गांधी जयंती पर विशेष: ज्वलंत सवालों का हल है गांधी विचार में
– सुरेश भाई*
1891 में विलायत से बैरिस्टर बनकर महात्मा गांधी भारत आए थे।उन्होंने वहां अंग्रेजी भाषा में ही वकालत की पढ़ाई की थी। लेकिन उन्होंने “सत्य के प्रयोग” नामक आत्मकथा गुजराती भाषा में ही लिखी। वह चाहते तो अंग्रेजी भाषा में भी लिख सकते थे। वह मानते थे कि अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देना गुलामी में डालने जैसा है। वह मैकाले की शिक्षा को गुलामी की बुनियाद कहते थे।
जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के दौरान अंग्रेजी भाषा में पढ़ाई की उसमें से ही भारतीयों पर जुल्म करने वाले पैदा हुए हैं। भारतीय रियासतों की आपसी लड़ाई के कारण राजाओं को अंग्रेजों की शरण में जाने के लिए मजबूर किया था। इसमें भी अंग्रेजी भाषा का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था का शोषण और व्यापार को बढ़ावा अंग्रेजी भाषा की बुनियाद पर ही दिया गया था।
महात्मा गांधी का विचार था कि हिंदू को संस्कृत का, मुसलमानों को अरबी का, पारसी को फारसी, और सब को हिंदी का ज्ञान होना चाहिए। उत्तरी और पश्चिमी हिंदुस्तान के लोगों को तमिल जरूर सीखना चाहिए और उर्दू और नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए ।हिंदू- मुसलमानों के संबंध ठीक रहे इसके लिए एक दूसरे की भाषा सीखनी चाहिए। गांधी का यह विचार आज के हिंदुस्तान के लिए भी सही है।आधुनिक समय में अंग्रेजी विश्व के देशों की भाषा बन गई है ।इसके पीछे के कारण यही है कि अंग्रेजी हुकूमत का प्रभाव केवल भारत में ही नहीं दूसरे देशों में भी था इसलिए उनकी भाषा सर माथे पर रखी गई है ।
अब सवाल उठता है कि क्या अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल न हो। लेकिन इस संबंध में गांधी के विचार को भी समझना पड़ेगा जिसमें उन्होंने कहा कि मेरे लेखों को कोई प्रमाण भूत न समझे। मैं तो सिर्फ यही चाहता हूं कि उनमें बताए गए प्रयोगों को दृष्टांत में रखकर सब अपने-अपने प्रयोग करें ।आज इस रूप में इसे समझना चाहिए कि भारत के लाखों गांव के बच्चे जब अंग्रेजी की शिक्षा लेते हैं तो उनका ज्ञान अंग्रेजी भाषा के वातावरण के अभाव में अधूरा रहता है। कई विद्यार्थी भाषा के जंजाल में फंसकर अपनी मातृभाषा से हाथ धो बैठते हैं ।इसके पीछे का कारण यह है कि हमने भी अपने देश की भाषा को महत्व नहीं दिया है। यदि हम अंग्रेजी को दूसरे नंबर की भाषा रखते तो सभी प्रकार की शिक्षा ग्रहण करने में विद्यार्थी सहजता महसूस करता और अंग्रेजी भाषा के बोझ से बच सकते थे। इसमें चाहे कितने ही लोग ऐसे होते जो अंग्रेजी भाषा में ही सीख लेते हैं लेकिन इससे मातृभाषा पर लोगों का गर्व बन सकता था ।
महात्मा गांधी के जीवन में ऐसी कई घटनाओं का वर्णन है जो प्रत्येक मनुष्य सीखकर गौरवान्वित महसूस कर सकता है। सन 1888 में जब वकालत सीखने गए थे तो उन्हें पहले पहल बहुत परेशानी उठानी पड़ी क्योंकि हर खाने की वस्तु में मांस होता होता था।बाद में वह कमरा लेकर रहने लगे।
विलायत में रहते जब उन्हें लगभग एक वर्ष हो गया तो उनका संपर्क दो सगे भाइयों से हुआ। उन्होंने गांधी को संस्कृत में गीता पढ़ने का न्योता दिया। उन्हें तो संस्कृत पढ़ने की आदत ही नहीं थी फिर उन्होंने प्रयास किया। जिसके फलस्वरूप उनके मन पर गीता के श्लोकों का गहरा असर पड़ा । जिसके बाद गीता उनके नित्य पाठ का ग्रंथ बन गई। यही ज्ञान जब आगे बढ़ा तो यीशु, पैगंबर हजरत मोहम्मद के बारे में भी पढ़ने से सब धर्मों के प्रति एकरूपता, विश्वास और त्याग की भावना उनमें जागृत हुई।
गांधी की गुजराती में लिखी आत्मकथा की विशेषता यही है कि उन्होंने जीवन में सत्य और अहिंसा के बल पर जो भी प्रयोग किए उसकी एक भी सच्चाई छुपाई नहीं है।अपनी सारी कमियों और कमजोरियों को भी लिखा है। अपने विद्यार्थी जीवन के विषय में उन्होंने लिखा है कि जब वह हाईस्कूल की परीक्षा दे रहे थे तो स्कूल में विद्यालय निरीक्षक आए, उन्होंने अंग्रेजी के पांच शब्द लिखवाये जिसमें एक शब्द था केटल (kettle)। उनके शिक्षक ने पीछे से उन्हें गाइड भी किया और बगल के विद्यार्थी से नकल करके स्पेलिंग सुधारने के संकेत दिए लेकिन उन्होंने नकल करने के लिए मना किया। इससे उन्हें अपने जीवन में हुई गलतियों से लिखने पढ़ने की ओर अधिक रुचि बढ़ी। अपने स्कूल में हरिश्चंद्र और श्रवन कुमार का नाटक देख कर गांधी रो पड़े और उन्होंने महसूस किया था कि हरिश्चंद्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं बनते हैं?
विद्यार्थी जीवन में कुसंगत का कितना प्रभाव पड़ता है उसका अनुभव भी गांधी ने प्राप्त किया ।उनके एक दोस्त ने मांस खाने के लिए बाध्य किया किया था तब वह हाई स्कूल के विद्यार्थी थे। दोस्त का तर्क था कि बड़े-बड़े राजा महाराजा और कई शिक्षक भी मांस खाते हैं। उन्होंने जब मांस खाना प्रारंभ किया तो उन्हें रात भर महसूस हुआ कि बकरा उनके पेट में रो रहा है। फिर इसके बाद कभी मांस नहीं खाया। इसी तरह उन्हें अपने एक रिश्तेदार के साथ एक बार बीड़ी पीने का शौक होने लगा। उनके पास बीड़ी खरीदने के लिए पैसे ही नहीं थे वे लेकिन इधर उधर से बीड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल करने लगे। घर से नौकर के पैसे चुरा कर और अपने भाई के सोने के कड़े से एक तोला सोना तोड़कर के बीडी का उधार चुकाया था ।परंतु कुछ समय बाद उन्हें अपनी गलती महसूस हुई। उन्होंने सोचा कि अपने पिता के समक्ष यह दोष स्वीकार करूं पर उनकी जुबान कुछ बोल नहीं सकी। आखिर में उन्होंने एक चिट्ठी लेकर अपने पिता के सामने अपना सारा दोष प्रकट किया और सजा मांगी।उनके पिता कर्मचंद गांधी ने उनका पत्र पढ़ने के बाद फाड़ कर सोने चले गए। इस घटना पर गांधी भी रोए। उन्होंने अपनी गलती को बता कर संतोष महसूस किया। उनके पिता ने भी उनकी इस कमजोरी को समझ कर माफ कर दिया ।इसके बाद उन्होंने कभी न बीड़ी पी और न मांस खाया और न चोरी की जिसके कारण वे ‘बापू’ का स्थान ले सके।
विस्तार पूर्वक जानकारी के लिए गांधी की आत्मकथा जिसका नाम है “सत्य के प्रयोग“, को नई पीढ़ी को पढ़ना चाहिए तभी हम गांधी के जीवन संघर्ष और आजादी के आंदोलन के समय उनके सत्य और अहिंसा के विचार को समझ सकते हैं।
*लेखक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।