मेरे सैरनी नदी में जल संरक्षण से जैवविविधता संवर्द्धन के अध्ययन का एक उद्देश्य आदि ज्ञान (अर्थात प्राचीन और पारंपरिक ज्ञान) की अहम उपलब्धियों और योगदानों को दस्तावेज़ करना भी है, ताकि इन ज्ञान प्रणालियों की वास्तविकता और प्रभाव को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सिद्ध अहम जाए। यह अध्ययन पारंपरिक और आधुनिक ज्ञान के बीच सामंजस्य स्थापित करने और जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक संकटों के समाधान के लिए स्थानीय, पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने और उसका प्रचार करने के महत्व को रेखांकित करता है।
यह अध्ययन आदि ज्ञान और सैरनी नदी की जैवविविधता अध्ययन के महत्व और भूमिका पर आधारित है। आदि ज्ञान की प्रणाली, जो पृथ्वी और मानवता के बीच संतुलन और सामंजस्य की स्थापना करती है, आज के समय में जलवायु संकट से निपटने और मानवता के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि आदि ज्ञान ने मानवता को कई लाभ दिए हैं, लेकिन इसे आधुनिक समाज में वैज्ञानिक या प्रौद्योगिकीय मान्यता प्राप्त नहीं है। पारंपरिक ज्ञान ने सैरनी नदी को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभाई है।
चम्बल क्षेत्र की सैरनी नदी के सूखने से उजड़ गयी थी वहां की सभ्यता। राजस्थान के करौली-धौलपुर जिले में बहने वाली सैरनी नदी क्षेत्र में पहले सहरिया जनजाति के लोग रहते थे। तब यह पूरा क्षेत्र केवल जंगली था। ये वनवासी वनोत्पादन से ही अपना काम चलाते थे। 90 वर्ष पहले वनाधिकार बदले और जंगल कटे तो ये लोग बेघर होकर बारां जिले के जंगलों में चले गए। आजकल सहरिया बारां क्षेत्र में रहते हैं। उनके प्रतीक भी पेड़ और जीव है। करौली-धौलपुर क्षेत्र में उनकी सांस्कृतिक धरोहर नदी और जंगल ही था, लेकिन खनन विकास ने नदी को सुखा दिया और सहरियाओं को बेघर कर दिया। सहरियाओं की इस नदी का नाम सैरनी पड़ गया। काल-चक्र ने इस क्षेत्र में भयंकर बदलाव किये हैं।
पुराने बदलाव भी हुए होंगे, लेकिन एक शतक में तीन बड़े बदलाव इस नदी में आये। खनन से इस क्षेत्र में केवल 90 वर्षों में यह बदलाव आया है। जब खनन में बारूद उपयोग किया तो आदिवासी सहरिया इसे अपसगुन मानकर यहाँ से उजड़ना शुरू हो गए। इनके स्थान पर गुर्जर और मीणाओं ने प्रवेशकर लिया। क्योंकि गुर्जरों को एकान्त और मीणाओं को मवासा चाहिए। गुबरेण्ड़ा और बाँसवारी के जंगल आज के नए नाम नहीं है, ये नाम पुराने हैं। लेकिन आजादी के बाद इन्हें संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया। तब भी कानून से गुर्जर-मीणा डरे नहीं, इन्ही जंगलों में डटे रहे। परिणाम यह हुआ कि, पार्बती और सैरनी नदियाँ अब इन्हीं की नदियाँ बन गई हैं। मैने जो अनुभव किया है सैरनी नदी के पुनर्जीवन के काम से अब पार्बती नदी में भी वर्ष भर पानी रहने लगा है। पार्बती नदी क्षेत्र में जंगली जानवारो की सहज रूप से उपस्थिति नजर आने लगी है। पार्बती अब पुनः शुद्ध सदनीरा होकर, सैरनी के जल प्रवाह से वर्ष भर बहती है। ये लोग अब पशुपालन और जंगल का आश्रय छोड़कर खेती करने लगे हैं।
