– अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती*
जीवन की एक बड़ी उपलब्धि ज्ञानप्राप्ति है क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है ‘ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः’ – ज्ञान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। मनुष्य जब किसी स्थान पर प्रस्थान करने की इच्छा करता है, तो उसे अपना लक्ष्य पूर्व से ही निर्धारित करने के साथ ही साथ उस लक्ष्य तक सुनिश्चित रूप से पहुँचने के मार्ग का ज्ञान होना भी आवश्यक होता है। यदि मार्ग का ज्ञान न हो, तो सही लक्ष्य पर पहुँच पाना कठिन होता है।
अध्यात्म की विद्या ही व्यक्ति को जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचा सकती है। इसीलिए यदि अध्ययन करना ही हो तो ब्रह्मविद्या का अध्ययन करना चाहिए। संसार की ओर आगे बढ़ाने वाले लौकिक विद्या के अध्ययन से व्यक्ति का सर्वविध अभ्युदय नहीं होता।
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मनुष्यों के उत्थान के लिए तीन प्रस्थान – ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीता को बताया है। इन्हें ही प्रस्थानत्रयी कहा जाता है। ये मार्ग सनातन धर्म का राजमार्ग है जिस पर मनुष्य चलकर परम गति को प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार राजमार्ग में सुन्दर सड़कें, दिशासूचक बोर्ड लगा होता है जिससे भटकने का अवसर नहीं होता, वैसे ही इस मार्ग पर चलने पर मनुष्य कहीं नहीं भटक सकता है।
मुमुक्षु व्यक्ति के लिए तीन प्रकार के प्रस्थान बताये गये है। श्रुति प्रस्थान, स्मृति प्रस्थान और तर्क अथवा न्याय प्रस्थान। इन्हीं मार्गों से मनुष्य अपने चरम लक्ष्य की ओर पहुँच सकता है।
प्रस्थानत्रयी के ज्ञान-प्राप्ति के लिए अधिकारिता होना आवश्यक है। नित्य और अनित्य वस्तुओं का विवेक, इह और अमुत्र के फलभोग में विरक्ति, शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान आदि षट्-सम्पत्ति और मुमुक्षा। जब ये सभी होंगे तभी व्यक्ति ब्रह्मज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बनता है।
सनातन धर्म के पांच प्राण हैं – गौ, गंगा, गीता, गायत्री और गोविन्द। इनमें से गौ महत्वपूर्ण है। इसीलिए तो सनातनधर्मी गौमाता को सर्वाधिक महत्व देते हुए प्रथम ग्रास गौ के लिए निकालते हैं। गौमाता के पीछे चलने वाला व्यक्ति कभी भी गलत मार्ग पर नहीं जा सकता क्योंकि गौ की पूंछ पकड़ कर चलने वाले को गौमाता कभी गलत मार्ग पर नहीं ले जाती। तभी तो गौमाता की पूंछ पकड़ कर वैतरणी पार करने की बात अपना शास्त्रों में कही जाती है।
सनातनधर्मी अनुकरणशील होता है। हमारे पूर्व पुरुष जिस मार्ग पर चले हैं उसी मार्ग पर चलकर वह स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता है। हमारे देश का इतिहास रहा है कि इस देश के चक्रवर्ती राजाओं ने अपने प्राण देकर भी गौ रक्षा की है। असल में हिन्दू वही है जो सही और गलत का विचार करके आगे बढ़े। जो बिन विचारे आगे बढ़े वह हिन्दू नहीं। गौ के सन्दर्भ में यही बात विशेष रूप से लागू होती है।
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संसार के लोग प्राप्ति तो चाहते हैं पर उस प्राप्ति का लिए जिस पात्रता की आवश्यकता है उसे वे अपने भीतर नहीं विकसित करते। कोई भी उपलब्धि पात्रता होने पर ही आती है। सत्पात्र को दान करने से संपत्ति बढ़ती है और कुपात्र को दान देने से संपत्ति घटती है। मतदान में भी दान शब्द जुड़ा होने से यह भी महत्वपूर्ण है इसीलिए सनातनी जनता को मतदान के पहले सत्पात्र का विचार कर लेना चाहिए। यदि हमारे मतदान से कोई दल सत्ता में आकर गौ हत्या करता है तो उस पाप के भागी हम भी बनते हैं।
संयमी वह है जो भोग सामग्री के उपस्थित होने पर मन को रोकता है और वैरागी वह है जो भोग सामग्री के उपस्थित रहने पर भी उसका मन उस ओर नहीं जाता है। संयम से अधिक श्रेष्ठ वैराग की अवस्था है। मनुष्य का शरीर प्राप्त होने पर भी, भगवदर्पण बुद्धि विकसित होने के बाद भी, यदि हम योगीजनों के मार्ग (सन्यास-मार्ग) का अवलम्ब ना लें तो शायद इस दुर्लभ मानव शरीर के साथ ये सबसे बड़ा अन्याय होगा। इसलिए समय से तत्वोपलब्धि हो जाए इसके लिए जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि सन्यास की उपलब्धि है। सन्यासी को कामनाओं से मुक्त होना चाहिए।
एक धर्माचार्य के रूप में शंकराचार्य का यह कर्त्तव्य है कि अपने अनुयायियों को पाप कर्म से दूर रखें और पुण्य कर्म में लगाएं। हिन्दू धर्म दृष्टि के अनुसार जीवात्मा को यमराज के सम्मुख लौकिक पद-प्रतिष्ठा के अनुसार नहीं, अपितु किये गए कर्मों के अनुसार ही आँका जाता है। उसी अनुसार स्वर्ग नर्क आदि प्रदान किये जाते हैं। पाप पुण्य का विचार कर पात्र प्रत्याशी को किये गए मतदान से जहां हिन्दू पाप मुक्त होगा और पुण्य युक्त होगा, वहीँ दूसरों को भी हिन्दुओं की गहरी गौ भक्ति की भावना से परिचित होने का अवसर मिलेगा जिससे सामाजिक सरसता बढ़ेगी और समुदायों की पारस्परिक कटुता दूर होगी।
*ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य
(प्रस्तुति: संजय पाण्डेय, मीडिया प्रभारी, ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य)