जल शांति वर्ष 2024: क्यों कहते हैं भारत में नदी को माता?
– डॉ राजेंद्र सिंह*
नदी को भारत में माता कहा जाता है। इसका मतलब है कि नदी जीवित है। भारतीयों ने वैज्ञानिक ढंग भारत के ऋषि, महात्माओं, संतों सभी ने नदियों को माँ कहा है। माँ कहते हैं, इसका मतलब है कि मानव शरीर में रक्त की जो संक्रियाएं होती हैं, वैसे ही नदी में भी होती हैं। नदी के ऊपर बांध बनाकर, जब नदी को कैद कर देते हैं तो वह नदी मर जाती है। ऐसे ही किसी व्यक्ति का जब रक्त प्रवाह रोक दिया जाए, तो वह व्यक्ति मर जाता है। नदी को कैद करना हमारे शास्त्रों में नहीं था, इसके विरुद्ध अथर्ववेद में कहा गया है कि धरती की जल धाराओं को अपनी आज़ादी से प्रवाहित होने दो, जल धाराएँ यदि आज़ादी से प्रवाहित होंगी तो धरती का रक्षण-संरक्षण और पोषण अच्छा होगा। इस बात को बहुत पहले से अन्य शास्त्रों में भी कहा है। नदियों के प्रति भारतीय शास्त्रों व दर्शन में जो मान्यता थी वह केवल साहित्यिक और शास्त्रीय वर्णन नहीं है, बल्कि यदि आधुनिक भाषा में कहें तो यह वह विज्ञान था जो अध्यात्म के साथ जुड़ा था।
जब तक हम अध्यात्म को जीवित रखे रहे, तब तक भारत की नदियों में प्राण प्रवाह होता रहा। जब से हमने नदियों में कचरा और उद्योगों का प्रदूषित जल डालना शुरू किया, तो नदियाँ नाले बन गईं या सूख कर मर गईं। इस काम को यदि हम ध्यान से देखें तो अभी भी शास्त्रों में कही हुई बात में विज्ञान ज्यादा है। उसमें व्यवहार, सदाचार और तीर्थपन है। यह जब तक भारत में रहा, तब तक नदियाँ अविरल-निर्मल होकर बहती रहीं। जब से नदियों को देखने का नज़रिया बदला और उन्हें जीवित इंसान की तरह देखना बंद किया, तब से बीमारियां बहुत बढ़ी हैं। अभी नदियों की हालत बहुत खराब है और जहाँ जल प्रवाह की कमी के कारण नदियाँ बीमार है, पर इलाज क्लिनिक या हॉस्पिटल की बजाय ब्यूटी पार्लर में हो रहा है। बीमारी ह्रदय में है और वे इलाज चेहरे का कर रहे हैं ! उसे सुन्दर बनाने के लिए कॉस्मेटिक का इस्तेमाल कर रहे हैं जबकि सर्जरी की आवश्यकता है। ब्यूटीफुल घाट बना रहे हैं पर नदियों में प्रवाह कहाँ है? जो पानी है वो तो दूषित है ही। यह दृष्टि नदियों में बारे में ठीक नहीं है। हम अपनी नदियों को यदि इंसानी दर्ज़ा देकर, जीवित इंसान की तरह व्यवहार करेंगे तो नदियाँ फिर से बहने लगेंगी।
नदियों के बीमार होने का मुख्य कारण है कि नदियों को हमने इंसान की तरह देखना बंद कर दिया है। हम अब उसको माँ की तरह नहीं देखते। अभी भी हम माँ कहते तो हैं, लेकिन हमने उसे मैला ढोने वाली मालगाड़ी बन दिया है। इन नदियों में हमें जल का प्रवाह की मांग करना है, जिस तरह से हमारे शरीर में रक्त का प्रवाह होता है, वैसे ही एक नदी के शरीर में जल का प्रवाह होता है। तो यदि नदी में सुजल रहेगा, तो हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। ऐसे ही नदी का जल स्वस्थ होगा और नदियाँ प्रवाहमान रहेगी।
नदी के दर्शन और आस्था को जोड़ना बेहद जरूरी है। आज नदी की जो बीमारी है, उसे अपने शरीर की बीमारी से जोड़कर देखने लगें तो उसको परखना बहुत आसान हो जाएगा। नदी की बीमारी का हमें आसानी से पता चल जायेगा। लेकिन आज हम नदी को इंसान की तरह नहीं देख रहे हैं। जिसके कारण नदी की बीमारी की जटिलता का पता नही चलता। बीमारी को खोजने और जटिलता का पता लगाने के लिए जरूरी है कि, हम नदी को एक इंसान की तरह देखें और इलाज भी इंसान की तरह ही करें।
नदियों को जानने, समझने और समझाने की जरूरत है। यह हम तभी समझ सकते हैं जब अपना व्यवहार नदियों के साथ सदाचार का होगा। जब तक हम नदियों को भोग की वस्तु मानकर लेने का काम करेंगे तथा नदियों की धारण शक्ति से अधिक मिट्टी और रेत लेते रहेंगे, तो उसका शोषण होता रहेगा।
नदी के साथ प्यार, श्रद्धा ,निष्ठा, विश्वास के साथ इंसानी रिश्ता कायम करने जरूरत है। इन रिश्तों में जब सदाचार होता है, तब नदी अविरल बहती रहती है। जब नदियों के साथ हमारा दुर्व्यवहार होता है, तो नदी नाला बन जाती है। हमें तय करना है कि नदी को मानवीय रिश्तों के साथ जोड़कर कायम रखें। अपनी नदियों के साथ माँ जैसा व्यवहार करना होगा, तभी नदियाँ अविरल-निर्मल होकर शुद्ध सदानीरा होकर बहेंगी।
जल शांति वर्ष 2024 में अपने को स्वस्थ रखने और जीवन में शांति कायम करने के लिए नदियों को इंसानी दर्जा देने की जरूरत है। इस काम में सभी धर्मों के गुरुओं की जरूरत है। इसे जब मानवीय रिश्तों से जोड़कर, वे अपने प्रवचनों के माध्यम से शुरू करेंगे, तो जन मानस के रिश्ते नदी के साथ बनेंगे। जिससे हमारी धरती, प्रकृति और नदी स्वस्थ रहेंगे। इस प्रकार की व्यवस्था के लिए विश्व जल शांति वर्ष में संकल्पित होने की जरूरत हैं।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात एवं स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।