आकाश सबका आधार है, जैसे ईश्वर सबका आधार है। तेज, वायु, पृथ्वी, सभी भूतों का आधार आकाश है। फिर भी आकाश को उसका लेप नहीं लगता। वैसे ही हम सबका आधार ईश्वर है, लेकिन उसको लेप नहीं लगता। ईश्वर आकाश के जैसा और जितना है। आकाश को प्राप्त करने में हमें 500 मील दूर नहीं जाना पडता। आकाश हर जगह है, वैसे ही ईश्वर भी सर्वत्र व्याप्त है। आकाश नित्य प्राप्त है। उसे प्राप्त करने के लिए किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं। वैसा ही ईश्वर है। आकाश और ईश्वर के वर्ण में भी साम्य दिखता है। ईश्वर को मेघश्याम, नीलवर्ण मानते हैं। आकाश का नीला रंग आंखों को चुभता नहीं, आंखें उसका विरोध नहीं करती; ईश्वर भी महान अविरोधी वृत्ति का रूप है। उसके राज्य में किसी का निषेध नहीं।
आकाश का नीलवर्ण अविरोधी-वृत्ति का सूचक है। आकाश का रंग आंखों को शांति देता है। आकाश की इस शांत वृत्ति के कारण लोगों ने आकाश को शून्य नाम देने में भी कसर नहीं की। अविरोध और शांति यही जीवन का एकमात्र बीज मंत्र है। रंगों का आक्रमण आंखों पर सतत होने लगे तो वे परेशान हुए बिना नहीं रहेंगी। आराम के लिए वे आकाश के रंगहीन नीले रंग का सहारा खोजने लगेंगी। आकाश के नीलवर्ण से आंखें थकती-ऊबती नहीं, इसी लिए उपासकों ने ईश्वर का रूप ’गगनसदृश’ माना है। दूसरे चटकीले रंगों में और आकाश के सौम्य रंग में जैसा अंतर है, वैसा ही दूसरे सुख और आत्मसुख में है। आकाश सूक्ष्म रूप से सर्वत्र व्याप्त होने पर भी मलिन नहीं होता, वैसे आत्मा देह में आपादमस्तक भरा हुआ है, फिर भी लिप्त नहीं होता।
गीता के श्लोक में उल्लेख है पंचमहाभूतों में से शस्त्र यानी पृथ्वी तत्त्व तथा अग्नि, पानी और वायु। चारों का आकाश पर असर नहीं होता। हवा से कपड़े सूखते हैं, पर आकाश सूखता नहीं, पानी से भींगता नहीं, अग्नि से जलता नहीं। शस्त्र से काटा नहीं जाता। यह वर्णन जैसे आत्मा को या ब्रह्म को लागू होता है, वैसे ही आकाश को भी लागू हो सकता है। यही नहीं, बल्कि दृष्टांत और दार्शन्तिक अथवा उपमान और उपमेय का यह मौलिक भेद आगे चलकर नष्ट होकर आकाश शब्द ही ब्रह्म वाचक बन गया। तस्मात काश शब्दं ब्रह्मेति सिद्धम्, ऐसा ब्रह्मसूत्र में भी कहा है। पृथ्वी के सारे भौतिक पदार्थों में आकाश का स्वरूप ब्रह्म के निकट है, इसलिए ब्रह्म को आकाश की उपमा नित्य देते हैं।
ऋग्वेद में परमे व्योमन् शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ होता है, हमारे हृदयाकाश में रहने वाले (परमात्मा)। विश्व में जितने नाद हैं, आकाश में जो ध्वनि हैं, आवाज, नाद उत्पन्न हो सकते हैं, उन सबका प्रतिनिधि ओम है। ओमन् शब्द ऋग्वेद में आया है, वह आकाश वाचन है। ओमकार, यानी आकाश रूपी ब्रह्म, यह भाव यजुर्वेदीय ऋषियों का है।
आकाश में परमात्मा शब्द रूप से रहता है। यानी आकाश का अंतःसार शब्द है। भीतर आकाश ही है, वहां अंतर्नाद उसका चिह्न है।
आसमान में शब्द भरे हुए हैं, हम भले ही कानों से उन्हें न भी सुनें। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने, फकीरों ने, वली-नबियों ने जो सोचा, जो कहा वह सब आसमान में भरा हुआ है, छिपा हुआ है। अभी रेडियो बताता है कि दिल्ली या बंबई से कोई बोल रहा हो तो हम यहां सुन सकते हैं, सिर्फ उन शब्दों को पकड़ने की तरकीब चाहिए। आसमान में ज्ञानियों की आवाज भरी है। हमारे इन कानों के अंदर दूसरे कान होते हैं। उन अंदरूनी कानों से आसमान की आवाज सुनायी देगी और उससे दिल बड़ा बनेगा, दिमाग ताजा बनेगा।
आकाश को शून्य कहा जाता है, वह पूर्ण भी है। शून्यता में परिपूर्णता आ ही जाती है। उस पर किसी का आक्रमण हो नहीं सकता और वह भी किसी पर आक्रमण नहीं करता। देखने में तो ऐसा ही दिखेगा, परंतु वास्तव में वह हर एक पर आक्रमण करता है। हर एक चीज के अंदर-बाहर और चारों तरफ घेरे हुए है। परिभ्रमण करते समय आकाश के साथ हम एकरूप हो सकते हैं। उसका चिंतन करें तो हमारा हृदय ऐसा ही व्यापक बनेगा।
आकाश हर घर में पहुंचता है। हमारा प्रवेश भी हर घर में होना चाहिए, आकाश का हर घर में स्वागत है। हमारा भी हर घर में स्वागत होना चाहिए। लोक हृदय में प्रवेश पाना उसी को सधेगा, जो परिपूर्ण होगा और शून्य होगा। शून्य यानी अहंकार से खाली। सबके साथ मिल कर रह सकने वाला, अपने में परिपूर्ण।
चारों ओर विशाल, खुला आकाश देखने को मिलता है, तो बहुत आनंद होता है। उपनिषद में बहुत सुंदर वर्णन किया है। शिष्य गुरु से पूछता है, ’गुरुदेव, हृदय कितना बड़ा है?’ गुरु जवाब देते हैं, यावान् वा अयमाकाशः, तावान् एष अंतहृदये आकाशः -अपने हृदय में उतना ही विशाल आकाश है, जितना विशाल आकाश बाहर दिखता है। अब मान लीजिए, कोठरी में वर्ग हो रहा है और गुरु विद्यार्थियों को समझा रहे हैं कि बाहर जितना आकाश दिखता है, उतना ही अंदर है, तो दिल संकुचित होगा; क्योंकि कोठरी में आकाश खुला नहीं होता, संकुचित होता है। उस समय ये गुरु शिष्य-संवाद ’रूम’ में नहीं होते थे, खुले आकाश के नीचे होते थे।
भारत की संस्कृति नागर है कि ग्रामीण, ऐसी चर्चा चल रही थी, तब रवींद्रनाथ ठाकुर ने उत्तर दिया कि, हमारी संस्कृति आरण्यक संस्कृति है। हमारे देश के उत्तमोत्तम प्रवचन अरण्यों में हुए। बृहदारण्यक उपनिषद, बृहद् यानी विशाल। विशाल अरण्य में बैठे हुए चर्चा खुले आकाश के नीचे चलती थी। आकाश-संपर्क हृदय को बड़ा बनाता है।
संस्कृत में सुख शब्द है। ‘सु’-‘ख’-सुलभं खं तत्र सुखम् । खम् यानी आकाश। जहां आकाश सुलभ है, वहां सुख है। जहां आकाश दुर्लभ है, वहां उसका नाम दुःख। दुनिया की पांच से पच्चीस भाषाओं का ज्ञान मुझे है, लेकिन ऐसी एक भी भाषा मुझे मालूम नहीं, जिसमें सुख-दुःख की ऐसी विलक्षण व्याख्या की हो। असामान्य व्याख्या है। विशाल आकाश देखकर मुझे बहुत आनंद होता है। लेकिन उतना ही दुःख हुआ, जब यहां की जमीन बेकार पड़ी हुई देखी। जिस देश में अकाल पडता है, जिस देश में बाहर से अनाज मंगवाना पड़ता है, स्वदेशी-धर्म तो रहता ही नहीं, उस देश में चप्पा-चप्पा जमीन पर अनाज पैदा नहीं हो रहा, यह कितनी दुःख की बात है। जब मैं विशाल आकाश के नीचे जमीन वीरान पड़ी हुई देखता हूं, तब दुःख होता है।
