बुसबर्ग, जर्मनी: 14 अगस्त 2023 को मैं जर्मनी के न्यूबर्ग से चलकर बुसबर्ग के गांव हचबर्ग पहुंचा। मेरे साथ इस यात्रा में अफ्रीका से रिटेंडो, स्ट्रेफ, लंदन से लूसी, स्टेनली, पुटलीना, मंगोलिया से ओगी, गोटेमाला से किस्टोफर और जर्मनी के कई युवा आदि देशों के लोग शामिल रहे।
यहां मैंने सुखाड़ – बाढ़ मुक्ति के कामों को कार्यशाला के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप में सिखाया। यहां एक साथी हलमट के खेत के पास से निकलने वाले दो नालों पर मैंने 20 देशों के लोगों को अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रशिक्षण दिया। बाढ़-सुखाड़ की मुक्ति की युक्ति बताते हुए कहा कि जब नंगी जमीन पर घास होती है, तब वह घास पानी को पकड़ कर, मिट्टी में जीवश्म बनाती है। वह जीवश्म मिट्टी को उपयोगी बनाता है और ज्यादा दिन तक नमी को मिट्टी में बनाए रखता है। जहां घास नहीं हो सकती, वहां पत्थर होते हैं। उन पत्थरों से या मोरम मिट्टी से पानी के प्रवाह को धीमा कर सकते है। जल प्रवाह को धीमा करना ही सुखाड़-बाढ़ मुक्ति की युक्ति है।
दो नालों की यात्रा करके सबसे पहले जल संरचानओं का जलग्रहण क्षेत्र का चिन्हीकरण करके, तालाब बनाने की प्रक्रिया समझाई।छोटे-छोटे तालाब बनाने से ही बाढ़-सुखाड़ से मुक्ति मिलती है। क्योंकि छोटे छोटे ताल जल प्रवाह को धीमा बनाते है। पूरे दिन इसी को सीखने, समझने, दिखाने और सीखने का काम किया। इससे सीखकर लोगों में उत्साह भरा और उन्हें विश्वास पैदा किया कि यह काम करना आसान है, आप अपने देश में वापिस लोट कर यह काम कर सकते है।
यहां से चलकर मैंने लेंड्सबर्ग शहर की लैच नदी की यात्रा की। यह नदी बड़े शहर में होने के बाद भी बहुत साफ है। इस नदी की शहर में ही दो धाराएं हो जाती है और शहर के घंटाघर के पास दोनों मिल जाती है। नदी को देखकर लगता है कि यह देश नदियों के प्रति सचेत है और नदी को प्रवाहमान बनाए हुए है। यह देखकर बहुत अजीब लगता है कि हम नदियों को मां मानने वाले, आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तौर पर गुरू माने जाते हैं, लेकिन फिर भी हम अपनी नदियों को ऐसा क्यों नहीं बचा पाए? यदि बचा नहीं पाए तो हम अब वैसी क्यों नहीं बना पा रहे? इस पर गहन विचार करने की जरूरत है। हमने तो अपनी नदियों को नाला बना दिया है, हमें ऐसे देशों से सीख लेनी चाहिए।
यहां की नदियों के किनारों पर नदियों की पूर्ण जानकारी बोर्ड पर लिखी हुई होती है। भारत को इससे सीख लेना चाहिए कि इतने बड़े शहर होने के बाद भी अपने गंदे पानी की बूंद नदी में नहीं जाने देते। इनके जो पहले पुराने जमाने के गंदे पानी के पाइप थे, जो नदी में खुलते थे, वह सब बंद कर दिए हैं। यदि यह लोग अपनी नदी को ठीक कर सकते हैं तो हमें भी अपनी नदियां ठीक करने की जरूरत है। हमारी नदियों के प्रदूषण, अतिक्रमण और शोषण से सभ्यता, संस्कृति और अध्यात्म में गिरावट पूरी दुनिया को नजर आती है। हमें अपनी मूल ज्ञान से नदियों को ठीक करने के काम में लगना चाहिए।
यहां की नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में मिट्टी का कटाव जंगल व घास से रोक दिया है, जबकि चीन की नदियों में आज भी मिट्टी का कटाव बहुत तेजी से हो रहा है और न सिर्फ वहां ज्यादातर नदियां मिट्टी के कटाव से पूर्णतः बह गई हैं बल्कि इनके बांध भी मिट्टी से भरे हैं।
जर्मनी की नदियों में प्रवाह बहुत अच्छा बना हुआ है, जबकि हमनें अपनी नदियों के प्रवाह को तोड़ दिया है। यहां की नदियां बहुत अविरल-निर्मल बह रही है। इस देश ने अपनी नदियों को बांधा नहीं है और बहुत प्रचार नहीं किया लेकिन इनका नदियों के प्रति सदाचार और व्यवहार पूरी दुनिया को बहुत अच्छा दिखता है। जर्मनी की सरकार और जनता ने नदियों को स्वराज्य दिया है, इसलिए यहां की नदियां अविरल निर्मल होकर बह रही है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल विशेषज्ञ।