– ज्ञानेन्द्र रावत*
जोशीमठ भावी आपदा का संकेत है जिसका जनक मानव है
आज जोशीमठ की आपदा एक गंभीर चिंता का विषय है। वहां भूधंसाव के चलते जोशीमठ दिन ब दिन विलुप्ति की ओर बढ़ रहा है। इस भूधंसाव के अलग- अलग कारण गिनाये जा रहे हैं लेकिन हकीकत में तो इसके पीछे प्रकृति से छेड़छाड़ और उन चेतावनियों-निर्देशों की अनदेखी अहम है जो सामरिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस इलाके के संरक्षण हेतु समय-समय पर दिये गये थे और यहां की स्थिति के मद्देनजर एक शहरी नियोजन की नीति निर्धारण की सिफारिश की गयी थी। उस स्थिति में जबकि जोशीमठ की पवित्र बदरीनाथ धाम और हेमकुंड साहिब के गेट वे के रूप में ख्याति है। और तो और आदि शंकराचार्य का प्रसिद्ध ज्योतिष्मठ भी यहां है।
चेतावनियों की अनदेखी का मामला अभी हुआ है, ऐसी भी बात नहीं है। उनकी अनदेखी का यह सिलसिला तो दशकों से जारी है। हालात इतने बिगड़ गये तब कहीं जाकर वहां नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फ़ोर्स (एनडीआरएफ) और स्टेट डिजास्टर रिस्पांस फ़ोर्स(एसडीआरएफ) की कई टीमें जोशीमठ आंकलन करने पहुंची हैं और राहत व बचाव के कामों को अंजाम दे रही हैं। अब जबकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस पर संज्ञान लिया है तब यहां नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए), नेशनल इंस्टीट्यूट आफ डिजास्टर मैनेजमेंट, जियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, आई आई टी रुड़की, विडियो इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलाजी, नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हाइड्रोलाजी और सेन्ट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों की टीम मौजूदा हालात का जायजा लेने जायेंगी और उसका अध्ययन कर उसके निपटने के सुझाव केन्द्र सरकार को देगी। अब सवाल यह है कि आखिर इसकी नौबत क्यों आयी?
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यहां गौरतलब यह है कि आखिर ऐसा अब क्यों हो रहा है। बीते 47 सालों से स्थानीय प्रशासन और सरकारें क्या सो नहीं रही थीं? इस दौरान भी इस इलाके का एक बार सर्वे हुआ हो, ऐसा भी नहीं, तकरीबन पांच बार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसका सर्वे किया गया, प्रख्यात पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट आदि ने उन सर्वेक्षणों में अहम भूमिका निबाही और अपनी रिपोर्टें दीं लेकिन उनका क्या हुआ। वे सभी ठंडे बस्ते में डाल दी गयीं। यही नहीं समय समय पर इस इलाके का जियोलाजिकल, जियो टैक्नीकल और जियो फिजीकल अध्ययन कराने की संस्तुतियां की गयीं जिनकी कभी जरूरत महसूस ही नहीं की गयी। और तो और बीते साल के अक्टूबर महीने में विशेषज्ञों ने अपनी 28 पेज की रिपोर्ट में चेताया था कि जोशीमठ की जमीन कमजोर है और 2021 की ऋषिगंगा की बाढ़ और अक्टूबर में हुयी 1900 मिलिमीटर भीषण बारिश के बाद यहां भूधंसाव तेजी से देखने को मिल रहा है जो चिंतनीय है। कारण ऋषिगंगा की बाढ़ के चलते आये भारी मलबे से अलकनंदा के बहाव में बदलाव आया जिससे जोशीमठ के निचले इलाके में हो रहे भूकटाव में बढ़ोत्तरी हुयी। साथ ही अक्टूबर महीने में तीसरे हफ्ते यानी 17 से 19 तारीख के बीच हुई 1900 मिमी भीषण बारिश से रविग्राम व नऊ गंगा नाला क्षेत्र में बढ़े भूकटाव से जोशीमठ में भूधंसाव की घटनाओं में तेजी से बढ़ोत्तरी हुयी।
फिर सरकार को इस इलाके में जल विद्युत परियोजनाओं की मंजूरी ही नहीं देनी थी जिसके लिए निर्माण कंपनियों ने सुरंगें बनाने के लिए विस्फोट किये। नतीजतन पहाड़ छलनी हो गये, खंड-खंड हो गये। इससे जोशीमठ ही नहीं समूचे उत्तराखंड में जहां जहां पन बिजली परियोजनाओं पर काम हो रहा है, वहां सभी की कमोवेश यही स्थिति है। जबकि पर्यावरण विज्ञानी, पर्यावरणविद बरसों से इस बाबत सरकार को चेता रहे हैं कि जल विद्युत परियोजनाएं इस अति संवेदनशील इलाके के हित में नहीं हैं। पर्यावरण विज्ञानी, विशेषज्ञों की यह एकमुश्त राय है कि उत्तराखंड में चल रही अनियंत्रित विकास योजनाओं को तत्काल प्रभाव से बंद कर देना चाहिए। सरकार को राज्य में सुरंग बनाने और विस्फोट करने पर तात्कालिक रूप से रोक लगा देनी चाहिए। इन्होंने उत्तराखंड को संकट में डाल दिया है और विनाश के मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया है। आईपीसीसी की रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है कि यह समूचा इलाका आपदा संभावित संवेदनशील क्षेत्र है।यहां पर ढांचागत विकास हेतु पर्यावरण अनुकूल योजनाएं बनानी चाहिए और बिजली उत्पादन के लिए दूसरे तरीकों की तलाश की जानी चाहिए। यहां पनबिजली परियोजनाओं से लाभ नहीं बल्कि पर्यावरण का जो नुकसान होगा, उसकी भरपायी असंभव होगी।
इससे यह साफ है कि जोशीमठ भावी आपदा का संकेत है जिसका जनक मानव है। इसके पीछे आबादी और बुनियादी ढांचे में कई गुणा हुयी अनियंत्रित बढ़ोत्तरी की भूमिका अहम है। अब इसे कस्बा कहना उचित नहीं होगा क्योंकि अब भले यह 25-30 हजार की आबादी को पार कर गया है, उस स्थिति में इस शहर में जल निकासी की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। वैज्ञानिक तथ्य इसके सबूत हैं कि चट्टानों के बीच महीन सामग्री के क्रमिक अपक्षय की वजह से हुए पानी के रिसाव से भूधंसाव हुआ है।उसके परिणाम स्वरूप मकानों में दरारें आ रही हैं। फिर विस्फोट के जरिये सुरंगों के निर्माण से भूकंप के झटकों की आवृत्ति भी बढ़ रही है। अब तो दरारों का दायरा ज्योतिर्मठ और शहर के बाजारों तक पहुंच गया है। यह संकेत है कि यह सिलसिला थमने वाला नहीं और भीषण आपदा को आमंत्रण दे रहा है। अब तो नैनीताल, कमजोर पत्थरों पर टिका चंपावत और चूने की पहाडि़यों पर टिका उत्तरकाशी इससे अछूता नहीं हैं। चंपावत के सूखीडांग के पहाड़ तो सबसे कमजोर हैं। कुमांऊं विश्व विद्यालय के भूगर्भ विज्ञानी बी एस कोटालिया की माने तो नैनीताल के मुहाने पर स्थित बनियानाला के समूचे पहाड़ का इलाका हर साल एक मीटर की दर से दरक रहा है जो खतरे का संकेत है। यह इलाका भी भूस्खलन और भूधंसाव के लिहाज से काफी गंभीर है। दुख तो इस बात का है कि सरकार ने 2013 की केदारनाथ आपदा और 2021 की ऋषिगंगा की बाढ़ से भी कोई सबक नहीं सीखा। उसके बावजूद आल वैदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल मार्ग आदि के निर्माण उत्तराखंड को तबाही की ओर ले जाने के लिए काफी हैं। यह समझ नहीं आता कि सरकार उत्तराखंड को खत्म करने पर क्यों तुली है।
अब सवाल यह उठता है कि इस बर्बादी के लिए कौन जिम्मेदार है। सरकार और प्रशासन तो इसके लिए जिम्मेदार हैं ही, वहां के लोग भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं जिन्होंने जानते-बूझते जहां चाहा, वहीं मकान बनाये और रहने लगे। स्थानीय प्रशासन को भी यह देखना चाहिए था कि आखिर इस संवेदनशील क्षेत्र में इस तरह के भवन निर्माण क्यों हो रहे हैं और यदि हो रहे हैं तो उन्हें रोका जाना था। यह सब यहां आबादी के विस्तार और नगर नियोजन की नाकामी ही दर्शाते हैं।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।
The centre has taken note of it but what about subsidence issues in Coalfields of Dhanbad.