– डॉ राजेन्द्र सिंह*
हम भारतीय लोग जीवन को सबसे बड़ा तीर्थ मानते हैं। जीवन जल में ही है, जल के बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है। इसलिए हम यह मानते हैं कि, जल ही हमारा सबसे बड़ा तीर्थ है। नदियों के प्रवाह के किनारे तीर्थ बनते हैं। गंगा दुनिया का सबसे बड़ा तीर्थ है, क्योंकि गंगाजल विशिष्ट गुण वाला है।
सभी धर्मों में जल को विशिष्ट आस्था के तौर पर देखा जाता है। विश्व की सबसे बड़ी आस्था जल है। दुनिया के सभी समुदायों, धर्मों,जातियों और राष्ट्रों की जल के प्रति मान्यता, एक तीर्थ की मान्यता है। लेकिन जिस काल में तीर्थ पर्यटन बन जाता है, उस काल में तीर्थ का सम्मान घट जाता है।
आज भारत में जितने भी तीर्थ स्थान है, वे अब पर्यटन स्थान बन गए हैं। इसलिए तीर्थ के प्रति जो हमारी भारतीय आस्था थी, उसमें पर्यावरण, प्रकृति, धरती, नीर, नारी, नदी सभी का सम्मान था, आज वह सम्मान पर्यटन के कारण नहीं बचा है। वह सम्मान हमारे सुख भोग, लालच, लाभ को सर्वोपरि साध्य मानकर इस आधुनिक शिक्षा ने खत्म किया है! इस निर्णय पर पहुंचना कठिन है, लेकिन यदि हम देखे तो जल-जीवन ही आस्था है। दुनिया की रक्षा और जलवायु परिवर्तन की सुरक्षा आदि जल के साथ जुड़ी हैं। इसलिए तीर्थ आस्था फिर सबसे ऊपर आ जाती है। इस तीर्थ आस्था को हम भूलकर, केवल जल श्रद्धा, आस्था, जल के प्रति निष्ठा और भक्ति का सवाल नहीं है, यह तो आज के सत्य को बयान करता है।
जीवन पद्धति की भिन्नताएँ मानवता को धर्मों में विभाजित करती हैं। यह मानवता का विभाजन वर्तमान में ज्यादा बढ़ गया है। इस विभाजन को यदि हम समझ लें तो ब्रह्माण्ड की मानवता, जीवन जीने की विविधताओं में भी एकता का दर्शन कराती है। विविधता में एकता का मूल तत्त्व जल ही है। जल की मात्रा जितनी हमारे शरीर में है, उतनी ही मात्रा हमारी पृथ्वी में है। यह बात अलग है कि धरती पर उपलब्ध जल मानवीय शरीर के लिए उतना अनुकूल नहीं है।
ब्रह्माण्ड का पूरा उपलब्ध जल मानवता के अनुकूल नहीं होने के बावजूद भी हम अपने अनुकूल बनाने व जल गुणों को बदलने की नई विधियाँ खोज रहे हैं। इन विधियों से हम जल सुरक्षा के नाम पर काम कर रहे हैं। यह हमें जल सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती, क्योंकि जल सुरक्षा के लिए तो सूर्य की ऊर्जा समुद्र के खारेपानी को मानव उपयोग हेतु पेयजल में बदलने के लिए समुद्र का वाष्पीकरण करके, बादलों का निर्माण करती है। ये बादल जल बनकर, बरसते हैं। हमें उसी जल को सहेजने, संवारने में जुटना होगा। वर्षाजल मानवता को अमरत्व प्रदान करता रहा है। लेकिन आज हम आधुनिक अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी के बलबूते पर जल को प्रदूषित कर रहे हैं तथा शोषित करके, प्राकृतिक जल स्रोतों पर अतिक्रमण कर रहे हैं। हमारा यह अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण हमारी शिक्षा की देन है। जब से मानवीय जीवन में विद्या को इस शिक्षा ने नष्ट किया है, तभी से मानवीय जीवन का कष्ट बढ़ गया है। इस कष्ट के समाधान भी हम संवेदनहीन प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी में खोज रहे हैं। यह हमारे विश्व युद्ध के संकट का समाधान नहीं बन सकता।
विश्व युद्ध के संकट का समाधान तो हमारे जीवन की विद्या के अहसास और आभास में निहित है। हमें उसी दिशा में आगे बढ़ना पड़ेगा, तभी जीवन में हमें आगे बढ़ने का रास्ता मिलेगा। आज जल का संकट हमारे बदलते जल दर्शन से बड़ा है। इस जल दर्शन को पुनः विचार करने की जरूरत है।
विश्व जल शांति वर्ष घोषित होना एक शुरुआत मानी जा सकती है। लेकिन इसे अन्य विश्व वर्ष घोषित करने जैसी ही औपचारिकता पूरी करने से परिणाम नहीं आयेगा। जीवन में जल सुरक्षा और शांति के लिए जल के तीर्थपन से जल संरक्षण, सामुदायिक विकेन्द्रित जल प्रबंधन एवं जल उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए जल साक्षरता द्वारा मानवता को जल के महत्त्व का अहसास और आभास कराना होगा।
जब हमारे जीवन में जल की सुरक्षा होती है, तब वह संकट के समाधान के लिए रास्ता बनता है, उसी से शांति कायम होती है। शांति नारों, प्रवचनों, पूजा, आरती या उत्सव से नहीं होगी। अब उत्सव और पूजा पाठ में शांति नहीं है, ये तो अब एक-दूसरे को बुलाने व एक-दूसरे को लड़ाने का साधन बन गए हैं। यह आरती उत्सव, पूजा पाठ हमें तीसरे विश्व युद्ध के केन्द्र में बनकर, लड़ाई करवायेगा। इससे बचने के लिए सब धर्मों के लोगों को पीने के लिए पानी, पेड़-पौधों का जीवन, उभयचरों, नदी और समुद्र की सुरक्षा करनी होगी।
जब नदियाँ सूख जाती हैं, तो समुद्र भी सूख जाता है। अभी आरएलसी समुद्र पूरी तरह से सूख गया है। इस समुद्र को सुखाने का काम अमुदरिया जो ताजिकिस्तान से शुरू होकर उज्बेकिस्तान से होते हुए आरएलसी समुद्र को पोषित करती थी तथा दूसरी नदी सुरदरिया ताजिकिस्तान से आरंभ होकर, उज्बेकिस्तान में आकर आरएलसी को पानीदार बनाएँ रखती थी। यह दोनों नदियां कपास की खेती करने के कारण सूख गई और इनके आरएलसी नाम का समुद्र भी सूख गया।
यह जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा भयानक चित्र प्रस्तुत करता है। समुद्र के सूखने की मुख्य वजह आर्थिक लाभ, लोभ और लालच है। जब उज्बेकिस्तान सोवियत संघ के स्वामित्व में था, तो पूरे उज्बेकिस्तान की दोनों नदियों के पानी को उठाकर कपास की खेती करवाता था। इस कपास ने पहले नदियों को सुखाया और फिर उसी ने समुद्र को सुखाया। आज यही समुद्र पूरी दुनिया में पर्यावरणीय पीड़ित क्षेत्र घोषित हो गया। यह धरती पर बहुत खतरनाक घटना है।
ये घटनाएँ ही तीसरे विश्वयुद्ध की अयुद्ध सामग्री तैयार कर रही हैं। धरती का चढ़ता बुखार और बिगड़ते मौसम का मिजाज हमारी अयुद्ध सामग्री हैं। हमें यह समझना होगा कि, हमने जल के प्रति तीर्थपन में आस्था, श्रद्धा, भक्ति और विश्वास को पोषित करना छोड़ दिया है। इसलिए धरती, नदियाँ, समुद्र सभी बेपानी और प्रदूषित हो रहे हैं।
जब जल के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है, तभी विश्वास, आस्था, श्रद्धा, निष्ठा और भक्तिभाव बनता है। जल का तीर्थपन हमें जल को सोच समझकर उपयोग करना सिखाता है। जब यह भाव मिट जाता है, तब हम भोगी बन जाते हैं। यह भाव हमारे लालच से बनता है। पहले सुख-सुविधाओं के भोगी बने और फिर रोगी बनते चले गए। इसलिए धर्म प्रकृति से प्रेम करना सिखाता हैं और जल का सम्मान करना सिखाता है।
भारत में नीर, नारी और नदी को नारायण मानने की जो परंपरा थी, वह उसी जल प्रेम से आरंभ होकर, जल सम्मान की तरफ आगे बढ़ी थी। इस सम्मान को हम यदि दोबारा स्थापित करना चाहते हैं, तो आओ उसके लिए मिलकर नई जल आस्था और पर्यावरण रक्षा के लिए कार्य आरंभ करें। यह जल आस्था हमारी पर्यावरण और प्रकृति की रक्षा-सुरक्षा बनेगी, इसलिए सभी धर्मों के लोग मिलकर, एक मंच पर आकर, जल आस्था को पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा का औजार बना सकें। इससे तीसरा विश्व युद्ध इस धरती पर नहीं होगा। हमें जल सुरक्षा और शांति कायम करने का रास्ता मिल जायेगा।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात एवं स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित जल संरक्षक। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।