कचरे का पहाड़ आज अधिकांश जगहों के लिए एक बड़ी समस्या बन चुके हैं। देश के शहरों में सलाना 6.2 करोड़ टन से भी ज्यादा कूड़ा निकलता है। कोई शहर या कस्बा इस समस्या से अछूता नहीं है।
एक तरफ आज पहाड़ टूट रहे हैं तो दूसरी तरफ कचरे के पहाड़ बन रहे हैं। हमारे शहरों की एक बड़ी समस्या निस्तारण की है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हमारे अधिकतर नगर कचरे का सही तरह निस्तारण करने में नाकाम हैं। इस नाकामी से देश की राजधानी दिल्ली अग्रणी है।
कचरे की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है, दूसरे देशों में भी बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है।। दुनिया में जैसे जैसे शहरीकरण की गति तेज होती जा रही है नगरपालिका के स्तर पर बढ़ता कचरा एक कठिन चुनौती पेश कर रहा है। दुनिया शहरों की तरफ अग्रसर हो रही है लेकिन शहरी जीवन शैली के परिणामस्वरूप नगरपालिका के स्तर पर जमा होने वाले ठोस कचरे (एम एस डबल्यू ) की तादाद शहरीकरण की दर से भी अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व बैंक की रिर्पोट में कहा गया है कि 2.9 अरब लोग दस वर्ष पहले महानगरीय क्षेत्र में रहते थे और और प्रति व्यक्ति के हिसाब से रोजाना 1.2 किलोग्राम ठोस कचरा (1.3 अरब टन प्रतिवर्ष ) तैयार कर देते थे।
एक रिर्पोट के अनुसार भारत के शहरी क्षेत्रों में 37.7 करोड़ लोग लोग अनुमानित तौर पर 6.2 करोड़ टन ठोस कचरे का उत्पादन सालाना करते हैं। कचरे की समस्या ने शहरों में भयावह रुप धारण कर लिया है। शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में कचरे की मात्रा कम होता है।
मुंबई का सबसे बड़ा कचरे का ढेर 110 हेक्टेयर क्षेत्रों में फैला देवनार कचरा स्थल है। दिल्ली में गाजीपुर, मुबारक चौक, ओखला में कचरे के बड़े बड़े पहाड़ बन चुके हैं। लेकिन विडंबना यह है कि न तो सरकार और न जनता अपने ही बनाए कचरे की जिम्मेदारी लेने को तैयार है। सरकार और जनता दोनों इसके लिए एक दूसरे के सिर कचरे की समस्या थोप देते हैं।
सरकार की निष्क्रियता एक कारण तो है पर कचरे की समस्या का मूल कारण है कि लोग अपने कचरे की जिम्मेदारी नही लेते। लोगों को अपने घर से कचरा निकाल देने भर में रुचि है लेकिन इसके बाद इसका क्या होगा इसकी चिन्ता नही है। जब से देश की आर्थिक स्थिति थोड़ी सुधरी हमारी क्रय शक्ति बढ़ती गई। हम पुराने जमाने में चीजों को दोबारा, तिबारा इस्तेमाल करने वाली संस्कृति को भूलते गए। चीजें थोड़ी भी पुरानी होती तुरंत नई चीजें ले लिया जाता है। डिब्बा बंद और प्लास्टिक में पैक चीजों को बेतहाशा खरीदने के चलते हमारा देश कचरे के पहाड़ से दबता चला गया।
अब यह कचरा हमें लीलने पर उतारू हो चला है। देश में कचरे का निपटाना, रीसाइक्लिंग आदि की वैसे ही आधी अधूरी व्यवसाएं हैं, ऊपर से हमारा गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा की कहावत को चरितार्थ कर देता है। अगर हम कचरा ही कम पैदा करें तो न रहेगी बांस न बजेगी बांसुरी। हमें अपनी उपभोक्तावादी संस्कृति को बदलनी होगी। खरीदारी के लिए झोला उठाना होगा। खराब चीजों को फिर से इस्तेमाल की आदत बनानी होंगी। घरेलू कचरे की मात्रा कम करने के साथ उसके प्रभावी निपटान की विशेषता हासिल करनी होगी। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि दूर फेंक देने से कचरा नुकसान नहीं पहुंचाएगा।
हम अगर संकल्प कर लें तो कचरा प्रंबधन को अपनी आदत में शामिल कर सकते हैं। 1970 से पहले शहरों और कस्बों से सटे गांवों के किसान किचन से पैदा हुए कचरों को ले जाते थे और अपने खेतों में कंपोस्ट तैयार करते थे। यह स्वस्थ आदत दो चीजों के चलते खत्म हो गईं। एक तो प्लास्टिक युग की शुरूआत से लोगों ने अपने किचन के कचरे को फेंकना शुरू कर दिया। इससे यह कचरा किसानों के लिए अनुपयोगी हो गया। दूसरी वजह इस परंपरा के खत्म होने की वजह बनी सरकार द्वारा उर्वरक पर भारी सब्सिडी देना। हम सभी को इसपर विचार करना चाहिए। सबसे महत्तवपूर्ण बात यह है कि हम जितना अधिक कचरा पैदा करेंगें उससे छुटकारा पाने में हमें उतनी ही अधिक कठिनाई होगी।
बाबू लोग नेता लोग काम करने दें तो कूड़े के पहाड़ साफ हो जाएंगे और बिजली भी बनेगी परंतु इन्हें निचु से कोरोड़ो चईये तब्बी काम करने देंगे।