संस्कृत में ‘अप्’ शब्द का एक अर्थ है पानी, और दूसरा अर्थ है श्रद्धा । ज्ञानदेव महाराज ने कहा है कि सत्य पानी जैसा होना चाहिए। पानी इतना मृदु होता है कि मनुष्य के शरीर के सबसे नाजुक अवयव, आंखों की पुतलियों को भी वह नहीं चुभता। दूसरी ओर वह इतना कठोर है कि, पत्थर को भी फोड़ देता है। इसी तरह सत्य भी एक ओर से अत्यंत मृदु रहे लोगों को रिझाने में, आनंद देने में शीतल, मृदु रहे और दूसरी ओर संशय-छेदन में अत्यंत प्रखरता दिखलाये। इस तरह ऋषियों ने नदी के आधार पर, पानी के आधार पर असंख्य कल्पनाएं की हैं।
एक बार एक ऋषि बीमार पड़ा। उसने सोमराजा से कहा, ‘हे देव! सुनता हूँ कि तुममें असंख्य वनस्पतियां भरी हुई हैं। तो मुझे भी कुछ औषधि दो।’ इस पर सोमराजा ने कहा- अप्सु मे सोमो अब्रवीत् अंतर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशंभुवम्– पानी में सब वनस्पतियां भरी हैं। इसलिए तुम पानी का उपयोग करो। सिर्फ पानी से भी बीमारी अच्छी होती है। पानी में अग्नि भी रह सकती है। यानी पानी गरम भी हो सकता है। इसलिए कभी गरम तो कभी ठंडा पानी पीने से, अन्य किसी औषध की जरूरत नहीं रहेगी। अभी तो पाश्चात्यों ने भी यह जल-चिकित्सा का पंथ चलाया है।
हमारे दादाजी महादेव की पूजा करते थे। एक बार पूजा के समय उनका शरीर कांपने लगा और उन्हें सिहरन हो उठी। उनकी पूजा करीब दो-तीन घंटे चलती थी। पूजा में विघ्न उन्हें सहन नहीं होता था। शरीर में कंपन शुरू होते ही वे उठे और पास के कुएं में कूद पड़े। दादी को लगा कि, अचानक यह क्या हुआ? परंतु वे तो बडे कुशल तैराक थे। पांच-सात मिनट अच्छी तरह से तैरकर ऊपर आ गये और शरीर पोंछकर पुनः पूजा में बैठ गये। यह घटना मैंने अपनी आंखों से देखी है, चाहे आप विश्वास करें या न करें। पदयात्रा में भी मुझे यह अनुभव आया कि पानी में भीगने से भी हानि कुछ नहीं होती, क्योंकि जल में सारी औषधियां भरी हैं। इसीलिए वेद ने जल को विश्वभेषजीः की उपाधि दी है।
पानी कहीं का भी क्यों न हो, समुद्र की ओर जाना चाहता है। यह नहीं कि सभी प्रकार का जल समुद्र तक पहुंच सकता है; लेकिन चाहे वह पानी मेरे स्नान का हो या गंगानदी में बहने वाला हो, दोनों की गति निचान की ओर यानी समुद्र की ओर ही है। दोनों निम्नगतिक नम्र हैं। कहीं थोड़ा पानी, उसकी ताकत कम होने के कारण, भले ही बीच ही में रुक जाये और किसी छोटे वृक्ष को जीवन प्रदान करने में उसका उपयोग हो जाये लेकिन उसकी गति यह तो हुआ, उसका भाग्य तो समुद्र ही है। समुद्र तक पहुंचने का भाग्य तो गंगाजी के समान महानदियों को ही प्राप्त होता है पर पानी निम्नगतिक ही होता है। जल पांच फुट पर हो या पांच हजार फुट की ऊंचाई पर हो, उसकी हमेशा यही कोशिश रहेगी कि नीचे उतरे। निचाईवाले क्षेत्र को अपना लाभ पहुंचाना पानी का धर्म है। लोटा भर भी जल बिलकुल समतल जगह पर डाला जाये तो भी वह कोशिश यही करेगा कि उससे भी नीचे की ओर जाये। अगर वह वहां न जा पाये, तो अलग बात है, लेकिन उसकी कोशिश यही रहेगी। इसी को करुणा कहते हैं। एक प्रक्रिया है, नीचे उतरने की। जो प्रेम और आनंद की अनुभूति चाहते हैं, उन्हें नीचे उतरना ही होगा। जिसे नीचे उतरना सधेगा, उसी का जीवन आनंदमय होगा।
जल का स्वभाव कैसा होता है? कुएं से एक बाल्टी निकालिए, तो वहां हुए गड्ढे को पाटने के लिए आसपास का पानी दौड़ पड़ता है और क्षणभर में पुनः समानता स्थापित हो जाती है। कुएं में पानी बढ़ता है तो सब ओर से बढ़ता है, और कम होता है, तो सब तरफ से कम होता है। परंतु ज्वार के ढेर में ऐसा नहीं होता। उसमें से यदि आप दो- चार सेर अनाज निकालें, तो वहां का गड्डा वैसा ही बना रहेगा। बहुत हुआ तो कुछ महात्मा दाने दौड़कर उस गड्ढे में कूद पड़ेंगे, पर शेष हठी दाने दौड़े नहीं आयेंगे। वे वैसे ही मजा देखते रहेंगे। मनुष्य-समाज को पानी की तरह होना चाहिए समाज में समानता होनी चाहिए।
क्रमश:
*जल पुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक