हमारे देश में पानी के विषय में इतनी विलक्षण श्रद्धा है कि हम नदी को माता मानते हैं और जहां-जहां नदियां हैं, वहीं हमने तीर्थ क्षेत्र बना लिये हैं। ग्रहण और अन्य पर्वों के अवसरों पर लाखों लोग वहां स्नान करने जाते हैं। कुंभ मेले के समय लाखों लोग गंगा-स्नान करते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि यह सारी मूर्खों की जमात है। गंगा नहाने से हमें कुछ भी हाथ नहीं लगता, बेकार पैसे खर्च होते हैं। पुराने जमाने से ऐसी कितनी ही अंध श्रद्धाएं चल पड़ी हैं। लेकिन सोचने की बात है कि कुंभ मेले में जुटनेवाले लोगों की संख्या मामूली नहीं होती। यूरोप के किसी छोटे राष्ट्र की जनसंख्या से अधिक लोग उस अवसर पर नहाने पहुंचते हैं। क्या उन सभी नदी-स्नान करनेवालों को मूर्ख माना जायेगा? हमारे देश में दस हजार वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है। इसलिए हिंदुस्तानियों की यह कथित सनक कभी मिट नहीं सकती। विज्ञान कितना भी सिखाये कि पानी यानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का योग है, फिर भी हम लोग यही समझते रहेंगे कि, वह राम-लक्ष्मण का योग है।
वेद में एक मंत्र है:
यासां राजा वरुणो याति मध्ये
सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम्
अर्थात् लोगों के सत्य और झूठ की परीक्षा करने वाला परमात्मा जल में निवास करता है।
हमारे यहां कहते हैं कि, ‘जल हाथ में लेकर बोलो,’ यानी माना जाता है कि जल हाथ में लेनेवाला मनुष्य कभी झूठ नहीं बोल सकता। जल की इतनी अधिक प्रतिष्ठा होने का कारण यही है कि, वह सत्यासत्य की परीक्षा करता है। इस भोलेपन को आप कितना भी धो डालें, फिर भी जिस तरह काले लोगों की काली चमड़ी को साबुन से लाख धोने पर भी उसका काला रंग नहीं मिटता, उसी तरह हमारा यह भोलापन कभी नहीं मिट सकता।
अब यही देखिए, हम लोगों में स्नान करते समय पुरुषसूक्त का पाठ करने की परंपरा चली आयी है। सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। ऐसे देखा जाये तो स्नान की क्रिया से पुरुषसूक्त का क्या संबंध? जिस विराट् पुरुष के हजार हाथ और हजार आंखें हैं, उसका मेरे इस स्नान से क्या संबंध? संबंध यह कि, तुम जो लोटा भर जल सिर पर डालते हो, उसमें हजारों बूंदें हैं; वे बूंदें तुम्हारा मस्तक धो रही हैं, तुम्हें निष्पाप बना रही हैं। मानो तुम्हारे मस्तक पर ईश्वर का आशीर्वाद बरस रहा है। परमेश्वर के सहस्र हाथों से सहस्र धारा ही मानो तुम पर बरस रही हैं। बूंदों के रूप में परमेश्वर ही तुम्हारे सिर के अंदर का मैल धो रहा है। ऐसी दिव्य भावना स्नान में उड़ेलो, तो वह स्नान कुछ निराला ही हो जायेगा। उस स्नान में अनंत शक्ति आ जायेगी।
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हमारे देश भारत में पानी के विषय में इतनी अधिक श्रद्धा क्यों है ? बात यह है कि नदियां परमात्मा की बहती हुई करुणा है, इस तत्त्व का हमारे देश ने दर्शन किया है। नदी के तट पर रहने वाले लोग रोज ही देखते हैं कि, नदी का पानी यहां से सतत् आगे-आगे बहता है और पीछे से नया पानी आता ही रहता है। अर्थात् देते रहने से मिलता रहता है, यह हम देखते हैं। पानी ईश्वर है क्योंकि वह भेदभाव जानता नहीं। ज्ञानदेव ने कहा है कि नदी कभी यह नहीं सोचती कि गाय की ही प्यास बुझायी जाये और क्रूर होने के कारण शेर की प्यास न बुझायी जाये। कारण, नदी ईश्वर की करुणा है और ईश्वर की करुणा सबको समान सुलभ होती है। अतिष्ठन्तीनां अनिवेशनानाम्– पानी कहीं रुकता नहीं। उसे घर-द्वार नहीं। इसलिए पानी को संन्यासी की उपमा दी है।
गंगा को जाना तो है समुद्र के पास, लेकिन अपनी ध्येयसिद्धि के उस कार्य के बीच वह तीर पर स्थित असंख्य वृक्षों को पानी पिलाती हुई जाती है। वैसे ही साधुपुरुष को करना चाहिए। अखंड प्रवाह, परोपकार, करुणा, उदारता, शीतलता ये सारे गुण हमें पानी में दिखायी पड़ते हैं। मनुष्य कितना ही तृप्त क्यों न हो, ठंडे जल से स्नान करते ही एकदम शांत हो जाता है।
क्रमश:
*जल पुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक