– मनोरंजन सहाय*
पटना: अभी कुछ दिनों से देखने में आ रहा है की पटना नगर निगम साफ सुथरे स्थानों में लोहे के स्टैन्ड लगा कर कचरा फेंकने का छोटा सा बास्केट लगा रहे हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि इस छोटे से बास्केट में कितना कचरा आएगा? प्रशासन मेहनत तो कर रहा है, खर्च भी कर रहा है, लेकिन उनका यह मेहनत और खर्च सही दिशा में नहीं है ।अब उन्हें कौन समझाएगा की इस यह छोटा सा बास्केट पूरे मुहल्ले के कचरे के लिए नहीं है। यह भी देखने में आ रहा है कि पहले जो स्थान साफ सुथरा रहता था वो अब छोटे बास्केट के कारण कूड़ा फेंकने का अड्डा बनता जा रहा है।
अभी मैं युरोपियन देशों की यात्रा से लौटा हूँ । हमें वहाँ के कचरा प्रबंधन और हमारे यहाँ के कचरा प्रबंधन का तुलनात्मक व्यवस्था सामने दिख रहा है। वो भी वही काम कर रहें हैं जो हम कर रहें हैं । लेकिन हमारी व्यवस्था त्रुटिपूर्ण है। हमारे यहाँ मुहल्ले से छोटे छोटे हाथ के ठेले से कचरा इकट्ठा करते हैं और उसे उसे रोड के किसी चौड़े स्थान पर गिरा देते हैं। फिर वहाँ से ट्रैक्टर से उठा कर डम्पिंग एरिया मे ले जाया जाता है। इससे कचरे को दो बार उठाया जाता है और दो बार गिराया जाता है। इससे समय और मैनपावर की बर्बादी होती है।
युरोपियन देशों में मैंने यह देखा कि डस्ट बीन लगभग 6 ’x 5’ x6’ का होता है उसमे ढक्कन लगा होता । डब्बे में चक्का लगा होता है । लोग उसमें सूखा, गीला, या अन्य कचरा संबंधित डब्बे मे डाल देते हैं। वहाँ ट्रैक्टर आता है। कूड़े से भरे डब्बे को टोंचन करते हुए ले जाते हैं तथा उसके स्थान पर दूसरे खाली डब्बे को रख देते हैं। इस डब्बे के चारों तरफ सी सी टी वी लगा होता। लोग कचरे को डब्बे में डालने के बजाए थोड़ा भी नीचे गिराते हैं या उनके कचरे से डब्बे के बाहरी हिस्से में गंदगी लगती है तो बहुत ही हैवी फाइन होता है। रोड पर लगे छोटे डब्बे में केवल चाय-कॉफी के डब्बे या इसी तरह से संबंधित छोटे कचरे डालते हैं। रोड पर किसी तरह के कचरे को नहीं फेंक सकते। टॉफी का प्लास्टिक भी नहीं।
भारत में भी इसे रेगुलराईस किया जा सकता है। इसके लिए कड़े प्रशासन, भारी फाइन और दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूरत है। यहाँ कोई तुष्टीकरण की नीति नहीं करनी होगी। चरणबद्ध और तय समय सीमा के अंतर्गत पहले छोटे स्तर पर वर्कशॉप करना होगा। जनता को जागरूक करना होगा। अभी भी आम जनता को यह समझने में परेशानी होती है कि जब कचरे उठाने की गाड़ी वाले, नगर निगम या संबंधित अन्य लोग कहते हैं कि गीला कचरा अलग हरे रंग के डब्बे में डालें तथा सूखे कचरे को नीला डब्बे में डालें, तो फिर गीला कचरा किसे कहते हैं तथा सूखा कचरा किसे कहते हैं? सबसे पहले जनता के इन परेशानियों दूर करना होगा और लोगों को बताना होगा कि घर से निकले हुए गीले कचरे में सब्जियों और फलों के छिलके, बचा हुआ भोजन, अंडों के छिलके वगैरह शामिल होते हैं। दूसरे कचरे या कूड़े में गत्ता, कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक आता है। इन्हें सूखा कचरा कहते हैं। एक तीसरा तरह का भी कचरा होता है जैसे नैपकिन, महिलाओं के लिए इस्तेमाल होने वाले पैड, डाइपर, प्लास्टिक आदि। इसके अतिरिक्त अस्पतालों, कारखानों या रासायनिक फैक्ट्रियों से निकालने वाले विषैले कचरे भी होते हैं।
कचरा प्रबंधन के लिए सरकार, नगर निगम, नगर पालिका तथा अन्य एजेंसियां मुस्तैद तो हैं पर बावजूद इसके बढ़ते हुए कचरे की मात्रा सर दर्द बनता जा रहा है। सही है कि कचरा रूपी भयंकर राक्षस से निजात पाने के लिए नगर निगम की गाड़ी सवेरे-सवेरे सभी मुहल्ले में जाती है। मोहल्लेवासियों को बताने के लिए कूड़े उठाने वाली गाड़ी आ गई इसके लिए सभी गाड़ियों में एक गाना लगा दिया जाता है – “गाड़ी वाला आया घर से कचरा निकाल…”। मोहल्लेवासी अपने-अपने घरों का कचरा निकाल कर गाड़ी में डाल देते हैं। नगर निगम के तरफ से एक और सुविधा दी गई है की आप अपने घरों के दरवाजे पर कूड़ादान रख कर उसमे कूड़े को डाल दें। उनकी गाड़ी आती है और कचरे को उठा लेती है।
परन्तु तब भी बढ़ते कचरे के कारण सभी परेशान हैं। मेरे अनुसार इसकी वजह कुछ अव्यावहारिक नीतियां ही हैं जिन्हें आसानी से दूर किया जा सकता है। लोगों को जागरूक करने के अलावा फिर प्रशासन को भी कड़े रूप में पेश आना होगा। उसके बाद भारी फाइन लागू करना होगा। अन्ततः कड़े प्रशासन और भारी फाइन के द्वारा जनता को प्रशासन के दृढ़ इच्छा शक्ति का सन्देश देना होगा। प्रशासन के इस कार्य में किसी भी वी आई पी के हस्तक्षेप को मान्य नहीं करना होगा ।शुरू में कठिनाइयाँ आ सकती है लेकिन यह असंभव नहीं है।
*पर्यावरणविद तथा सामाजिक कार्यकर्ता