रात के समय आकाश की ओर जरा दृष्टि डालें तो अनंत गोले दिखायी देते हैं। आकाश के आंगन की वह रंगवल्ली, वे छोटे-छोटे सुंदर फूल, वे लुक-लुक करनेवाली लाखों तारिकाएं इन सबका स्वरूप क्या आप जानते हैं? ये छोटी-छोटी-सी तारिकाएं महान, प्रचंड हैं। उनके अंदर सूर्यों का समावेश हो जायेगा। वे रसमय, तेजोमय, ज्वलंत धातुओं के गोल पिंड हैं। ऐसे इन अनंत पिंडों का हिसाब कौन लगायेगा? न इनका अंत है, न पार है। खाली आंखों से ये हजारों दिखते हैं।, दूरबीन से देखें, तो करोड़ों दिखायी देते हैं। उससे बड़ी दूरबीन हो, तो परार्थों दिखने लगेंगे और यह समझ में नहीं आयेगा कि, आखिर इनका अंत कहां है? कैसा है? यह जो अनंत सृष्टि ऊपर-नीचे सब जगह फैली हुई है, उसका एक छोटा-सा टुकडा ’जगत’ कहलाता है। परंतु यह जगत भी कितना विशालकाय दिखाई पड़ता है।
आसमान में कितना सुंदर सिनेमा चलता है। बहुत सुंदर दृश्य हमने आज देखा वहां शंकर थे, ब्रह्मदेव थे, अगस्त्य थे। सप्तर्षि थे, अरुंधती थीं। रामजन्म का पुनर्वसु नक्षत्र था। कितने सुंदर दृश्य होते हैं आकाश में। कभी नक्षत्रों की युति होती है। पचास-पचास साल में ऐसा योग देखने को मिलता है। शहर वालों के भाग्य में यह सारा सुख नहीं रहता है। बुद्धि मंद होती है। मंद बुद्धि से नये-नये शोध कैसे होंगे? हमारे देश के युवा बुद्धिमान, तेजस्वी नहीं होंगे, तो देश कभी ऊपर नहीं चढ़ेगा।
क्या परमेश्वर मूरख था, जो उसने रात पैदा की? क्या रात के अंधेरे का कोई उपयोग नहीं? दुनिया में प्रतिभा के जितने काम हुए हैं, सवेरे हुए हैं। योगाभ्यास, गहरा अध्ययन, चिंतन-मनन- ध्यान, सब बड़े काम प्रातःकाल में सधते हैं। बाबा की पदयात्रा भी सुबह-सुबह चलती है। दुनिया में सारे पुरुषार्थ के काम, जिनमें प्रतिभा का उपयोग होता है, सब सवेरे दिन उगने के पहले, रात्रि समाप्त होने के पूर्व होते हैं। लेकिन देर रात तक का समय सिनेमा देखने में ही जायेगा, तो उसका असर दिमाग पर होगा, नींद पर होगा, स्वप्नों पर होगा, जीवन बड़ा दुःखी होगा। रात माता के समान है। उसकी गोद में सोना, मानो माता की गोद में सोना है। रात को जगना यानी जीवन को निर्वीर्य बनाना है।
कहते हैं, प्रकाश की गति बहुत ज्यादा है। प्रकाश एक सेकंड में 1,86,000 मील जाता है। कुछ तारे हमसे इतने दूर हैं कि उनका प्रकाश यहां पृथ्वी पर पहुंचने में हजारों साल लगेंगे। ध्रुव 30 प्रकाशवर्ष दूर है। आज हमने जो ध्रुव देखा, वह 30 साल पहले का देखा। आज ध्रुव वहां पर है या नहीं, वह तीस साल के बाद मालूम हो सकेगा। आज हम जिसे देख रहे हैं, वह प्रकाश 30 साल पहले ही निकल चुका था। तो आज हम जितना जानते हैं, उसके अनुसार कहते हैं कि प्रकाश की गति अंतिम है। लेकिन भौतिक सृष्टि में प्रकाश से अधिक गति आकाश की है। प्रकाश कितना भी तेज रफ्तार से दौड़े फिर भी रहता है आकाश के पेट में ही। अब रेडियो एस्ट्रोनॉमी का विकास हो रहा है तो पता चल रहा है कि आकाश में जगह-जगह परमाणु विस्फोट जैसी हलचलें चल रही हैं। तो संभव है कि प्रकाश से अधिक गतिमान शक्ति का पता चले।
