इजिप्ट में होने वाले कॉप-27 के उपलक्ष्य में जल संरक्षण पर विशेष
आज की बाढ़ – सुखाड़ प्रभावित दुनिया को इस 40 वर्ष के कार्य अनुभव से सीख लेने की जरूरत है
गोपालपुरा गांव के मांगू काका और नाथी काकी ने जल संरक्षण का कार्य शुरू करवाया था। तरुण भारत संघ के कार्य क्षेत्र में पहले सूखे के कारण गांव उजड़ हो गए थे। ज्यादातर बुजुर्ग महिलाएँ और पुरुष ही गांव में बचे थे। इन्हीं से सीखकर गोपालपुरा गांव से काम शुरू हुआ था। यहां के सभी कुएं बेपानी हो गए थे। जब गांव में जल आया तो सारे युवा शहरों से गांव वापिस आ गए। इन्होंने गन्ने की फसल बोना शुरू किया, उन्हीं दिनों सभी लड़कों की नई शादियां होने लगी हैं । गांव में आई नई बहुओं ने संगठित होकर गन्ने की बुआई पर रोक लगाई और उसके स्थान पर कम पानी में होने वाली फसलों को बढ़ावा देना शुरू करवाया। फिर भी कुछ लालची युवा गन्ना बोते रहे। ये गन्ना बेचने के लिए बाहर जाते थे, महिलाओं को यह पसंद नहीं था जिससे परिवार में पहले जैसा अलगाव होने लगा था। तब इन युवा महिलाओं ने युवाओं से कहा कि गन्ना की बुआई करोगो तो हम तुम्हें छोड़कर चले जायेंगे। अंत में इस क्षेत्र में अब गन्ना नहीं बोया जाता। गन्ने के स्थान पर कम पानी वाली फसलें होने लगी है।
इसी प्रकार तरुण भारत संघ ने राजस्थान के अलवर, करौली, सवाई माधोपुर, और महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के जिन क्षेत्रों में जल संरक्षण का काम किया है वहां जल संरक्षण के कामों के साथ-साथ किसानों को खेती में रासायनिकरण और मशीनीकरण को रोक कर, प्रकृति से प्यार करने व प्रकृति के साथ लोगों को खेती करने का बढ़ावा दिया गया जिससे उनके जीवन ,जीविका और जमीर में सुधार हुआ। जल संरक्षण के क्षेत्र में हुई खेती के काम को प्रकृति के अनुकूलन द्वारा ही किया गया। अनुकूलन की यह प्रक्रिया पूरे क्षेत्र में देशी खाद, बीज और मूलतः प्रकृति के साथ प्रेम से की गई खेती को तैयार करने से संभव हुई।
पहले तो फसल-चक्र और वर्षा-चक्र के रिश्तों को समझकर, कम पानी में वहां की कृषि में पारिस्थितिकी जैव विविधता को समझकर, इसके अनुकूल अधिक उत्पादन करने वाली फसलें पैदा की गयीं क्योंकि फसलों में वातावरण में से कार्बन उत्सर्जन को शोषित करके मिट्टी को देने की प्रक्रिया पूर्ण होती है। इसके अनुकूल ही फसलें तय की गईं। जैसे – खरीफ में अरहर, मूंग, उड़द, तिल, ज्वार, बाजरा की फसलों का ज्यादा उत्पादन किया गया, क्योंकि ये मिट्टी से नमी कम लेती हैं व सूखे में भी टिकी रहती हैं। रबी की फसल में चना, सरसों की फसलों को ज्यादा बढ़ावा दिया गया। पूरे क्षेत्र में बहुत ही कम पानी वाली फसलों का मशीनी ऊर्जा से उपयोग न करके, वर्षा और सूर्य की प्राकृतिक ऊर्जा से उगाने का कार्य किया गया।
यह अनुकूलन तरुण भारत संघ के कार्य क्षेत्र में बाढ़ और सुखाड़ को रोकने में भी सहयोगी रहा। क्योंकि मिट्टी में रासायनिक खाद, कीटनाशक, शाकनाशी कम उपयोग किए गए; जिससे मिट्टी की जलग्रहण शक्ति बनी रही और ज्यादा दिन तक मिट्टी में नमी भी बनी रही और सुखाड़ नहीं आया। इससे मिट्टी की नमी बनाए रखने वाली खेती का अभ्यास हमारे इलाके में बढ़ गया। इस तरह वातावरण में प्रकृति के साथ अनुकूलन की प्रक्रिया चली । इस प्रकार के प्राकृतिक वातावरण से प्राकृतिक खेती में हमेशा मदद मिलती है। जिससे इस इलाके में भी ऐसी सब्जियों का उत्पादन बढ़ा, जिसके कारण वातावरण में से कार्बन को ज्यादा से ज्यादा शोषित कर सकें। जलवायु परिवर्तन अनुकूलन, उन्मूलन के काम में जल संरक्षण के संबंध में जब हमारी खेती का व्यवहार प्रकृति के अनुकूल होने लगा, तब अनुकूलन की प्रक्रिया भी तेज होती है।
इसीलिए स्थानीय क्षेत्र में अनुकूलन, उन्मूलन तभी संभव है, जब प्रकृति से प्राप्त वर्षा-जल का संरक्षण, प्रबंधन करके, कम वर्षा में भी अधिक दिन तक मिट्टी में नमी को बचाए रखें और इसी नमी से फसलों का उत्पादन करें जिस प्रकार तरुण की अपनी जमीन पर सिंचाई के बिना फसलें पैदा की जाती है। खरीफ में अरहर, तिल, मूंग, उड़द और रबी में सरसों और चने की फसल लेते हैं। इस कारण सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती । रासायनिक खाद और कीटनाशक की भी जरूरत नहीं पड़ती। इससे मिट्टी की उत्पादन क्षमता बनी रहती है। इसलिए कम वर्षा के क्षेत्र में हरियाली बढ़ाकर, प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया से उत्सर्जन बढ़ा। उत्सर्जन ने सूक्ष्म बादलों का निर्माण किया, इन बादलों ने बड़े बादलों को बुलाकर वर्षा का चक्र बदल दिया, इसके परिणाम स्वरूप इस पूरे 10600 वर्ग किमी क्षेत्र को बाढ़ और सुखाड़ से मुक्ति मिल गई। पहले इस क्षेत्र में सुखाड़ के कारण लोग उजड़ते थे। 1996 तक बाढ़ के कारण भी लोग उजड़े थे। इस क्षेत्र की बाढ़ मुक्ति का अनुभव प्रो. जी. डी. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में वर्णित किया है।
अब इस क्षेत्र के लोग खेती करने में कामयाब हुए है और कार्बन को मिट्टी तक पहुंचाने का अद्भुत कार्य हुआ है। क्योंकि वातावरण की कार्बन को मिट्टी में जमा करने की प्रक्रिया तेज हो गई है। यह प्रक्रिया इस क्षेत्र को बाढ़ – सुखाड़ मुक्त बनाकर, प्राकृतिक अनुकूलन द्वारा जलवायु परिवर्तन का उन्मूलन करने में सफल बनी है।
आज की बाढ़ – सुखाड़ प्रभावित दुनिया को इस 40 वर्ष के कार्य अनुभव से सीख लेने की जरूरत है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं।