जल चिंतन: बराबरी के जल बँटवारे से ही आयेगा जल स्वराज
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ‘‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार’’ की बात सूर्य से प्रेरित होकर ही कही थी। आज उनका यह कथन पूरे भारत में मान्यता प्राप्त कर चुका है।लोकमान्य तिलक ने भी विजय और पराजय की चिन्ता किये बिना अपना कर्तव्य पालन करते हुए ही कहा था कि, ‘‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’’ इस दिशा में भारत के बहुत से महान लोगों ने बहुत बड़े-बड़े प्रयास किए थे।
सूरज को आदित्य स्वराट् कहते हैं। वह अपनी आज़ादी से नियमित उदय व अस्त होता है। लेकिन वह सभी के प्राणों को सतत् पोषित करने वाली ऊर्जा से धरती, प्रकृति, मानवता और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जल की निर्मिती करके पोषित करता ही रहता है। इसी प्रकार का पोषण हमारे जल स्वराज में भी निहित है।
मोहनदास करमचन्द गांधी के स्वराज की सिद्धि भी सूर्य के सत्य और प्रकृति की अहिंसा से जुड़ी है। प्रकृति किसी से अपना अधिकार कभी नहीं माँगती, वह तो अपने कर्तव्य को स्मरण रखते हुए काम करती है, जिससे हमें अधिकार माँगने की ज़रूरत ही नहीं रहे। हमें अपने कर्तव्य का अहसास करने का सम्पूर्ण आभास सातत्यपूर्ण तरीके से बना रहे, तभी हम ‘स्वराज’ कायम रख सकते हैं। बापू आज जीवित होते तो जल के निजीकरण व बाज़ारीकरण के विरूद्ध सत्याग्रह आरम्भ करते। सभी को सम्मानपूर्वक बराबरी से जल मिले, इस हेतु जल संरचनाओं का विकेन्द्रित निर्माण करके सभी को समान मालिकी भी प्रदान कराते।महात्मा गांधी सफल हुए, क्योंकि उन्होंने स्वराज को पाने हेतु तीव्रता नहीं दिखाई, बल्कि त्वरा से परिपूर्ण हो कर भारत की जनता को स्वराज के कर्तव्य पालन कराने हेतु तैयारी करवाई थी। उन्होंने स्वयं प्रत्यक्ष रचनात्मक कार्य एवं अहिंसक सत्याग्रह किया था।
जल सब का है। सभी को मिलना चाहिए। जिसकी ज़मीन पर बादल ने जितना जल दिया है; उसको अपनी ज़मीन पर उस बरसात के जल का उपयोग करने की नैतिक ज़िम्मेदारी और हक़दारी है। जल के लिए बराबर ज़िम्मेदारी और हक़दारी हमें प्रकृति ने प्रदान की है।
महासागरों में जब जीव का जन्म हुआ तो उसी जीव से विविधतापूर्ण खाद्य शृंखला सम्पन्न सृष्टि का सृजन हुआ। चार्ल्स डार्विन ने कहा था कि प्रकृति चुनाव करती है, वह उन्हीं जीवों को चुनती है, जो अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करते हैं। जीव बहुत होते हैं और संसाधन सीमित। सीमित संसाधनों की छाया में अपने को ढालकर जो टिकाये रखता है, प्रकृति उसी का चुनाव करती है, वही बचता है। सदैव ही प्रकृति के अनुकूल जीवों को ढलना पड़ता है, इसी से जैव विविधता का निर्माण होता है। इस प्रक्रिया को हिन्दु शास्त्रों में सनातन कहते हैं। यह सनातन प्रक्रिया हिन्दु शास्त्र के अनुसार कभी नष्ट नहीं होती, परन्तु उसमें भी महा विस्फोटों को प्रलय शब्द के साथ जोड़कर उपयोग किया जाता रहा है।
आज का पृथ्वी पर गैर-बराबरी का जल बँटवारा बहुत ही बड़ी प्रलय का कारण बन सकता है। आज बहुत लोग बेपानी होकर, उजड़ रहे हैं। जब कोई बिन पानी उजड़ कर कहीं दूसरी जगह जाता है, तब दुनिया उन्हें जलवायु परिवर्तन की जोखिम से प्रभावित शरणार्थी कहते हैं। यही कारण है अब दुनिया में लगातार जलवायु शरणार्थियों की संख्या बहुत बढ़ गई है। ये जब भी अपना स्थान जल अधिकता या कमी के कारण छोड़ने को मज़बूर होते हैं और उजड़ कर सभी दूसरे स्थान पर पहुँचते हैं। वहाँ लोग इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं, जिससे तनाव शुरू होता है।
‘‘मरता क्या नहीं करता’’ वह खुद मरने से पहले दूसरों को मारता है। बस! यही तीसरे जल विश्व युद्ध के हालात बना रहा है। हम दुनिया को देखते-देखते अपने आपको देखें तो जल का संकट पूरी दुनिया की तरह भारत में भी है। कर्नाटक-तमिलनाडू की जल लड़ाई को भी गलत अन्याय पूर्ण जल बंटवारे ने जन्म दिया था। कावेरी विवाद, महानदी विवाद, कृष्णा विवाद आदि सभी नदियों के पुराने व नये विवाद अब तक नहीं सुलझ रहे। दामोदर वैली, जिसमें आज़ादी से पहले काम शुरू हुआ था, उसमें सक्षम ताकत वर राज्य पं. बंगाल ने बहुते सारे बांध बना दिये। बंगाल का भू-क्षेत्र दामोदर बेसिन का केवल 20 प्रतिशत है, लेकिन वह 80 प्रतिशत जल प्राप्त करके, चावल की फसलें ले रहा है। अंग्रेजों की गैर-बराबरी वाली कानून व्यवस्था का समाधान आज तक नहीं हुआ। अंग्रेजों के बने कानून की भी ठीक से पालना नहीं हुई। दामोदर वैली में अभी जल हिंसा है। यह हिंसा अंग्रेजों के क़ानून ने कराई है। इस क़ानून को बदलने हेतु भारत सरकार को शीघ्रता से पहल करनी चाहिए। आजकल दामोदर घाटी परियोजना केवल विद्युत व्यापार में व्यस्त है। वह अपने असली काम का स्मरण करके, काम शुरू करे। इस क़ानून का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए, अन्यथा अब एक और कावेरी जैसी नई बड़ी जल लड़ाई शुरु होगी।‘जिसकी लाठी उस की भैंस’ वाली कहावत को दामोदर नदी घाटी कानून ने चरितार्थ कर दिया है। इस घाटी का काम बहुत पहले आरम्भ हो गया था, किन्तु इसके जल बँटवारे पर बिहार-बंगाल के मुख्यमंत्रियों ने 1978 में हस्ताक्षर किये थे। इस वैली में कुल 8 बाँध बनने थे। अभी तक कुल चार बने हैं। तीन बाँधों के पूरे जल पर बंगाल का क़ब्ज़ा है। एक बाँध तिलैया पर झारखण्ड का क़ब्ज़ा है। यह राज्य इसके जल का उपयोग नहीं कर पा रहा है, क्योंकि इसने सिंचाईं की नहर ही नहीं बनाई है। जब इस परियोजना का शुभारम्भ हुआ था, उस वक्त टैनटैन्सी नदी वैली परियोजना की तर्ज़ पर केवल अन्न उत्पादन हेतु बाढ़ के जल को सिंचाई में काम लेना था और विद्युत निर्माण करना था। अब बंगाल में तो इससे सब कैनाल बन गई, लेकिन बिहार-झारखण्ड की ज़मीन पर कैनाल नहीं बनी है। बिहार ने तिलैया-ढांडर परियोजना के अन्तर्गत नहर निर्माण कर ली है। उसे इस नदी घाटी का पानी नहीं मिला है। बिहार ने जल बँटवारे के लिए जल न्याय प्राधिकरण की माँग की थी। जल न्याय प्राधिकरण के दर्जनों निर्णयों को मैं जानता हूँ। इन्हें किसी भी राज्य ने माना ही नहीं और उन निर्णयों को क्रियान्वित भी नहीं किया है। भारत सरकार ऐसे निर्णयों को क्रियान्वित कराने में रुचि नहीं रखती है। इसलिए ये निर्णय लागू नहीं हुए हैं। ऐसे हालातों में भारत में जल विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं।
आधुनिक शिक्षा में जल केवल बाज़ार की वस्तु बन गया है। इस बाज़ार को यदि हमें बदलना है और जल को ठीक से समझना है; तो जल के संरक्षण के लिए, जल के प्रबन्धन के लिए, हमें जल को सामुदायिक सबके जीवन का आधार मानकर ही देखना होगा। हमने पिछले 40 वर्षों में यह देखा है कि, जहाँ-जहाँ पर लोग जल के साथ सामुदायिक कर्तव्य भाव से व्यवहार करते हैं, वहाँ आज भी बिना बाजार जल मौजूद है, जल स्वराज्य कायम है। लेकिन जहाँ लोग जल के साथ बाज़ारू रूप में व्यवहार करते हैं, वहाँ जल की हिंसा का संकट बढ़ता ही जा रहा है।
अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राज, पंचायत, नगरपालिकाएँ, पूरी दुनिया की सरकारी संस्थाओं ने अपने हित के बाज़ारु कानून बनाकर, मालिकाना हासिलकर लिया है। राज्य के सक्षम नेता, अधिकारी, व्यापारी मिलकर अपने हित में निर्णय लिखकर इकरारनामा बनाते है। सीधे-सादे सरल, ईमानदार राज्य बेपानी बनते हैं। चतुर-चालाक और बुद्धिमान लोग इकरारनामों से पानी लूट लेते हैं। ऐसा मैंने पूरी दुनिया में देखा है।
इजरायल ने जॉर्डन में किया, इजिप्ट ने नायल में किया। इस प्रकार हर कोई सक्षम-सबल बनकर, जल लूटता है, जल का मालिक बनता है। सीधे-सच्चे लोग बेपानी बनकर, जल की लूट को रोक ही नहीं पाते। जैसा दुनिया में हो रहा है, वैसा ही भारत में भी हो रहा है।
भारत में सभी नदियों की जल लूट की कहानियाँ अलग-अलग हैं। कावेरी में कर्नाटक-तमिलनाडु का विवाद है, महानदी में छत्तीगढ़-उड़ीसा का, कृष्णा में आन्ध्रप्रदेश-तेलंगाना का तथा महाराष्ट्र, कर्नाटक, सभी नदियों की कहानियाँ अलग-अलग हैं, लेकिन जल लूट ही लड़ाई का मुख्य कारण बनता है।
दामोदर नदी में बिहार-बंगाल का विवाद है। जल स्वराज्य हमारे विवादों के समाधान का रास्ता है; जो सभी को सम्मान से समान अधिकार और कर्तव्य पालन सिखाता है। अब हमें जल स्वराज्य की दिशा में आगे बढ़ना है। जल स्वावलम्बन से स्वराज्य आयेगा; इस दिशा में हम सभी जुटें और आगे बढ़ें।
जल विवादों का समाधान संवाद, विचार-विमर्श और उसमें से निकले निष्कर्ष से होना चाहिए।
हम जानते हैं, ऐसे विवादों के समाधान की केंद्रीय सरकार की ही ज़िम्मेदारी बनती है। क्योंकि, अंतरराज्यीय नदी को प्रवाह प्रदान करने का अन्तिम निर्णय केवल सरकार को है।
राज्यों की जल संरचनाओं एवं जल भण्डारों के निर्णय राज्य सरकार करती है। 73-74वें संविधान संशोधन के बाद पंचायत व नगरपालिकाओं की जल संरचनाओं के निर्णय उन्हें ही करने हैं। इस प्रकार हमारे संविधान ने जल बँटवारा तीन भागों में कर दिया है। परन्तु इस पर हमारी सरकार और समाज दोनों गैर ज़िम्मेदार बने दिखाई देते हैं। भारत में जब जल स्वराज्य होगा, तभी हमारी सरकारें बिना माँगे सभी को समान रूप से जल की पूर्ति कर सकेंगी। आज-कल जल न्याय नहीं तो जल स्वराज्य कहाँ? जल स्वराज्य हेतु जल न्याय ज़रूरी है। जल पर सभी जीव-जगत् का हक़ एक समान है। इस बात को ध्यान में रखकर, समाज और सरकार काम करे।
अपने जल स्वराज्य की कल्पना है कि सबको सहजता से जीने-पीने के लिए जल उपलब्ध हो। इस कल्पना को राज व समाज की कर्त्तव्य परायणता ही साकार कर सकती है। वैसे तो प्रकृति ने सभी के जीवन के लिए जल उपलब्ध किया ही है, लेकिन राज व समाज के कुछ लोग इसका अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण करते हैं, जिसके कारण जल स्वराज्य पर संकट बढ़ रहा है। जल का निजीकरण और बाजारीकरण ही जल स्वराज्य में सबसे बड़ी रुकावट है। हमारी सरकारें भी इसे समझें और भारत सरकार के सभी जल प्राधिकरणों को एक बार पुनः इसकी पुनर्मूल्यांकन प्रक्रिया आरम्भ करनी चाहिए। यह पुनर्मूल्यांकन प्रक्रिया जल के स्वराज्य हेतु करनी ज़रूरी है। यही गौरवशाली प्रेम से अखंड भारत बनायेगा। जल की लड़ाई राज्यों को तोड़नी है।