19वीं शताब्दी में जहाँ-जहाँ खनन का काम शुरू हुआ कुछ लोग इसमें हुनरमन्द भी बने। यहाँ के कुछ कारीगर बेपानी होकर, पत्थरों से अपना जीवन चलाने के लिए मजबूर हुए, फिर पत्थर का काम करने वाले पेशेवर मजदूर बन गए। खेती के लिए जब पानी नहीं मिला तो ये लोग लाचार, बेकार, बीमार और फरार होकर घूमने वाले बाग़ी बन गये। बाग़ियों से इलाक़ा डरने लगा तो खेती भी छूट गई। पानी नहीं था, सभी नदी, कुओं को खनन और वनकटान ने सुखा दिया। परिणामस्वरूप लोग विस्थापित होकर उजड़ने लगे और गाँव खाली हो गए। कभी अच्छी वर्षा हुई तो यह वापस कुछ दिन के लिए अपने खेत पर आने लगे।
यह पलायन परम्परा तो भारत में पुरानी थी, लेकिन पलायन और विस्थापन में खनन के कारण नदी सूख जाने पर भयानक बदलाव आया है। पार्बती और सैरनी में पेशागत बहुत बदलाव आया है। 1990 से 2015 तक यह क्षेत्र उजाड़ से ग्रसित था। पशुओं की चोरी, मार-पीट अपहरण आदि यहाँ लोगों के काम हो गये थे। शुरू में इनकी प्रवृत्ति सामुदायिक सहयोग की थी। बाद में बन्दूक और पत्थर के काम से एकांगी बनते गए। सामूहिक जीवन, आपराधिक जीवन में बदलने लगा।
100 वर्षों में सैरनी की आबादी दो बार विस्थापित हुई है। दोनों बार ही बिना राजा और बिना सरकार के पुनर्वास भी हो गया। पार्बती-सैरनी पुनर्वास का आधार बन गई है।
नाहरपुरा के जगदीश का उदहारण लें। उनहोंने ने भी अपना जीवन लूट-पाट कर के जंगल में ही काटा, और अब भी जंगल में ही रहकर अपनी ज़मीन पर केवल खेती का काम करता है। लेकिन दोनों कामों में बहुत फ़र्क है। उसने सारे अपराध छोड़ दिए हैं।
यहाँ के लोगों का जीवन चिंटी-चराई से लेकर गाय-जंगल की आस्था और धराड़ी परम्परा से भरपूर है। धराड़ी शब्द धरोहर और धारणा से बना है, इसे बहुत लोग मानते हैं। अमुक गोत्र का अमुक जन्तु और पेड़ ही उनकी जाति को धरा आधार देने वाला और उनकी धरोहर है। इसलिए वे अपनी धरा, धरोहर और नदियों की धाराओं को पूजनीय मानते हैं। कुछ लोग धराड़ी को, कुछ लोग मछली को, कुछ लोग पेड़ों को, तो कुछ लोग जीवों को ही भगवान मानते हैं। जीव का जीव ही भगवान होता है। यही इनकी मान्यता और आस्था है। सैरनी की जैव विविधता को समृद्ध बनाने में इस क्षेत्र की धराड़ी परम्परा की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। आदि ज्ञान ने सैरनी चंबल क्षेत्र में जैवविविधता का सवर्द्धन किया है।
सैरनी नदी के पुनर्जीवन का कार्य राजस्थान की जल संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध स्वयं सेवी संस्था तरुण भारत संघ (तभासं) द्वारा आज से 15 वर्ष पहले शुरू हुआ था। इस नदी की एक जलधारा कोरीपुरा गांव, दूसरी भूड़खेड़ा गांव और तीसरी महाराजपुरा गांव से आरंभ होती है। मेरे अध्ययन का क्षेत्र सैरनी नदी ही है; लेकिन नदी पुनर्जीवन से जैव विविधता का प्रभाव जानने हेतु अभी मैने केवल इस नदी क्षेत्र के पांच गांवों का गहन अध्ययन एवं इनके गांवो में आए बदलाव से पार्बती नदी के क्षेत्र पर होने वाले प्रभावों को जानने का प्रयास है। कोरीपुरा, भुडखेड़ा, महाराजपुरा, सैरनी नदी के शुरू के तीन गांवों से नदी की तीन उपधाराओं का उद्गम होता है। केशपुरा गांव नदी का मध्य और अरोंदा गांव जहां नदी दूसरी धारा से मिलती है।
सैरनी नदी पुनर्जीवन की जैव विविधता का संबंध जल, वायु और मिट्टी से है। यहां लाल ककरीली मिट्टी के बीच भूडखेड़ा गांव में पश्चिमी राजस्थान से चलने वाली हवा ने सफेद बालू के टीले बना दिए हैं, वर्षा जल को ये टीले सोखकर, नीचे अधो भूजल भंडार में डालते हैं। अब तरूण भारत संघ द्वारा जगह-जगह पर बनाई गई लगभग 160 जल संरचनाओं से भूजल भंडार भरकर, अधोभुजल से नदी बहने लगी है। नदी के उद्गम क्षेत्र में जब जल संरक्षण से धरती की नमी बढ़ी और मिट्टी का कटाव रुका तो मिट्टी के जैव, वनस्पति बनकर बाहर आने लगे। नदी में जहां जल था वहां बहुत सी सैवाल, जीव जंतु ने जन्म लेना शुरू किया।वैसे ही यहां की जैव विविधता पुनर्जीवित होकर समृद्ध बननी आरंभ हुई।
भू-गर्भ जल स्तर ऊपर आ गया और सतही जल शुद्ध-सदानीरा बनकर बह रहा है। अब तरूण भारत संघ द्वारा जगह-जगह पर बनाई गई लगभग 160 जल संरचनाओं से भूजल भंडार भरकर, अधोभुजल से नदी बहने लगी है। जल मात्रा 160 जल संरचनाओं से 96/201.6 x 100 =48% जल संरक्षित हुआ है। जिसने धरती का पेट भरा-नदी बहने लगी, खेती और पशुपालन से सभी जरूरतें पूरी होने लगीं। इन दोनों नदियों में वर्षा जल उपलब्ध है। 840 x 1000000 x 0.6 x 0.4=201.6 मिलियन लीटर है। रन ऑफ 40 प्रतिशत है। औसत वार्षिक वर्षा 616 मिली मीटर = 0.6 मी.।
1990 में 841 वर्ग कि.मी. नदी क्षेत्र का 2 प्रतिशत क्षेत्र बाढ ग्रस्त था। अब बाढ़ क्षेत्र कम हो गया है, बिल्कुल नगण्य जैसा है। क्योंकि वर्षा-जल ताल, पाल, झाल, चैकडैम में रुककर धीरे-धीरे नीचे आता रहता है। पहले वर्षा-जल एक साथ बाढ़ की तरह बहकर नीचे आ जाता था। अब तो जहाँ भी लोग जल रोक लेते हैं, वहाँ रुक जाता है। फिर भी कुछ तो आता ही है। जिन नालों पर ज़रूरत के अनुसार काम नहीं हुआ है; उनका पानी तो नीचे आता है। इस क्षेत्र में सुखाड़ और बाढ़ दोनों साथ-साथ आते रहते हैं। पहले 64 प्रतिशत सुखाड़ तथा 4 प्रतिशत बाढ़ क्षेत्र था। अब बाढ़ क्षेत्र नगण्य है और सुखाड़ क्षेत्र भी घट कर 22.6 प्रतिशत ही रह गया है।
करौली जिले की अधिकृत सरकारी रिर्पोट के अनुसार वर्ष 2011 में खेती की ज़मीन 4.80 प्रतिशत नोटीफाईड; जंगल भूमि 34.30 प्रतिशत; औद्योगिक, आवास जहाँ पर खेती नहीं कर सकते वह 9.70 प्रतिशत तथा अयोग्य अधिसूचित भूमि 8.40 प्रतिशत है।
इस क्षेत्र की कुल 4 प्रतिशत जमीन ही खेती करने लायक बची थी । शेष को खनन तथा जंगल कटान ने बिगाड़ दिया। पर मिट्टी की नमी से खेती के साथ बहुत सी घास भी अब जन्म लेने लगी है। इस क्षेत्र के किसानों ने नदी की शुद्धता हेतु प्लास्टिक नदी में नहीं जाने दिया। जिससे नदी में बहुत विविध प्रकार की मछलियां खासकर रोहू और कतला बड़ी मात्रा में देखी जा सकती है। छोटी-छोटी विभिन्न प्रकार की नई-नई टकसाल कुछ अंतर पर स्पष्ट दिखती है। भूड़खेड़ा, महाराजपुर और कोरीपुरा गांव की जल संरचनाओं में मुझे मगरमच्छ दिखाई दिया। कछुए और करेवास भी इस क्षेत्र में नदी पुनर्जन्म के साथ-साथ स्वतः दिखाई देते है। गौरैया चिड़िया, नीलकंठ, सरस, तीतर, बतख, मोर, तितलियां आदि भी जल संरचनाओं के पास मिलते हैं। कोरीपुरा, भूडखेडा व महाराजपुर गांवों के रास्ते में जंगली सूअर, नील गाय, रोज, लोमड़ी, सियार, जरख , सांभर, कोबरा, बघेरा आदि जानवरों को भी मैने जल संरचनाओं में जल पीते तथा जंगलों में दौड़ते देखा है।
पहले जिस जमीन पर किसान वर्षा के दिनों में केवल बाजरा की फसल उगाते थे; अब तो इस क्षेत्र में पूरे साल हरियाली रहने लगी है। यहां के किसान सर्दियों में गेहूं, चना, सरसों, मूली, गाजर, शलजम, बरसीम आदि कई फैसले लेते हैं और खरीफ में मक्का,बाजरा,ज्वार, धान, सिंघाड़े आदि फसले तक उगते हैं। सिंघाडे़ की खेती भी नई-नई फ़सल है। पहले बाजरा, तिल, सरसों, चना होते थे, अब ख़रीफ ज्वार, बाजरा, तिल, अरहर, उड़द, मूँग तथा रबी में गेहूँ, जौ, चना, सरसों, मटर तथा अन्य बहुत-सी सब्जियाँ उगाई जाने लगी हैं। गर्मियों में सब्जियों तथा हरा चारा की फसले उगते हैं। यह अपने घरों में अनार, अमरूद, नींबू, पपीता जैसे फल पैदा करने लगे हैं। किसानों की गाय, भैंस, भेड़, बकरियों को हरा चारा खूब मिलने लगा है। अब सैरनी नदी में मवेशी, पक्षी, वन्यजीव और नए वन बनने लगे हैं।
यहाँ पहले मछली पालन नहीं था,अब है। फसल-चक्र अब वर्षा-चक्र के साथ जुड़ गया है। सदानीरा नदी ने फ़सल की सिंचाई सुनिश्चित कर दी। सुनिश्चित सिंचन के बाद भी नदी बह रही है; यही अच्छी आशा के बीज हैं।
जल, जंगल, जमीन बचाने हेतु पंचायतों का रुझान जैसा पूरे भारत में है, वैसा ही यहाँ भी है लेकिन जल संरक्षण बारे में यहाँ के समाज का रुझान गहरा है। अब यहाँ ग्राम सभाओं, पंच-संरपंचों तथा वैयक्तिक तथा संस्थागत कामों में भी सामुदायिक सक्रियता है। सैरनी नदी जब शुद्ध सदानीरा होकर बहने शुरू हुई, तो कुओं में भी पानी आया है। इन्होंने नई खेती की ज़मीन दो गुना बढ़ाई है। पहले जल नहीं था, तो एकाध फ़सल भी नहीं हो पाती थी, अब तो दोनों फसलें अच्छे से उगाई जाती हैं। जहाँ पाँच मन बाजरा भी नहीं होता था, वहाँ अब 100 से लेकर 300 मन तक बाजरा पैदा हुआ है। सैंकड़ों उदाहरण मैंने देखे हैं जहाँ गेहूं, सरसों, का एक भी दाना नहीं होता था, अब वहाँ 200 मन सरसों और 400 मन गेहूँ हुआ है।
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सैरनी नदी के अध्ययन काल में जो बदलाव मैंने देखे हैं, यह अध्ययन अंततः यह दर्शाता है कि पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ एकीकृत करके जलवायु संकट और पारिस्थितिकीय संकट का समाधान संभव है। बहुविविध ज्ञान प्रणालियों को वैज्ञानिक और आर्थिक भाषाओं में अनुवादित करने की आवश्यकता है, ताकि वे आधुनिक समाज में स्वीकार्य बन सकें।इसके लिए “बहुल ज्ञान“ (च्सनतंस ज्ञदवूसमकहम) को एक नई दृष्टि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जो समग्र, टिकाऊ और न्यायपूर्ण भविष्य की ओर मार्गदर्शन करेगा। मेरा अध्ययन जारी है।
*लेखिका जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ से एनवायर्नमेंटल साइंस में डॉक्टरेट कर रही हैं और सैरनी नदी में जल संरक्षण से जैवविविधता संवर्द्धन उनके शोध का विषय है।