विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष: मौसम भी मनमर्जी, मनमानी करने लगे हैं
जलवायु परिवर्तन मतलब मौसम बदल रहा है। मौसमों ने अपनी चाल बदल दी है। अपने यहां मुख्य रूप से चार ऋतु सर्दी, बसंत, गर्मी, बरसात, वैसे पतझड़, शिशिर को मिलाकर छ: ऋतुएं मानी गई है। इनके समय में अंतर आ गया है। गर्मी का समय बढ़ा है। अन्य मौसम भी मन मर्जी, मनमानी करने लगे हैं ।
पहले मौसम के लिए अलग-अलग शब्दों को गढ़ा गया था, इनका प्रयोग किया जाता था। नौ दिन का नौतपा, चालिस दिन का चिल्ला। जाड़ा, गर्मी, बरसात की झड़ी लगती थी। जिसमें जमीन का मिजाज सही रहता था। प्रकृति का अपना रंग-ढंग, चाल-चलन, व्यवस्था बनी हुई थी। जिसमें कभी-कभी कुछ बदलाव होता तो समाज उसे समझ जाता था। इसके लिए प्रत्येक क्षेत्र में अपनी-अपनी समझ के अनुसार अनेक प्रतीक थे। कहते थे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े के व्यवहार को, हवा, चांद-सितारे- सूरज का रूख, दशा देखकर पता लगाते थे कि ऐसा हो रहा है तो इस बार मौसम ऐसा होगा।
अब तो बहुत कुछ बदलता जा रहा है। प्रकृति के साथ की गई छेड़छाड़, मनुष्य की जीवनशैली, मानसिकता, उठाए गए कदमों के कारण जबरदस्त बदलाव आया है। हम नहीं चेते तो और अधिक झेलना पड़ेगा। हम बदलेंगे, सही कदम उठाएंगे, सावधानी, सतर्कता बरतेंगे तो सही दिशा में बदलाव की संभावना बन सकती है।
जैव विविधता भी चेतावनी एवं चुनौती दे रही है। इस पर भी विचार करने की जरूरत है। चाहे यह नया शब्द बहुत बाद में चलन में आया, जबकि जैवविविधता प्रकृति का एक अभिन्न आवश्यक अंग रहा है। वन्यजीव वैज्ञानिक रेमंड एफ डैसमैन ने 1968 में अपनी पुस्तक ‘ए डिफरेंट कांईड ऑफ कंट्री‘ में जैवविविधता के बारे में लिखा। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने जीवन + विविधता को गुण सूत्र, प्रजाति, पारिस्थितिकी की समग्रता को आनुवांशिक, प्रजाति, पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखा। इसे समझने के लिए समुद्री जिवाश्म, फनेरोजोईक – काई, फर्न, कवक, जिमनोस्पोरिया, द्विबीजपत्री, एकबीजपत्री , प्लांट्स, घुन, जीवाणु, कीट-पतंगे, लाईकेन, मोलस्क, क्रुस्तासान, पूर्व कशेरुक, हड्डी वाले, मछली उभयचर, जलचर, भूचर, सांप, पक्षी , स्तनपानी, रेंगनेवाले, चलने वाले, कूदने वाले, जानवर, अकशेरुकी, पशु-पक्षी, जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े, पेड़-पौधे, बेल-बूटे, लताएं, तरह-तरह के मनुष्य, प्राणी, जीव-जंतु, वनस्पति आदि जैवविविधता के हिस्से है। जीन की विविधता को समझना, इनका संरक्षण, संवर्द्धन, सहयोग, सहकार, सुरक्षा आवश्यक है। ध्यान रखना होगा कि हर रोज कई प्रजातियां विलुप्त हो रही है।
जैव-विविधता को जानने, समझने, पहचानने के लिए वर्गीकरण किया जाता है- अल्फा, बीटा, गामा। अल्फा स्थानीय, विशेष क्षेत्र, समुदाय, पारिस्थितिकी तंत्र हेतु।
बीटा क्षेत्र /राष्ट्रीय, विभिन्न पारिस्थितिकी प्रणालियों के बीच, प्रजाति विविधता। गामा विस्तृत क्षेत्र एशिया, यूरोप, विभिन्न पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिए, समग्र विविधता।
1. आनुवंशिक – गुणसूत्रों पर आधारित, मानव होमोसेपियन, जीन पूल।
2. प्रजातीय – एक ही स्थान पर विभिन्न प्रजातियों की उपस्थिति।
3. पारिस्थितिकीय – (क्षेत्र) जलीय, मैदानी, रेगिस्तानी, पर्वतीय।
60 से अधिक प्रजाति हो तो उसे होट स्पोट कहा जाता है। 1500 प्रजाति पौधे हो तो बहुलता। जैव-विविधता संतुलन बनाती है। पृथ्वी का संतुलन। खाद्य चक्र का संतुलन। शाकाहारी, मांसाहारी, औषधि, जड़ी-बूटी, सुंदरता आदि को समझना जरूरी है।
विश्व में जैवविविधता के 25 क्षेत्र 17 देशों में अच्छे घोषित किए गए है। जिनमें से 2 भारत में – पूर्वी हिमालय एवं पश्चिमी घाट। शांत घाटी पीस वेली, केरल, अण्डमान, कोंकण, पश्चिमी घाट देखने लायक है। दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, इक्वाडोर, वेनेजुएला, ब्राजील, मैक्सिको, इण्डोनेशिया, चीन, आस्ट्रेलिया, फिलीपींस, कोंगो, भारत आदि शामिल है।
जो प्रजाति 70% नष्ट हो जाती है उसे खतरे में, दुर्लभ, समाप्त होने वाली में गिना जाता है। 100 वर्ष का इतिहास लुप्त होने वाला रहा है। वर्षा वन, उष्णकटिबंधीय वन, पर्यावरण केन्द्रित स्थलों की दशा और दिशा समझकर, देख कर ऐसा कहा जा सकता है।
भूमध्य रेखा के पास जैवविविधता अधिक मात्रा में पाई जाती है। उनको खतरा है निवास, सड़क, रेल, प्रदूषण, रसायन, वन कटाई, औद्योगिककरण, जीवनशैली, रहन-सहन, भोजन, लोभ-लालच, शोषण, लूट, युद्ध, जनसंख्या का दबाव, जलवायु, ग्लोबल वार्मिंग आदि से। इन खतरों को दूर करने के लिए ज़रूरी है जागरूकता, कानून, सही योजनाएं, नर्सरी, संरक्षण, संवर्द्धन, पोषण, सुरक्षा, वन खेती, जीवनशैली, मानसिकता में बदलाव, हरियाली बढ़ाओ, बीज बैंक, उद्भव, विकास, विलुप्त पर नजर रख सावधानी, सतर्कता बरतना, आवश्यकताओं को घटाना, सहजता, सरलता, सादगी को अपनाना, लोभ-लालच से बचना, हिंसा, युद्ध से मुक्ति, गति पर संयम, विकास और विज्ञान का सदुपयोग, सही उपयोग, अंधी दौड़ से बचना।
इवोल्यूशन थ्योरी मानती है कि पृथ्वी 4 अरब साल पुरानी है, जीवन का प्रारंभ भी लगभग तभी हुआ। एक भयंकर विस्फोट हुआ। इसके बाद जमीन, भूमि, मिट्टी, पहाड़, ऊंचाई, गड्ढे, पाताल, आकाश, समुद्र, नदी-नाले, जंगल, वनस्पति, पेड़-पौधे, बेल-बूटे, लताएं, झाड़ियां, घास-फूस, मौसम, जलवायु आदि का निर्माण हुआ। पंचतत्व- भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर का अस्तित्व बना। इसी से ही प्रकृति का निर्माण हुआ। मानव, जीव, प्रकृति, पीण्ड, ब्रह्माण्ड तक जीवन + विविधता के संयोग से निर्मित पृथ्वी पर मौजूद जीवन की विविधता और परिवर्तनशीलता को आमतौर पर संदर्भित करता है।
जैविक + अजैविक = पर्यावरण। दुनिया में गैसों की स्थिति- नाईट्रोजन 78.28%, आक्सीजन 20.95%, आर्गन 0.95%, कार्बन-डाई-ऑक्साइड 0.038%, नियाॅन 0.0018%, हीलीयम 0.0008%। इनमें आ रहा बदलाव चिंताजनक है, चेतावनी एवं चुनौती खड़ी हुई है। हवा की कमी तो होगी जब अंधाधुंध पेड़-पौधे काटे जाएंगे। वन क्षेत्र घटता ही जा रहा है। विकास के नाम पर जंगल और जमीन का स्वरूप बदला जा रहा है। हवा के लिए पेड़-पौधे नहीं तरह-तरह के पंखे, कूलर, एयरकंडीशन की आवश्यकता का प्रचार-प्रसार गति पकड़ रहा है।देश और दुनिया को मिलकर इस बारे में कदम उठाने होंगे अन्यथा स्थिति हाथों से फिसलती ही जा रही है।
जलवायु बदलाव दुनिया की आंखों की किरकरी बना हुआ है जबकि इसके लिए अधिकतम मानव समाज ही जिम्मेदार हैं। विकास के नाम पर और विज्ञान के सहारे जो जीवनशैली, मानसिकता बनाई गई है उसका नतीजा तो ऐसा ही आना था। उपभोक्तावाद, प्रयोग कर फेंकने की ओर समाज को मोड़ दिया गया है। नशा, प्लास्टिक, कागज, मोबाइल, विज्ञापन, वाहनों का प्रयोग बहुत गति से बढ़ा है। लगभग-लगभग सभी जानते हैं कि इनका प्रयोग आराम से घटाया जा सकता है। बाजार इन्हें घटने नहीं देना चाहता जिसके लिए झूठे विज्ञापन, दबाव, दहशत, भय, बनावटी मांग पैदा करके, हिंसा, रोग, युद्ध का सहारा भी लिया जा सकता है।
जलवायु में दो पंचतत्व पानी और हवा शामिल है। दोनों को बाजार में खड़ा कर दिया गया है। जबकि कुछ वर्षों पहले यह सहजता, सरलता, सादगी से उपलब्ध हो जाते थे। पानी का बाजार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। पानी के स्रोत आम जनता से दूर किए जा रहे है। पानी बोतल में बंद हो गया।
आओ मिलकर सोचें-समझें और सही दिशा में कदम बढ़ाएं।