हिमालय पर बसे जोशीमठ के विषय पर तकनीक संस्थाओं की रिपोर्ट तब जनता के सामने आई है जब उत्तराखंड के संघर्षशील नेता पीसी तिवारी की एक याचिका पर उच्च न्यायालय नैनीताल ने सख्त आदेश किये है। सितंबर के अंतिम सप्ताह में जोशीमठ भू-धंसाव के विषय पर 8 तकनीकी संस्थानों के अध्ययन के प्रारंभिक संकेतों से यही सच्चाई सामने आने लगी है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने कहा है कि हिमालय की प्रसिद्ध पर्यटन व तीर्थ नगरी जोशीमठ को नो- न्यू कंस्ट्रक्शन जोन घोषित किया जाए और वहां पर किसी भी प्रकार का भारी निर्माण न हो। क्योंकि वहां क्षमता से अधिक भार हो गया है।
जैसे हिमालय क्षेत्र में जहां-जहां आपदाएं आ रही है उसकी सच्चाई को जानने के लिए अध्ययन बता रहे हैं कि जमीन में नमी की मात्रा अधिक बढ़ जाने से अंदर पानी तीव्र गति से बहने लग गया है जिसके कारण भू-धंसाव और भूस्खलन पैदा हो जाता है। इसमें बहुमंजिली इमारतें और बड़े निर्माण कार्य सबसे बड़े कारण बन रहे हैं। ऐसे ढालदार पहाड़ों पर अंधाधुंध रूप में बसी हुई आबादी के बीच से जल निकासी की कोई पुख्ता व्यवस्था भी नहीं है। इसका खुलासा सरकारी वैज्ञानिकों के अध्ययन और शोध दस्तावेज भी कर रहे हैं।
गौर तलब है कि पर्यावरण संरक्षण के बारे में अदालत के फैसले हमेशा के लिए नज़ीर बनते जा रहे हैं। एक और महत्वपूर्ण फैसला 20 मार्च 2017 को नैनीताल उच्च न्यायालय ने दिया था।जिसमें पवित्र गंगा और यमुना को एक जीवित मानव का दर्जा दिया गया है।सरकार को इस संबंध में यह आदेश दिया गया था कि इनके साथ जीवित मानव जैसा व्यवहार किया जाय। उच्च न्यायालय के इस आदेश का पालन करने के लिए उत्तराखंड के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता को इन नदियों का कानूनी अभिभावक के रूप में जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इन अभिभावकों को कहा गया था कि उन्हें एक मानवीय चेहरे की तरह इनकी सार- संभाल करनी है। इसका अर्थ है कि गंगा और यमुना का जितना भी कैचमेंट एरिया है।वहां के जंगल, ग्लेशियर,पहाड़ जिनके बीच से गंगा और यमुना बहकर आ रही है उनके साथ भी वही मानवीय व्यवहार होना चाहिए जो कि आम मनुष्यों के साथ किया जाता है।
लेकिन इसका पालन इसलिए नहीं हुआ की उत्तराखंड सरकार की पहल पर 7 जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी।
हिमालय पर्यटकों और सैलानियों का बहुत बड़ा ऐशगाह बन गया है। इन सैलानियों के आने की सीजन के शुरूआत में ही स्थानीय व्यवस्था बेसब्री से इनका स्वागत करने में जुट जाती है। इसमें कानून के महाधिवक्ता और मुख्य सचिव की भी वही जिम्मेदारी बनती है जो आमतौर पर पर्यटकों के लिए की जा सकती है। जग जाहिर है कि यहां आने वाले लाखों देशी- विदेशी पर्यटकों के लिए सुविधाओं को जुटाना पहाड़ की बर्बादी के बिना संभव नहीं है। अतः हिमालय की बर्बादी की यह एक ऐसी श्रृंखला यहीं से प्रारंभ हो जाती है जिसको अंत तक रोकने में उच्च न्यायालय द्वारा अभिभावकों को दी गई अपनी जिम्मेदारी का एहसास होने का मौका भी नहीं मिल सका है। इसलिए कि बहुत बड़े आय के स्रोत के रूप में देखे जाने वाले पर्यटन उद्योग को नजरअंदाज करना सरकार के सामने एक चुनौती बन जाती है। वह हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण और यहां की नदियों की अविरलता के लिए जो आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिए उससे बार-बार अपने कदम पीछे करती जाती है।
सन् 2000 में जब उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ तीन राज्यों का निर्माण हुआ था तब भी यहां के पहले मुख्यमंत्रीयों से मीडिया ने यही सवाल पूछे थे कि इन राज्यों के आय के स्रोत क्या होंगे? उन्होंने जो आय के स्रोत गिनाए थे उसमें से जो लगभग सभी राज्यों में है जिसमें मुख्य रूप से जल, जंगल, जमीन, शराब, पर्यटन जैसी चीजों से ही आय प्राप्त करने की बात सामने आई थी।आय के क्षेत्र में वृद्धि के लिए इस मॉडल को सहज मान्यता मिल गई है। जिसके आधार पर प्लानिंग और प्रोजेक्ट चलाये जा रहे है।
हम जानते हैं कि विकास की इस मान्यता के पीछे सरकार दूसरा विकल्प देखती भी है तो उसमें सहज रूप से उतनी इनकम नहीं है जितनी कि शराब, पानी, पर्यटन और जंगल से मिल जाती है।
विकास की इस धारणा को बनाए रखने की अनेकों पुष्टि होती रहती है।
एक और महत्वपूर्ण बात है कि पर्यटन के अलावा आजकल हिमालयी राज्यों में आय के नये स्रोत ढूंढने के लिए अन्य कोशिशें भी जारी है, जैसे वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मौजूदा स्थिति में उत्तराखंड के जंगलों, ग्लेशियरों, घास के मैदान और नदियों से प्रदान हो रही पारिस्थितिकीय तंत्र सेवा का मूल्य लगभग 2.5 लाख करोड रुपए के बराबर प्रतिवर्ष हैं। राज्य सरकार इसका पता लगाने के लिए विशेषज्ञों की राय लेने में जुट गई है।
इससे पहले सन् 2018 में भारतीय वानिकी प्रबंधन संस्थान ने यह अध्ययन व मूल्यांकन कराया गया था जिसके मुताबिक उत्तराखंड के वनों से देश को हर साल 95 हजार करोड़ की पारिस्थितिकीय सेवाएं प्राप्त हो रही है। इसके बदले में केंद्र से ग्रीन बोनस की मांग की गयी है।
हिमालय राज्यों में इस बात की हलचल है कि यदि उन्हें केंद्र से ग्रीन बोनस के रूप में पैसा मिल जाता है तो उनके यहां विकास के लिए एक भारी भरकम राशि जमा हो जाएगी।यह लालच ऐसी स्थिति में बन रहा है जब हिमालय की मिट्टी, पानी, जंगल, चारागाह, खेत-खलियान बरसात के समय मालवे में तब्दील हो रहे हैं और इस बारे में कोई चर्चा ही नहीं है कि हिमालय की जो बर्बादी हो रही है उसका भी कोई आडिट हो।
इसलिए हम पारिस्थितिकी का अधिक से अधिक शोषण करने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन उसके अनुसार जो बर्बादी का मंजर साल दर साल देखा जा रहा हैं इससे बचने के लिए हमारे पास कौन सी कार्य योजना है?
बाढ़ और भूस्खलन रोकने की तकनीक को हम क्रियान्वित नहीं कर पा रहे हैं। इस सच्चाई से बचना चाहते हैं तो ऐसे में पारिस्थितिकी से आर्थिकी किसी लालच से कम नहीं है जो प्रकृति के रौद्र रूप के सामने अधिक समय तक टिकने वाला नहीं है। यही स्थिति शिमला, कुल्लू, चंबा, मसूरी आदि पर्यटक नगरों में पैदा हो रही है। इसलिए यह सोचना बहुत जरूरी है कि प्रकृति का हम जितना शोषण कर रहे हैं उससे अधिक वापस कैसे लौटायें?
हमेशा अदालत पर निर्भरता और उसके फैसले का इंतज़ार हिमालय, जंगल, नदियों, पर्यावरण और हमारे जीवन के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
*लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। प्रस्तुत लेख उनके व्यक्तिगत विचार हैं।