आधुनिक शिक्षा में हमारे जीवन की गति तेज बनने पर बहुत जोर दिया है। आकाश, प्रकाश और वायु गति से भी तेज हमारे जीवन को बनाने की लालसा आधुनिक शिक्षा ने पैदा की है। आधुनिक शिक्षा हमें टुकड़ों टुकड़ों में बांधकर, तेज बनाती हैं जबकि भारतीय विद्या हमें समग्रता में जीवन की सामर्थ्यता, सादगी से संपोषण करके हमें सरल, सहज, विनम्र बनाकर हमारी गति को मजबूत करती हुई स्नेहमय बनाती है। जब हमारी गति से स्नेह छूट जाता जाता है, तब जीवन बिजली, प्रकाश, वायु की गति में चलने लगता है।
आज आधुनिक शिक्षा में जीवन की गति को तेजमय बनाना दिखावा बन गया है, जिसने हमारे आध्यात्मिक चिन्तन और जीवन जीने की कला, कौशल और आनंद को हमसे छीन लिया है। अपने जीवन को आनंदमय बनाने वाले पंच महाभूतों की समग्रता , सहजता के साथ उनकी गति मिलानी होगी। यह गति मिलाने के लिए हमें कुछ अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत नहीं है, केवल हमें अपने को सहज, सरल और सादगी से जीने की आदत डालनी है; तो फिर हमारा जीवन सद्गतिमान रहेगा। यह गति जीवन में आनंद, सुख और संतोष पैदा करेगी।
धर्मार्थ काम मोक्ष आरोग्य रक्षणम। आरोग्य रहने के लिए हमें अपने धर्म को समझने और धर्म को समझकर अर्थ की कमाई के लिए काम करना और वह सारा काम मोक्ष की प्राप्ति के लिए, आरोग्य रहने के लिए होगा। धर्मार्थ काम मोक्ष आयुर्वेद की विद्या है। इस विद्या में वायु, प्रकाश की गति देने की चाह नहीं है, बल्कि उसी गति के साथ जीने की ललक है; गति की लालसा नहीं होती। जीवन को जब हम अति गतिशील बनाते हैं, तो हमारे जीवन को दिखावटी गतिशील बनाते हैं जो उसे अतिजटिल बना देता है।
पंचमहाभूतों के साथ हमारे रिश्ते को जानते रहना आवश्यक है।आधुनिक शिक्षा ने यह रिश्ता तोड़ दिया है, हमारी विद्या वहीं से शुरू होती थी कि जिन पंच महाभूतों से हम बने हैं, उन्हीं से ये पूरा ब्रह्मांड बना है। इसलिए उन्हीं की निर्मिती में हमें अपनी निर्मिती को खोजना है। जब तक भारतीय विद्या में हमारे जीवन की विद्या व जीवन दर्शन था, तब तक हम सबको व्यवहार से जानते रहते थे। लेकिन जब से वह रिश्ता टूटा है, तब से हम उस विद्या से भटक गए हैं और आधुनिक शिक्षा को तरफ मुड़ गए। शिक्षा ने जीवन को अधिक गतिमान बनाने का सपना दिखाने का काम किया है, जो हमारे जीवन की जटिलताओं को बढ़ाते जाते हैं।
जटिल जीवन आनंद से दूर जाने का रास्ता है और सरल, सहज, सादगी वाला आनंद से जीने का रास्ता है। इसलिए आकाश का प्रकाश जब तक सहज रूप से छूता है, तब बिना किसी प्रयास के वह हमारे साथ रहता है। तब तक वह हमारे जीवन को सरल, सहज और विनम्र बनाए रखता है। लेकिन जब हम अपने ही आकाश में अपने ही प्रकाश को ढूंढने लगते हैं तब, हमारे जीवन की जटिलताएं आरंभ हो जाती है। हम अपने जीवन को आकाश और अपने प्रकाश में सहजता से बनाए रखें, यही परमानंद है। आकाश में प्रकाश की खोज जब आध्यात्मिक होती है, तभी हम परमानंद की तरफ बढ़ते है। आकाश में प्रकृतिमय प्रकाश पाना मानवीय जीवन की सिद्धी है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक