प्राचीन काल से ही नदियाँ भारतीय जनमानस के भावनात्मक जीवन का अभिन्न अंग रही हैं। भारतीय नदियाँ सिर्फ भौगोलिक सत्य नहीं बल्कि भावनात्मक सत्य भी हैं। गंगा सिर्फ एक नदी नहीं है बल्कि वह ‘गंगा मैया’ है। इसी प्रकार नर्मदा नदी ‘नर्मदा मैया’ है। यह भारतीय संस्कृति की अनूठी विशेषता है।
भारतीयों के हृदय में नदियों विशेषकर गंगा, नर्मदा और यमुना के प्रति इतनी कोमल एवं पवित्र भावनाएँ कैसे उत्पन्न हुईं? ये भावनाएँ सहस्राब्दियों तक कैसे कायम रहीं? हर भारतीय इन नदियों के प्रति प्रेम और स्नेह महसूस करता है। ऐसी पवित्र नदियों की भूमि में जन्म लेना सौभाग्य माना जाता है। ‘दुर्लभे भारते जन्म’ भाषा और संस्कृति की इतनी विविधता वाले देश में यह गौरव की भावना कैसे फैली? नदियाँ एकता का प्रतीक कैसे बनीं? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? ऐसी अनोखी कल्पना किसने दिखाई? इसके लिए किसने अथक परिश्रम किया?
उक्त सवालों का जबाव मिल गया है। दुनिया की ‘गुरू’ भारतीय संस्कृति में नीर, नारी, नदी को नारायण मानकर सम्मान दिया था। सम्मान को अंग्रेजो ने क्रियान्वित नहीं होने दिया। राज्यादेश द्वारा शहरों-उद्योगों का गंदा जल नदियों में सीधा डलवा दिया था। इसी से गंगा-यमुना सभी नदियाँ नाले बनकर बहने लगी। नालों को नदियाँ बनाना ‘सदाचार’ और नदियों को नाले बनाना भ्रष्ट्राचार-दुराचार होता है। भारत में अंग्रेजों ने दुराचार बढ़ाया था। प्रेम, सम्मान, श्रद्धा, ईष्ट-निष्ठ, भक्तिभाव समाप्त किया था।
ये प्रश्न मेरे मन में तब आए जब मैं भारत भर में विभिन्न नदी घाटियों का दौरा कर रहा था। जब मैं गंगा और नर्मदा नदी, गौमुख से गंगासागर, अमरकंटक से सोमनाथ तक यात्रा करके नदियों के घाटों पर विभिन्न राज्यों के तीर्थयात्रियों से मिला, पुजारी द्वारा किए जा रहे धार्मिक अनुष्ठानों और स्थानीय लोगों के साथ इन तीर्थयात्रियों की बातचीत को देखा और सुना, तो मुझे एहसास हुआ कि, भारत की नदियाँ ही विविधता में एकता का एक धागा है। यही इन तीर्थयात्रियों, भारतीयों को भारतीयता में बांधता है। तीर्थयात्री भारत के किसी भी क्षेत्र से हों, लेकिन इन नदियों और इन नदी के तटों पर बने तीर्थ स्थलों के प्रति उनकी श्रद्धा की भावना आज भी बिल्कुल वैसी ही है, जैसे पहले थी।
दुनिया भर में मानव सभ्यताओं और नदियों का गहरा रिश्ता है। प्राचीन मनुष्यों ने पहली बस्तियाँ नदी के किनारे स्थापित कीं। मानव संस्कृति का विकास नदियों के आसपास हुआ। भारत में आर्य सिंधु नदी के पार बसे और वहीं सिंधु सभ्यता विकसित हुई। इसे ही गंगा-युमना की संस्कृति भी बोलते है।
इस विशाल देश में, सभी महत्वपूर्ण नदियों के किनारे, उद्गम से लेकर संगम तक, प्राचीन ऋषि मुनियों ने तीर्थ स्थलों की स्थापना करके, महान कार्य किया। उन्होंने इन स्थानों पर सुंदर घाट और मंदिर बनवाए और उन्हें पूजा स्थलों में बदल दिया। नदी तटों का प्राकृतिक सौन्दर्य मानव कृतियों के सौन्दर्य से और भी निखर गया। प्राचीन ऋषि-मुनि इन स्थानों पर ध्यान के लिए आते थे। इससे इन स्थानों की पवित्रता और बढ़ गई। इन स्थानों की तीर्थयात्रा सभी भारतीयों के लिए एक परंपरा बन गई। भारतीय लोगों के मन में नदियों को आत्मसात कर लिया है।
जैसे-जैसे आम लोग इस तरह की तीर्थ यात्राओं के लिए देश भर में यात्रा करते थे, आम जनता में एकता की भावना बढ़ती गई। इन तीर्थयात्राओं के पीछे की विचारधारा को दार्शनिकों, आचार्यों और लेखकों ने इन नदियों के बारे में साहित्य रचकर आगे बढ़ाया। निस्वार्थ देशभक्तों ने व्यक्तिगत बलिदान देकर इसे आगे बढ़ाया। उन्होंने निर्वाण प्राप्त करने की दिशा में भारतीय मन की प्रकृति प्रवृत्ति के साथ पंथ और देश के प्रति प्रेम को एक साथ जोड़कर, महान कल्पनाशीलता दिखाई। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि, नदियों ने भारत की सांस्कृतिक एकता में बहुत बड़ा योगदान दिया है।
भारत जल और नदी की वास्तुकला के क्षेत्र में अग्रणी देशों में से एक है। सिंचाई, नदी प्रबंधन, नहरों, बांध निर्माण आदि कार्यों में भारत ने अग्रणी बनने की कोशिश करी है। वैदिक काल से ही हमारे पास जल विद्या थी; बाद में जल प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी विज्ञान आदि से जल अध्ययन करने की परंपरा रही है। ये विषय परिणामस्वरूप कई ऐतिहासिक बांध, नहरें और जल निकाय अभी भी कार्यशील हैं, बेशक उनमें से बाकी बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं या विदेशी आक्रमणों के दौरान नष्ट हो गए थे।
इन गतिविधियों के पीछे के मौलिक वैज्ञानिक सिद्धांतों को समझाने वाली महान जलविद्या अवश्य रही लेकिन दुर्भाग्य से ये अब जल विद्या हमारे लिए उपलब्ध नहीं हैं। विदेशी आक्रमणों के समय तिब्बत-नेपाल क्षेत्र से भी ऐसी विद्या समाप्त हो गई है। इसको समझने मैं, तिब्बत और नेपाल कई बार गया हूँ। गर्गमुनि के पाठ के कुछ पृष्ठ नेपाल में पाए जाते हैं लेकिन उनसे परपंरागत जल विद्या का केवल अहसास मात्र होता है। तिब्बत में कुछ लोग जल विद्या पर बात करने हेतु तैयार है लेकिन उस दिशा में प्रमाणिक काम वो नहीं कर पा रहे हैं। प्राचीन जल विद्या अहिंसक, सरल, सहज और व्यवहारिक है लेकिन सरकारी अनदेखी है।
यजुर्वेद का निम्नलिखित संदर्भ ऊपर दिए गए निष्कर्ष का समर्थन करता हैः-
नमो मेध्याय च विद्युत्याय च नमो वर्ष्याय च आवर्षस्य च। (यजु. 16.38)
अर्थः हम उन लोगों को नमन करते हैं जो कुओं, झीलों, सूखे के समाधान की विद्या को जानते है। साथ ही साथ वे गर्मी, वर्षा के बादल और उनकी रचना, बिजली, वर्षा लाने या वर्षा को रोकने की विद्या बांटते है।
जलविद्या, भारत में राजा जनक द्वारा सुखाड़ मुक्ति हेतु अपनी रानी के साथ मिलकर हल चलाया था। उनके पसीने से प्रकृति प्रसन्न होकर, बादल बनकर बरसी थी। कंस के काल में कृष्ण ने सभी ग्वालों और गायों को गोवर्धन पर्वत पर लेजाकर बाढ़ से बचा लिया था। इसे ही हम प्रकृति अनुकूलन कहते है। बाढ़-सुखाड़ मुक्ति की भारत में यही युक्ति थी। इस तथ्य को समझने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि, भारतीय प्राचीन इतिहास विद्या अनुसंधान का एक विशाल क्षेत्र है। मुझे आश्चर्य हुआ कि जलविद्या द्वारा नदियाँ, सभ्यताएं पुनर्जीवित हो जाती हैं।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक