी तरह पूरी प्रकृति भी पवित्र थी। लेकिन जैसे-जैसे मानवीय मन में लालच बढ़ा और भारतीय मानवीय मन भौतिक, लालची आर्थिक लाभ के लिए काम करते हुए हिंसा और अहिंसा को भूलता चला गया, तब से प्रकृति में क्षरण शुरू हुआ। इसके कारण व्यक्ति भयभीत होकर, खत्म होने के डर से संग्रह करने लगा। इस संग्रह के कारण ही हिंसा और अहिंसा का भाव बचा नहीं है।तीर्थाटन और पर्यटन के फर्क को हम अब नहीं समझते हैं।
मनुष्य ने अपना लालच पूरा करने के लिए जब से प्रकृति का नियंता बनने का भाव पैदा किया है। तभी से यह मानवीय लालच बढ़ता गया, इसके कारण ही प्रकृति का शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण तेज गति से बढ़ गया है। इसी ने प्राकृतिक संसाधनों पर अतिक्रमण और प्रदूषण करना शुरू कर दिया। इससे धरती का तापक्रम बहुत घट गया और बढ गया। इसी से बेमौसम बारिश होती है, जिससे बाढ़ और सुखाड़ दोनों तेजी से बढ़े।
आज भारत में जो लालच, लोभ है, वह विदेशों की शिक्षा से आया है। इस कारण भारत लालची और लोभियों को ही सबसे तेज गति से आगे बढ़ा रहा है। त्यागी साधकों-ऋषियों व सादगी से जीवन जीने वाले व्यक्तियों को गरीब मानकर, उन्हें, उनके हाल पर छोड़ा जा रहा है। इसलिए भारत की पहचान अब दुनिया के दूसरे देशों जैसी ही बन रही है। भारत अब चीन, अमेरिका और यूरोप के देशों की नकल कर रहा है। भारतीयता खत्म हो रही है, यह भारत और पूरी दुनिया के लिए खतरनाक है। क्योंकि दुनिया भारत से प्राकृतिक प्रेम और आनंद से सीखकर अपने जीवन के मूल्यों और सिद्धांतों को बनाती थी, किन्तु अब उन जीवन सिद्धांतों को भूलकर, बदलकर किसी दूसरे रास्ते पर जाने लगी है।
प्रकृति व मानवता के आत्म-स्वरूप का एहसास दुनिया के देशों में ज्यादा नहीं था। सिर्फ कुछ देशों में भारतीयों से सीखकर ये आत्मीय गुण विकसित होने लगे थे। इसलिए आज इस बात को जानने की बहुत जरूरत है कि हम दुनिया (ब्रह्म से बने ब्रह्मांड) को एक मानने वाले इस मूल ब्रह्म स्वरूप को जानने, व्यवहार और संस्कार में लाने के कारण दुनिया के गुरु बने थे। आज भी भारत ने पिछले 40 वर्षों में इस विषय का अध्ययन कर पाया है कि समुदायों का जहां प्रकृति से प्यार बढ़ा, वहां जल, जंगल, जमीन के संरक्षण की प्रक्रिया तेज हुई और मानवीय जीवन में अनुकूलन व प्रकृति का उन्मूलन हुआ जिससे उजड़े हुए लोग वापस अपनी जमीन पर आकर खेती करने लगे और विस्थापन रुक गया।
भारत का भगवान् पंच महाभूत् (भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, अ-अग्नि, और न- नीर) थे। जब तक इस भगवान को भारत के लोग अच्छे से जानते, मानते और पहचानते थे, तब तक भारतीयों के मन में नीर, नारी और नदी को नारायण मानने की समझ और संस्कृति थी। वे इन तीनों का बहुत सम्मान करते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोग भूल गए कि, नीर, नारी और नदी नारायण है। भारतीय समाज जब इस आस्था को भूला, तब उसके मन में भौतिक व आर्थिक लालच आ गया। भारतीय मन मानस प्रकृतिमय जब तक ही था, जब तक वह अपने जीवन की चारों अवस्थाओं को समझकर जीता था। अब हमें उसको नारायण की तरह ही देखना, व्यवहार करना और संस्कार पैदा करना होगा।
यहां कार्यक्रम में उपस्थित ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्री अविमुक्तेश्वरानंद गंगा नदी के अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्जीवित करने की बात कही। मातृ सदन के स्वामी शिवानंद ने कहा कि सभी धर्म और मान्यताओं का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन साथ में हमें इस बात का भी कभी विस्मरण न हो कि इन सबका उद्देश्य अपने आत्म स्वरूप को जानना है।
आज लाभ कमाने वाली शिक्षा का बहुत विस्तार हुआ है। इस शिक्षा के कारण प्रकृति का पोषण करने वाली भारतीय विद्या को भूल गए है। साथ ही पर्यटन, तीर्थाटन और प्रकृति के बीच के रिश्ता को भी भूल गए हैं।
*जल पुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक