एक समय चंबल क्षेत्र के करौली, धौलपुर, सवाई माधोपुर, भिंड, मुरैना, श्योपुर, ग्वालियर, इटावा के चारों तरफ व आगरा तक के शहरों में बंदूकें लूटपाट करके खन–खनाती रहती थीं। क्योंकि वर्षा जल इस क्षेत्र की मिट्टी को काटकर चंबल नदी में ले जाता था। जिससे लोग बेपानी होकर, बंदूकें उठाकर मरना-मारना, डरना-डराना ही एकमात्र करने के लिए काम बचा था, यही रात-दिन करते रहते थे।
भारत के तीन राज्यों राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विभाजित चंबल क्षेत्र में एक राज्य की पुलिस दूसरे राज्य में बंदूकों को चलाने का अवसर देती रहती। मानसिंह या मोहर सिंह, निर्भय सिंह या जगदीश गुर्जर तथा रुस्तम सिंह जैसे लोग अपने – अपने समय में सम्पूर्ण चंबल क्षेत्र का नेतृत्व करते रहते थे। समय-समय पर इनके सीमा क्षेत्र निर्धारित होकर बदलते व विस्तार पाते रहे थे। जिनके पास ज्यादा सक्षम हथियार और ज्यादा लोग मौजूद होते थे, वे उतने ही ताकतवर बनकर दहाड़े मारते रहते थे। इनकी दहाड़ से पूरे चंबल का इलाका गूंजता था। ऐसे में राज्य सीमाओं के पार भी उतना ही प्रभाव बन जाता था और अन्य लोग भी त्रस्त होकर बंदूकें उठाते रहते थे।
यह इतिहास कुल 200 वर्षों का है। जब चंबल हिंसामय बनकर बदलने लगा था। पहले यहां जंगल, पेड़-पौधों, घास, हरियाली खूब थी। लोगां के मन भी हरे-भरे थे, तब बंदूक उठाने की जरूरत नही होती थी। चंबल क्षेत्र में धीरे-धीरे खनन शुरू हुआ और पूरा क्षेत्र ही बीहड़ में बदलने लगा। चंबल की जमीन बांझ बनती गई और फसलों की पैदावार घट गई। जैसे-जैसे जमीन बांझ-बीहड़ बनी, वैसे-वैसे ही लोग भी बांझ बनकर, हिंसामय हो गए। चंबल ’घटियों में रहने वाले लोग बागी बन गए थे, अंग्रेजो ने तो इस क्षेत्र को अपराधी क्षेत्र ही घोषित कर दिया था।
चंबल की बंदूकें पहले तो अंग्रेजो के अन्याय के विरुद्ध उठी थी, फिर मंहतो – सामंतों के विरुद्ध उठी। इसके बाद चंबल की बंदूकें जीवन, जीविका और जमीर जिंदा रखने के लिए धमकने लगी थी। जीवन, जीविका के सवाल, जमीन को अनुत्पादक बनने के कारण पैदा हुआ। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में खनन का काम बहुत तेजी से बढ़ गया। यह खनन वैसे तो मुगल काल में शुरू हो गया था; दिल्ली का लाल किला, आगरा का लाल किला व भवन आदि पुरानी इमारतें में ज्यादातर करौली-धौलपुर के लाल पत्थर से ही बनी हैं। यहां का पत्थर पूरी दुनिया में जाने लगा। खनन ने यहां की जमीन में गहरे घाव कर दिए। भूजल पुनर्भरण की सभी नसें कट गई। गहरे खड्डों ने भूजल प्रवाह में बाधा पैदा कर दी। सतही जल भूमि कटाव से बाधित हुआ और नदियां सूखने लगी। पूरा चंबल क्षेत्र बेपानी हो गया। जैसे-जैसे चंबल क्षेत्र बेपानी हुआ वैसे -वैसे करौली, धौलपुर बंदूक बनाने और चलाने वालों को प्रशिक्षित करने की कार्यशाला बनता गया था।
60 वर्ष पूर्व विनोबा भावे, जय प्रकाश नारायण ने मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में समर्पण कराया था। इस काम को क्रियान्वित कराने व समर्पण के बाद पुनर्वास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका डॉ. एस. एन. सुब्बाराव की रही थी। जिले के बहुत से लोगों ने इस कार्य में सम्पूर्ण सहयोग किया था। बाद में लोगों को तैयार करने का काम पी वी राजगोपाल जैसे अनेकों साथियों ने किया था।
उस समय 552 लोगों ने बंदूकें छोड़ी थी। बहुत मेहनत के बाद सरकार ने इनका पर्नवास किया था। यह काम केवल मध्य प्रदेश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं रहा था। उसी काल में राजस्थान के करौली – धौलपुर क्षेत्र में बेपानी हुए लोगों ने बंदूकों के बलबूते पर खनन तेज किया। क्षेत्र का प्रत्येक घर-परिवार खनन में जुट गया था। खनन ने चंबल का खाना पीना ही खराब कर दिया। जब सब कुछ ही खराब हुआ, तो बंदूकों से बचना भी असंभव बन गया था।
मध्यप्रदेश, जौरा समर्पण के बाद डाकुओं की शरणस्थली करौली, धौलपुर, सवाई माधोपुर बन गया था। मध्यप्रदेश के बड़े नामी लोग तो हथियार छोड़कर, पुनर्वास के लिए तैयार थे लेकिन नए लोगों के ह्रदय में परिवर्तन नहीं हुआ था; क्योंकि उनके पास जीवन को चलाने के साधन तैयार नही हुए थे। इसलिए वे लोग अपना क्षेत्र छोड़कर, मध्यप्रदेश से राजस्थान के लोगों से मिलकर सक्रिय हो गए।
7वें दशक के अंत में राजस्थान में लूटपाट, अपहरण जैसी वारदात आरंभ हुई थी। 8-9वें दशक में राजस्थान बंदूकों की मारकाट का दौर बना था। 9वें दशक के आरंभ में ही इनके आवासीय ठिकानों पर वर्षा जल संरक्षण का काम आरंभ हुआ। भारत के जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक राजेंद्र सिंह ने यह तय माना था कि, जल मिल जायेगा तो ये अपना जीवन जीने हेतु खेती करके आनंदमय जीवन जीने लगेंगे। यही हुआ यहां मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।