जब चंबल की सरिताएं मिट्टी के कटाव के कारण सूखी वादियों में बदलना शुरू हुई, तब धरती नंगी और वीरान होने लगी। तभी यहां से उजाड़ और विस्थापन आरंभ हो गया था। पशुपालन, खेती, उद्योग कुछ भी नहीं बचा था। मीलों मील चलने पर भी पीने का पानी नहीं मिलता था। जब पीने के पानी की सुरक्षा समाप्त हुई, तो आशाओं के बीज भी सूखने लगे।
जब आशाएं मरने लगती हैं, तभी दूसरों की आशाओं को मारना आरंभ हो जाता है। चंबल की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। चंबल के बीहड़ यही बोल रहे हैं कि, यहां के बागी अपनी इच्छा से बागी नहीं बने थे, उन सब बागियों की कहानी भी ऐसी ही है। भूखे मरते, बेइज्जत होते लोगों ने मजबूरी में बंदूके उठाकर बागी बनना तय किया था।
चंबल में मिट्टी के कटाव और पानी के बहाव ने इन्हें बेकाम, बेकार और लाचार बनाया था। वर्षा ने चंबल की चट्टानों से मिट्टी धोकर निकाल दी थी। जहां चट्टानें नहीं थी, वहां मिट्टी काटकर बहा दी थी। यह मिट्टी का कटाव और बहाव चंबल के लिए अभिशाप बन गया है। इसने चंबल को बागी-दस्यु क्षेत्र घोषित कराया था।
आजादी के आंदोलन में चंबल के बागियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। आजादी के बाद इन्होंने बहुत बार आत्मसमर्पण किया था। 1972 में हुए आत्मसमर्पण में लोकनायक जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, महावीर भाई तथा एस.एन. सुब्बाराव की भूमिका खास रही थी, उस वक्त 52 डाकुओं ने आत्मसमर्पण किया था। मलखान सिंह तहसीलदार ने स्वयं आत्मसमर्पण करके, अन्य बागियों को भी आत्मसमर्पण करवाया था। आत्मसमर्पण के बाद ये लोग शांति से तो जिए, लेकिन जीविका को चलाने का संकट इनके सामने बना ही रहा। कुछ बागियों को ले बाद में गांधी आश्रम जौरा, मध्यप्रदेश में खादी के काम का सहारा देने का अच्छा प्रयास हुआ था। पी. वी. राजगोपाल, रनसिंह परमार आदि ने इस काम को मध्यप्रदेश के क्षेत्र में आगे बढ़ाया था।
जलपुरुष के नाम से विख्यात राजेन्द्र सिंह इस काम से आरंभ से ही अवगत थे, लेकिन इन्हें यह मालूम नहीं था कि इन्हें भी आगे चलकर यही काम करना पड़ेगा। अप्रैल 1980 में जलपुरुष ने जयपुर व अलवर जिले में भारत सरकार के युवा विभाग के साथ मिलकर काम शुरू किया था। तब ये सरकारी कामों में युवा कल्याण, सामाजिक चेतना तथा ग्रामीण युवाओं को गांव में ही कुछ काम मिले; इस हेतु व्यवसाय, कौशल विकास तथा स्वास्थ्य प्रशिक्षण आयोजित करवाते थे। तब भी इन्होंने रामपुरा और बंजारों की ढाणी में पानी का काम किया था, तालाब बनवाये थे।
जब राजेन्द्र सिंह ने सरकार छोड़कर, अलवर की थानागाजी तहसील के गांव गोपालपुरा में काम किया, तब गांव में मिट्टी कटाव के कारण सिर्फ नंगे पहाड़ थे। पहाड़ की तपन से गांव में बेमौसम वर्षा होती थी, कुएं सभी सूखे थे। लोग बेरोजगार, लाचार और बेकार बनकर रोजी-रोटी के लिए बाहर चले गए थे। जब यहां खनन बंद हुआ, तो सभी को पानी बचाने के काम में लगा दिया। सभी पानी बचाने के काम में जुटे।
लेकिन चंबल क्षेत्र में ऐसा नहीं हुआ, वहां खनन बंद हुआ, तो बंदूकधारियों ने बंदूकों से खनन चलवाया था। लूटपाट में लगे लोगों के पास पानी होता तो ये अपनी खेती और पशुपालन में लग जाते। इन्हें पानी का काम करना आता था, लेकिन वह नहीं किया था। जल, जीवन, जीविका बचाने जैसे खास कामों को समझना उनके लिए मुश्किल था। खैर! चंबल के लोगों को राजेन्द्र सिंह के तरुण भारत संघ के अलवर के काम ने ही क्रांति करना सिखाया था।
करौली के सपोटरा, मंडरायल, कैला देवी, मासलपुर तथा धौलपुर जिले के सरमथुरा क्षेत्र की 9 जलधाराओं बामनी, बम्हाया, खर्राबाई, सैरनी, नेहरो, तेवर, काला सिंह, महेश्वरा व चोरघान (गुटा) पर जल संरक्षण का काम शुरू हुआ था; तब इन्हें खेती में बहुत ही उत्साहजनक रोजगार मिला। तब बंदूकों का स्थान पशुपालन और खेती ने ले लिया। जल संरक्षण से हरियाली बढ़ी। हरियाली ने बागियों के मन में भी प्यार से हरियाली के बीज बो दिए। बागियों के मन भी हरे होने लगे। तरुण भारत संघ ने 35 सालों में जो प्यार के बीज बोये, उनसे पहले तो इनका डर निकाला, फिर इसी निडरता ने इनके आत्म-विश्वास को और बढ़ा दिया।
विश्वास घात करना उनकी आदत में था; तरुण भारत संघ के साथ बहुत बार विश्वासघात हुआ, लेकिन तरुण भारत संघ कभी भी आहत नहीं हुआ। जब कभी आहत हुआ भी तो 3 से 7 दिनों में उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया। अपनी गलती का अहसास करके, वे जल्दी ही अच्छे काम कराने का आभास करा लेते थे। तरुण भारत संघ के कार्यकर्ता प्रशिक्षित थे, उनकी गलती सुधार करके, उन्हें प्रेम से अपने साथ जोड़ लेते थे। तरुण भारत संघ का कोई भी कार्यकर्ता कभी भी डर कर नहीं भागा, वर्ष दर वर्ष यह विश्वास बढ़ता ही चला गया।
विश्वास ही व्यक्ति को अनुशासित बनाता है। यही अनुभव बागियों के साथ हुआ। अब पिछले 10 वर्षों से विश्वासघात खत्म हो गया और अनुशासन इनके जीवन का हिस्सा बन गया है। इनके जीवन पर फिल्म बनाने वाली लूसी मार्टिन इन्हीं के साथ, उनके घरों में बागियों की स्त्रियों के साथ रही थी। इनके साथ कभी कोई बुरा व्यवहार नहीं हुआ। लूसी कहती है कि, ये बहुत सरल-सीधे व सज्जन लोग हैं, पता नहीं सरकारें इन्हें क्यों बागी बनाती हैं?
नवंबर 2023 में इस क्षेत्र में आयोजित तीन दिवसीय सम्मेलन में पूरी दुनिया के सभी महाद्वीपों से 55 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। इन्होंने दोपहर का भोजन गांव में और घरों में कराया था। सभी ने इन लोगों की बहुत ही प्रशंसा की थी। चिली की बारबरा कहती है कि, मैंने ऐसे अच्छे लोग दुनिया में कहीं नहीं देखे। अमेरिका की टीना कहती है कि, ये बहुत अच्छे लोग हैं। यह क्षेत्र तो हमारे लिए तीर्थ-स्थान जैसा है, जहां जाकर लोग अच्छे काम करने की प्रेरणा लेते हैं। पीरु के लोगों ने कहा कि, हमारे परंपरागत ज्ञान में भी ऐसी घटनाएं और कहानियां हमें पढ़ने को नहीं मिलीं, जैसा हमने धौलपुर-करौली में रहकर जल से शांति का काम देखा है। जल ने यहां शांति कायम कर दी है। पुर्तगाल से आए लोगों और महिलाओं ने कहा कि, हम शांतिप्रिय हैं, परंतु चंबल के विषय में पढ़कर और देखकर चमत्कृत हो गए हैं।यह चमत्कार हम पूरी दुनिया को बतायेंगे।
बेनिन से आए दारा सलीम ने कहा कि, मैं यहां से जो सीख कर जा रहा हूं, वह अपने देश में भी करने का प्रयास करूंगा। मैं अपनी काउंटी का किंग हूं, लेकिन मैं भी ऐसा नहीं कर पाया। मेरे जीवन का लक्ष्य भी सत्य और शांति है। कोनहोह ने कहा कि, यह कार्य हमारे लिए सच्चा तीर्थ है। अफ्रीका के देशों से आने वाले लोग इसे देखकर बहुत चकित है।
चंबल अब जल शांति का विश्वमॉडल बन गया है। यहां दुनिया भर के लोग आकर इस काम को देख रहे हैं। यह काम जलपुरुष के प्रयास से आरंभ हुआ था। इसमें श्रवण शर्मा, छोटेलाल मीणा, राहुल सिंह, मीना सिंह, मौलिक सिसोदिया, पूजा भाटी, चमन सिंह, रणवीर सिंह, छाजूराम आदि सभी तरुण भारत संघ के कार्यकर्ताओं का योगदान रहा है। जलपुरुष कहते है कि, सभ्यताओं का पुनर्जीवन एक व्यक्ति नहीं कर सकता, लेकिन एक सरिता सभ्यता का पुनर्जीवन कर सकती है। चंबल की सभ्यता का पुनर्जीवन जल सरिताओं से ही हुआ है।