विरासत स्वराज यात्रा 2022
कॉप-27: आदिवासी व जनजाति भी निर्णय प्रक्रिया में शामिल हों
शर्म अल शेख: कॉप में इस काम के लिए दुनिया के आदिवासी, जन जातियों को मौका मिलना चाहिए ताकि वो मानवीय हितों को साधने की बजाय प्रकृति के हितों को साधने में लगे। क्योंकि इनके व्यवहार में प्रकृति अभी भी बची हुई है। यह आधुनिक विकास के विनाश से थोड़ी दूर है, इसलिए उन्हें समय रहते आगे नहीं लाया गया तो यह भी फिर अन्य मानव जातियों की तरह लालची बनकर, प्रकृति का ही विनाश करेंगे। अभी उनके जीवन के व्यवहार और संस्कार में लोभ और लालच नहीं है । हमें इनके प्राकृतिक जुड़ाव का सम्मान करके, प्रकृति के कामों में निर्णय की प्रक्रिया में आगे लाने की जरूरत है । आखिर में सभी ने तय किया कि कॉप में इसकी एक अलग प्रक्रिया जल्दी से जल्दी चलना चाहिए।इसके लिए दबाव बनाने का काम करेंगे।
कॉप-27 के एजेंडे में 50 सालों के काम को दिखाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। कॉप को पिछले कामों को देखना चाहिए था, लेकिन इसमें सम्मिलित होने वाले बड़े बड़े लोग उस समाज के साथ नही जुड़ पा रहे हैं जो प्रकृति से लेने से पहले देने का भाव रखता है । यदि ऐसे लोगों को निर्णयात्मत प्रक्रिया में शामिल नहीं करोगे, तो लेने वाले लोग, लालची बनकर सभी तरह के तरीके अपनाते हैं ।
इस कारण से ही कॉप लालची – स्वार्थी लोगों के हाथ में है, यह उन लोगों के हाथ में आना चाहिए जो लेने से ज्यादा प्रकृति को देने का भाव रखते व सोचते हैं। अभी समय है कि, कॉप -27 का समापन होने से पहले सोचना चाहिए कि पिछले 50 सालों में जो लक्ष्य था, उसे 30% भी पूरा नहीं कर पाए हैं । तो इस स्थिति में कुछ रास्ते ढूंढने चाहिए। कॉप की समितियां इस वारे में सोचे और आगे का रास्ता सोच समझकर तय करें।
आज जब हमारी यह विरासत स्वराज यात्रा कॉप-27 के सांस्कृतिक कार्यक्रम में पहुंची, यहां दुनिया की बहुत सारी संस्कृतियों ने अपनी-अपनी प्रार्थना की। प्रार्थना और उत्सव में जिस प्रकार का व्यवहार हम अपने साथ करते हैं, वैसे ही प्रकृति के सभी पंचमहाभूतों के साथ करने के लिए आज यह कार्यक्रम आयोजित हुआ था। पृथ्वी का निर्माण करने वाले पंचमहाभूतों के प्रति जो मानवीय व्यवहार था, वह आज शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण का शिकार हो गया है। इस व्यवहार को प्रार्थना के पोषण के द्वारा बदला जाना चाहिए। इस कार्यक्रम में अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अमेरिका, यूरोप आदि दुनिया भर से सभी आदिवासी – जनजाति लोग आए थे। इन लोगों ने कहा कि, कॉप के 50 साल पूरा हो गए हैं, लेकिन कॉप में देशों ने जिन कामों की जिम्मेदारी ली थी वो एक भी पूरा नहीं किया है। कॉप को अपने लक्ष्य को नहीं भूलना चाहिए। कॉप का काम है कि जिन राष्ट्रों की जनजातियां व आदिवासी बहुअंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की शिकार हो गए हैं उनको सम्मान दिया जाए और इनके हितों की रक्षा की जाए। यूरोप और अमेरिका ने जो विनाश करके विस्थापन किया है इनकी क्षतिपूर्ति कराने के लिए ही यह कॉप बना था, लेकिन इसने अपना यह काम आज तक पूरा नहीं किया। इसलिए अब आदिवासी – जनजाति लोगों को कॉप की पार्टियों में बहुत विश्वास नहीं है। उनका कहना है कि अब उन सब को ही अपने तरीके से, अपनी शक्ति के बलबूते पर, व्यवस्था को चलाना पड़ेगा और प्रकृति के रक्षण – संरक्षण के कामों को अपने से शुरू करना होगा।
अभी पूर्वी देशों में प्रकृति का सम्मान बचा है लेकिन पश्चिमी देश इसका विनाश कर रहे है। दक्षिण के लोग अब पंचमहाभूतों की आवाज बन रहे है।वे ही दुनिया में विनाश करने वाली ताकतों को अपने व्यवहार की नैतिक शक्ति के सत्याग्रह से उन पर दबाव बनाएंगे कि जो उन्होंने बिगाड़ किया है, उसकी क्षतिपूर्ति करें! नहीं तो; यह बिगाड़ ज्यादा नहीं चला पाएंगे।
मुझे अच्छे से याद है कि 1972 में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, स्टॉकहोम के पहले कॉप में गई थी और उन्होंने गरीबी और पर्यावरण संबंध पर बोलते हुए कहा था कि यदि गरीबी रहेगी, तो पर्यावरण नहीं सुधरेगा। गरीब बनाने वाले को पहले गरीब की गरीबी मिटाने का काम करना पड़ेगा। नहीं तो प्रकृति लूट – लूट कर जो साधन इकट्ठा कर रहे, उन साधनों को पाने के लिए लोग लड़ेंगे, इससे अशांति होगी। इस अशांति को मिटाने के लिए मूल ज्ञान का सम्मान करके जब सब खड़े होंगे और तब ही फिर प्रकृति व पर्यावरण में जिस व्यवहार की जरूरत है, उसे लायेंगे।
स्टॉकहोम में इंदिरा गांधी और रियो डी जेनेरियो में पी वी नरसिंह राव साहब का भाषण और उसके बाद बराबर भारत के प्रधानमंत्री कॉप में आते रहे हैं। भारत के सभी प्रधानमंत्री अपने मूलज्ञान के काम को आगे बढ़ाने के लिए कोशिश करते रहें है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी को अब अपने मूल आदिवासी, गरीबों की चिंता करनी चाहिए और उनके भले के लिए काम करने की जरूरत है।प्रकृति को अपनी जीवन,जीविका और जमीर समझने वाले आदिवासियों की आवाज को सुनने और सीखने की जरूरत है।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।