– ज्योतिष्पीठाधीश्वर शङ्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती 1008
मृत्यु को जीतने के लिए अनेक लोगों ने तरह-तरह के उपाय खोजे। दैत्यों ने तो स्वयं को अमर बनाने के लिए ऐसे-ऐसे वरदान मांगे हैं जो अद्भुत हैं परन्तु कोई आज तक मृत्यु को जीत न सका। जन्म होगा तो मृत्यु निश्चित ही आएगी। यदि मृत्यु को जीतना हो तो ऐसा उपाय करना होगा कि जिससे जान लें कि जन्म हमारा नहीं, हमारे शरीर का हुआ है।
हमारे धर्मशास्त्रों में मुक्ति के दो मुख्य प्रकार प्रकार बताए गये हैं। भक्तों की मुक्ति और ज्ञानी की मुक्ति। भक्तों को मिलने वाली मुक्ति पाँच प्रकार की कही गयी है और ज्ञानी को कैवल्य मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
जो भक्त जिस भगवान का चिन्तन करता है उसे उसी लोक की प्राप्ति होती है। ज्ञानी को ज्ञान से मुक्ति मिलती है। ज्ञानी की मुक्ति में कहीं भी आवागमन नहीं होता। वह जहां हैं वहीं रहता है और उसे मुक्त होने का बोध हो जाता है।
भागवत में क्रम मुक्ति एवं सद्यः मुक्ति वर्णित है। योग में आजकल यम और नियम को छोड़कर आसन से शुरुआत की जा रही है। सही अर्थों में योग को समझने की आवश्यकता है। योग का अर्थ केवल शरीर तक ही सीमित नहीं है।
जीवन के अन्तिम समय में मनुष्य की जैसी मति होती है वैसी ही गति उसकी हो जाती है। यदि हमने जीवन के अन्त में भगवान का स्मरण किया तो हमें अच्छी गति प्राप्त होगी और यदि किसी दूसरे का स्मरण किया तो हमें दूसरे जन्म में वही बनकर जन्म लेना पड़ेगा।
जिन बातों का अभ्यास हम जीवन भर करते हैं अन्त समय में हमारी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। इसीलिए यह कहा गया है कि अच्छे वातावरण में रहें जिससे हममें अच्छी बातों का ही अभ्यास बना रहे।
राजा और संन्यासी का धर्म बडा कठिन होता है। सामान्य व्यक्ति यदि किसी को सम्मान देना चाहे हो तो बडी आसानी से अपने आसन से उठकर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित कर सकता है। किसी बच्चे के प्रति प्रेम प्रदर्शन करना हो तो कर सकता है लेकिन राजा और संन्यासी को मर्यादा में रहकर ही सम्मान और प्रेम प्रदर्शित करना होता है।
राजर्षि भरत, दक्षकन्या सती, पुरञ्जन उपाख्यान, काशी खण्ड से कलावती और विद्याधर आदि के अनेक प्रसंग उदाहरण के रूप में हैं । इन सबकी गति अन्त काल की मति के अनुसार ही हुई। इसलिए हमें सदैव सतर्क रहना चाहिए क्योंकि अन्त काल कब आ जाएगा इसका पहले से किसी को भी पता नहीं रहता।
भगवन्नाम स्मरण के महत्व है कि भगवान के नाम-स्मरण में पापों को नष्ट करने की इतनी अधिक शक्ति है कि कोई व्यक्ति उतना पाप कर ही नहीं सकता।
भगवान के अवतार के अनेक प्रयोजन बताए जाते हैं। भगवद्गीता कहती है धर्म की ग्लानि होने पर धर्म की पुनः स्थापना के लिए भगवदवतार होते हैं तो वहीं अनेक पुराणों से यह पता चलता है कि प्राणियों पर कृपा करने के लिए अवतरण होता है। कुछ लोग कहते है कि भगवदवतार इसी एक कारण से हुआ ऐसा स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। परन्तु यदि समेकित दृष्टिकोण से देखें तो श्रीमद्भागवत कहती है कि भक्ति, भुक्ति और मुक्ति के लिए भगवदवतार समय-समय पर होते रहते हैं।
भगवान ने अवतार धारण करके अपने भक्तों की भक्ति को परिपूर्ण किया। भुक्ति अर्थात् ऐश्वर्य प्रदान किया और अनेक मनुष्यों, असुरों आदि को मुक्ति प्रदान की। जन्म लेते ही पूतना को मुक्त किया। इसके बाद धनुकासुर, प्रलम्बासुर, शकटासुर, तृणावर्त आदि अनेक को सद्गति प्रदान की। कारागार के बन्धन से अपने माता पिता को और 16,100 रानियों को मुक्त किया। गोपियों के हृदय में अनन्य भक्ति प्रदान करके उनको भी मुक्त किया। जो जिस भाव से भगवान का भजन करता है उसी भाव को स्वीकार करके भगवान उन सबको मुक्त कर देते है।
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म वसुदेव के यहाँ हुआ और नन्द जी के घर में आनन्द मनाया गया। वसुदेव जी के घर भगवान आए फिर भी उन्होंने सांसारिक भय के कारण भगवान को अपने से दूर कर दिया और नन्द जी के घर माया ने जन्म लिया था तो माया उनसे दूर हुई तो भगवान उनके पास आ गये।
वंशी नाद की व्याख्या करें तो वंशी का उलटा कर दो तो शिवं होता है और शिव का अर्थ है कल्याण। वंशी नाद सुनने पर स्वतः ही प्रत्याहार हो जाता है क्योंकि सब विषयों से मन हटकर केवल एक भगवान में चला जाता है।
इस देश में सबसे बड़ा सम्मान माता गंगा को चक्रवर्ती सम्राट भगीरथ ने शंख बजाकर उसकी अगवानी करते हुए दिया था। आज के शासकों को गंगा के उसी सम्मान को बनाए रखने दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
सभी प्राणियों का आरम्भ जन्म से होता है पर अन्त कैसा होगा इसमें सबके विचार अलग-अलग हैं। जो स्वयं को केवल शरीर मानता है उसका अन्त तो मृत्यु से होता है पर जो स्वयं को शरीर नहीं मानता उसका अन्त मृत्यु से नहीं होता। श्रीमद्भागवत कहती है जो स्वयं भागवत हो जाता है उसका पर्यवसान मुक्ति से होता है। भागवत का अर्थ है भगवान का।
मोक्ष विचार सभी दर्शनों में अलग-अलग प्रकार के बताए गये हैं। सभी दर्शन में तत्वों की विविध संख्याएँ बताई गयी है परन्तु ये संख्याएँ ऐसे ही एक है जैसे अनेक लोग सौ रुपये मूल्य का नोट लिए हों पर सबके पास अलग अलग मूल्य के नोट हों।
दर्शन का अर्थ है जिससे देखा जाए। सामान्य रूप से ऑखों से देखा जाता है इसीलिए ऑखों को दर्शन कहा जाता है पर सब चीजें ऑख से नहीं दिखाई देती। बहुत पास और बहुत दूर की चीजें हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते। इसलिए दर्शन का अर्थ ज्ञान चक्षु, ज्ञान दृष्टि समझना चाहिए जो भगवान की कृपा से प्राप्त हो सकती है।
प्रस्तुति: संजय पाण्डेय, मीडिया प्रभारी, ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य।